संपादकीय

अराजकता के समक्ष समर्पण

वोट बैंक की नाराजगी के भय से घबराई सरकारों ने एक बार फिर अराजकता के सामने समर्पण कर दिया है। माता पद्मिनी के स्वाभिमान की रक्षा के नाम पर शुरू हुए आंदोलन का मासूम स्कूली बच्चे तक शिकार हो रहे हैं। लेकिन न तो सरकारें चेत रही हैं और न ही आंदोलन के नेता। फिल्म सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र मिलने के बाद उच्चतम न्यायालय ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर किसी भी तरह के प्रतिबंध पर रोक लगा दी है इसके बावजूद राजस्थान और गुजरात सहित कई भाजपा शासित राज्यों में फिल्म का प्रदर्शन नहीं हो सका। जाहिर तौर पर ऐसा फिल्म वितरकांे या सिनेमाघर मालिकों के विरोध के कारण नहीं बल्कि उनके भय के कारण हुआ है। सरकारें इनको सुरक्षा का पूरा भरोसा दिला पाने में कामयाब नहीं हुई हैं तो साफ तौर पर यह कानून के राज को चुनौती और संविधान के प्रति सरकारों की प्रतिबद्धता पर सवालिया निशान हैं।
लोकतंत्र दुनिया की सर्वश्रेष्ठ शासन प्रणाली मानी जाती है लेकिन यह शासन व्यवस्था भी पूर्णतः दोषरहित नहीं है। लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है ऐसे में सत्ता के सिंहासन तक पहुंचने के लिए तमाम समूहों की जायज और नाजायज मांगों को मानना राजनैतिक दलों और नेताओं की मजबूरी है। राजपूत समाज लम्बे समय से भाजपा का समर्थक माना जाता है। इस वोट बैंक को खोने का जोखिम उठाने से बच रही भाजपा सरकारों के ढुलमुल रवैये से अराजकता को बढ़ावा मिला है। कुर्सी हिलने के भय से कानून व्यवस्था को अराजक तत्वों के हाथ बंधक रख देना देश की जनता के साथ छल है। अगर फिल्म में माता पद्मिनी के सम्मान के खिलाफ कुछ भी दिखाया गया है तो सरकार को अपनी विधायी शक्ति का प्रयोग करके इसके प्रदर्शन पर रोक लगाना चाहिए। माता पद्मिनी के स्वाभिमान के खिलाफ फिल्म में कुछ भी नहीं है तो विरोध करने वाले संगठनों के नेताओं को विश्वास में लेने के सार्थक प्रयास होने चाहिए। हठधर्मी पर अड़ कर अराजकता फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए। लेकिन सत्ता में बैठे लोगों की सोच कुछ ऐसी है कि वोट बैंक के सामने राजधर्म कोई मायने नहीं रखता है।
संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावत शुरू से ही विवादों से घिरी रही है। फिल्म की शूटिंग के दौरान भी राजपूत करणी सेना ने फिल्म के सेट पर तोड़फोड़ की थी। फिल्म पूरी होने के बाद जब इसकी रिलीज का समय आया तो भी इसके खिलाफ करणी सेना के साथ तमाम हिन्दूवादी संगठनों ने प्रदर्शन शुरू कर दिए। कई माह तक चले इस घटनाक्रम में फिल्म निर्माताओं ने विरोध कर रहे संगठनों को विश्वास मंे लेेने के सार्थक प्रयास नहीं किए। हमारे संविधान में देश के नागरिकों को तमाम अधिकार प्रदान किए हैं लेकिन कोई भी अधिकार समाज में अराजकता फैलाने और दूसरे के अधिकारों के अतिक्रमण की अनुमति नहीं देता। फिल्मकारों को भी यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए। अभिव्यक्ति की आजादी की भी एक सीमा है इसके नाम पर किसी को भी देश या समाज की प्रतिष्ठा से खिलवाड़ करने की आजादी कदापि नहीं दी जा सकती। किसी भी देश और समाज का इतिहास चाहे कितना भी गौरवशाली क्यों न हो उसमें उत्थान के साथ पतन और विजय के साथ पराजय की घटनाएं होना स्वभाविक है। लेकिन क्या पतन या पराजय की घटनाओं को आधार बनाकर देश और समाज के स्वाभिमान को चोट पहुँचाने की अनुमति दी जा सकती है। वर्ष 1962 के भारत चीन युद्ध में हमारी पराजय हुई थी तो क्या इस ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर चीन को विजेता और भारतीय सेना को कमजोर दिखाने वाले कथानक के आधार पर किसी फिल्म को बनाने और उसके प्रदर्शन की अनुमति अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दी जा सकती है। भारत में जब भी इस युद्ध पर फिल्म बनेगी तो उसमें नूरानांग क्षेत्र में 72 घंटों तक अकेले चीनी फौज से लोहा लेने वाले सूबेदार जसवंत सिंह रावत या मेजर शैतान सिंह भाटी सरीखे जाबांज शहीदों के अदम्य पराक्रम की दास्तान होगी जिनके सिर कट तो गए लेकिन जीते जी उन्होंने हिमालय का सिर झुकने नहीं दिया न कि चीनी सेना की जीत की कहानी। ऐतिहासिक तथ्यों या अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लोक मान्यताओं के साथ खिलवाड़ की भी अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। सतीत्व की रक्षा के लिए 16हजार रानियों के साथ जौहर व्रत करने वाली माता पùिनी के सम्मान को अघात पहुंचाने की किसी भी कोशिश को रोकना भी सरकारों की जिम्मेदारी है। अराजक आंदोलनों की कीमत पर अपने राजनैतिक हित साधने की कोशिशों से देश का लोकतंत्र कमजोर होगा।
सभी राजनैतिक दल वोट बैंक साधने के लिए अराजक तत्वों को प्रश्रय देते रहे हैं। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए सपा, बसपा और कांग्रेस में गलाकाट स्पर्धा रही है। इसीलिए इनकी सरकारों के समय में साम्प्रदायिक दंगे होने पर कानून का राज कहीं दिखाई नहीं देता है। सरकारों के संरक्षण की वजह से उनके वोट बैंकों के धार्मिक जुलूसों के दौरान भी कानून व्यवस्था को ताक पर रख कर अराजक प्रदर्शन होते हैं। अब जिन राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं बहां इनके समर्थक संगठनों के सामने सरकारें बौनी होती जा रही हैं। हरियाणा में जाट आरक्षण आंदोलन के मुद्दे पर कई महीने तक पूरे तंत्र को पंगु बना दिया गया। प्रदर्शनकारियों ने रेलवे को 200 करोड़ से ज्यादा का नुकसान पहुँचाया इसके अलावा भी सैकड़ों करोड़ रूपये की सार्वजनिक और निजी सम्पत्ति नष्ट कर दी गई। यौन उत्पीड़न के आरोप में डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम के जेल जाने से पहले सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम नहीं किए गए और इसके बाद हुई भीषण हिंसा में कई लोगों की जान चली गई और सम्पत्ति का भारी नुकसान हुआ। इसी तरह आरक्षण की मांग कर रहे गुजरात के पाटीदार आंदोलन को हिंसक होने से रोकने के सरकार की तरफ से व्यापक इंतजाम नहीं किए गए। इस आंदोलन की वजह से भी लोगों को काफी समस्या का सामना करना पड़ा। अपने दलगत हितांे की रक्षा करने की कोशिश में जुटे राजनैतिक दल संवैधानिक प्रावधानों की रक्षा करना भूल जाते हैं। नतीजन अराजक तत्वों को वातावरण खराब करने का मौका मिल जाता है।
बीते दिनों गोरक्षा के नाम पर भी लोगों ने जमकर गुण्डागर्दी की। केंद्र में भाजपा की सरकार बन जाने के बाद तमाम असामाजिक तत्वों ने गोरक्षकों का चोला ओड़कर गोरक्षा के नाम पर अवैध वसूली शुरू कर दी। उनको लग रहा था कि गोरक्षक का चोला पहन लेने से उन्हें सरकार का संरक्षण हासिल हो जाएगा। ऐसे में गोरक्षा के काम मंे जुटे गोभक्तोें ने समय की नजाकत को देखते हुए अपने आंदोलन को धीमा किया ताकि उनके अभियान का गुण्डा प्रवृत्ति के लोग नाजायज फायदा न उठा सकें। फिलहाल पद्मावत फिल्म भी देश के कई राज्यों में रिलीज हो चुकी है इसलिए इस फिल्म का विरोध कर रहे संगठनों के नेताओं का भी दायित्व है कि वे पहले फिल्म को देखें और अगर इसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है तो आंदोलन को बापस ले लें ताकि अराजक तत्व इस आंदोलन की आड़ में गुण्डागर्दी और लूटपाट न कर सकें। सरकार को भी इस मामले में दो टूक फैसला लेना चाहिए। अगर फिल्म आपत्तिजनक है तो सरकार संविधान के दायरे में रहकर अपने विधायी अधिकार का इस्तेमाल करके उच्चतम न्यायालय के फैसले के बावजूद इस पर रोक लगा सकती है। अन्यथा वोट बैंक की राजनीति के चलते अराजकता के सामने सरकारों के समर्पण के दूरगामी नतीजे भयावह होंगे।

-विकास सक्सेना

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