संपादकीय

नैतिक वकालत की आवश्यकता

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
आध्यात्मिक मार्गदर्शन, चिकित्सा और कानूनी सेवाओं से सम्बन्धित पेशे का एक सामान्य लक्षण है जो तीनों पेशों से सम्बन्धित विद्वानों में पाया जाता है। अपने ज्ञान और विद्वता के बल पर सामान्य जनता के दुःखों, कष्टों और विवादों में उचित मार्गदर्शन देना। इन विद्वानों के पास पहुँचने वाली जनता भी ऐसे विश्वास के साथ जाती है की उन्हें एक विशेष ज्ञान के आधार पर उचित मार्गर्दशन और सहायता प्राप्त होगी। सारे विश्व में यह तीनों पेशे सबसे प्राचीन कहे जा सकते हैं। इन तीनों पेशों ने जब तक अपने स्वार्थ को अधिक महत्त्व न देते हुए केवल जनता के विश्वास को बनाये रखते हुए मार्गदर्शन दिया तब तक जनता ने भी भगवान के बाद इन तीनों प्रकार के विद्वानों को धरती का भगवान ही मानकर सम्मान प्रदान किया।
वकालत के पेशे की यदि चर्चा करें तो भारत की जिला अदालतों में लगभग तीन से चार करोड़ के बीच मुकदमें विचारधीन पड़े हैं। सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों में लम्बित मुकदमों की संख्या भी 50 लाख से कम नहीं है। इतनी बड़ी संख्या में चल रही मुकदमेंबाजी के कारण आज वकालत का पेशा सेवा और विश्वास जैसे सुन्दर लक्षणों को छोड़कर केवल मात्र व्यापार के रूप में विकसित हो चुका है।
सामान्य जनता आज भी कानूनी दाँव-पेचों से अनजान ही दिखाई देती है। अपने गलत कार्यों से बचने के लिए या दूसरों को अपने प्रति किये गये गलत कार्यों का दण्ड दिलाने के लिए जनता वकीलों की शरण में पहुँचती है। एक व्यक्ति ने यदि किसी अन्य व्यक्ति या बैंक जैसी वित्तीय संस्था से कर्ज लिया हो परन्तु उस कर्ज को समय पर चुका न पा रहा हो और बैंक द्वारा कर्ज वसूली की कानूनी कार्यवाही प्रारम्भ कर दी गई हो तो ऐसा व्यक्ति कानूनी मार्गदर्शन और सहायता के लिए वकील के पास पहुँचता है। ऐसे दृश्य में एक नैतिक वकील का दायित्व यही होता है कि उस व्यक्ति को बैंक कर्ज की अदायगी का मार्ग दिखाये। यदि बड़ी राशि का कर्ज एक बार में चुकाना सम्भव न हो तो बैंक या अदालत के समक्ष अपनी सम्पत्तियों का पूरा ब्यौरा प्रस्तुत करते हुए कर्ज की अदायगी को किश्तों में भुगतान की व्यवस्था का प्रयास करना चाहिए। परन्तु वकील साहब एक भारी राशि अपनी फीस के रूप में वसूल करके ऐसे विवाद को एक-दो वर्ष के लिए लटकाने का मार्ग अधिक उचित समझते हैं। अज्ञान जनता मूर्ख बनकर सीधा अपना कर्ज चुकाने के स्थान पर वकीलों को फीसों का भुगतान करना इसलिए उचित समझती रहती है कि क्योंकि जनता का अपना स्वार्थ और वकीलों पर विश्वास दोनों ही उसे और मूर्ख बनाते रहते हैं। भाई-बहन में यदि सम्पत्ति बंटवारे को लेकर विवाद हो तो यह विवाद सालों-साल अदालतों में चलता रहता है। मूर्ख जनता वकीलों की फीसें देकर कई वर्षों का तनाव झेलने के लिए तैयार रहती है परन्तु अपने भाई-बहनों के बीच ईमानदारी से सम्पत्तियों का बंटवारा नहीं कर पाती। ऐसे नैतिक वकील भी विरले ही मिलते हैं जिनके पास यदि किसी परिवार का सम्पत्ति बंटवारे से सम्बन्धित पहुँचे तो वे कानूनी नियमों के अनुसार स्वयं ही ईमानदारी से उनका बंटवारा करवाने की पहल करे। इसी प्रकार पति-पत्नी के बीच छोटी-छोटी बातों को लेकर विवाद जब वकीलों के पास पहुँचते हैं तो दो के चार और चार के आठ आरोप-प्रत्यारोप लगाकर मुकदमेंबाजी प्रारम्भ कर दी जाती है। जिस छोटे-मोटे पारिवारिक क्लेश को अहंकार शून्यता पैदा करके मेल-जोल में बदला जा सकता था, ऐसा प्रयास करने वाले विरले ही नैतिक वकील मिलेंगे। आपराधिक मुकदमों में लोग कई वर्ष लड़ाईयाँ लड़ते रहते हैं, लाखों रुपये वकीलों की फीस के रूप में बर्बाद हो जाते हैं और अन्त में अपराध की सज़ा जब भुगतनी थी तो पहली अवस्था में ही न्यायाधीश के सामने अपना अपराध स्वीकार कर लेते और पीड़ित पक्ष को कुछ राशि मुआवज़े के रूप में देकर क्षमा याचना के प्रयास किये जाते तो शायद सज़ा से बचने का या कम सज़ा का मार्ग मिल जाता।
हमारे देश में वकीलों के चेम्बर एक व्यापारिक दुकानों की तरह दिखाई देते हैं। क्या ये चेम्बर नैतिकता, सुधारवाद, स्वार्थ और अहंकाररहित मेलजोल के केन्द्र नहीं बन सकते थे। यदि ऐसा होता तो यही चेम्बर भगवान की अदालत के रूप में पूजनीय स्थल बने हुए दिखाई देते। अदालतों के कमरों से अधिक शांति और संतोष नैतिक वकीलों के चेम्बर में जाकर मिलता। नीदरलैंड देश में काफी हद तक यह अधिकार दिये गये हैं कि वकीलों को प्रत्येक मुकदमें की प्रारम्भिक अवस्था में ही पूरे तथ्यों और कानूनी प्रावधानों के दृष्टिगत स्वयं ही एक न्यायिक निर्णय का प्रयास करें। ऐसे प्रयास के बाद दोनों वकील मिलकर एक निर्णय की तरह आदेश जारी करते हैं। वह आदेश यदि परस्पर सहमति से बना हो तो स्वाभाविक है कि दोनों पक्ष राजी और आगे अदालतों की आवश्यकता नहीं रहती। इसके विपरीत यदि किसी पक्ष को वकीलों के निर्णय से सहमति न हो तो वह अदालत के समक्ष मुकदमा प्रस्तुत कर सकता है, परन्तु ऐसे मुकदमों में अदालतें भी वकीलों के निर्णय को महत्त्व देती हैं और तथ्यों को साबित करने में निरर्थक समय बर्बाद नहीं होता।
आज भारत में ही नहीं अपितु विश्व के किसी भी विश्वविद्यालय में कानून की शिक्षा को नैतिक वकालत के रूप में नहीं पढ़ाया जा रहा। गरीब देशों या विकासशील देशों में ही नहीं अपितु पूर्ण विकसित देशों में भी वकालत एक ऐसा धंधा बन चुका है जिसमें अपराधों और विवादों में भागीदारी करके पैसा कमाना ही एक मात्र उद्देश्य दिखाई देता है।
दक्षिण अफ्रीका के ‘मोजाम्बिक’ नामक देश की सरकार ने व्यापारिक क्षेत्रों को सुविधा सम्पन्न बनाने के लिए भ्रष्टाचार की मुक्ति पर विचार-विमर्श प्रारम्भ किया। इसके लिए अनेकों उद्योपतियों और व्यापारियों की समितियाँ बनाई गई। समिति ने अपने निष्कर्ष में प्रमुख रूप से कहा कि उच्च अधिकारियों की भ्रष्ट आदतों के साथ-साथ वकालत का पेशा भी भ्रष्टाचार का मुख्य कारण है। उच्च अधिकारियों के भ्रष्टाचार पर तो कड़े कानूनों से लगाम लगाई जा सकती है परन्तु वकालत के पेशे को नैतिकता समझाने का कोई उपाय नहीं है।
जब भी कानून बनाने वाली संस्थाएँ जैसे संसद और विधानसभाएँ कानून पारित करती हैं तो उनका मुख्य उद्देश्य नैतिकता की स्थापना करना ही होता है। परन्तु जब कानूनों का उल्लंघन करने वाले लोग वकीलों की सेवाएँ लेते हैं तो प्रत्येक कानून के नैतिक उद्देश्य दब जाते हैं। अदालतों में वकीलों और न्यायाधीशों के बीच कानून के प्रावधानों की खींचतान को लेकर लाखों-करोड़ों शब्दों का प्रयोग किया जाता है, परन्तु नैतिकता के बल पर विवाद निपटारे का प्रयास बहुत कम दिखाई देता है। न्याय व्यवस्था से जुड़े प्रत्येक व्यक्ति को यह स्मरण रखना चाहिए कि नैतिक तर्कों में कानूनी तर्कों से भी अधिक शक्ति होती है। जब कभी कानूनी तर्कों के बल पर न्यायाधीश भी किसी निर्णय पर पहुँचने में सफल नहीं हो पाता तो वह भी नैतिकता का ही सहारा लेता है। इसलिए वकालत से जुड़े प्रत्येक विद्वान को अपने जीवन का यह अंग बना लेना चाहिए कि नैतिकता ही प्रत्येक कानून का आधार है इसलिए नैतिकता का त्याग वकालत जैसे पेशे में शोभा नहीं देगा। वकालत के सामने हर समय चुनौतीपूर्ण परिस्थितियाँ आती रहती हैं। प्रत्येक वकील को शीघ्र यह निर्णय करना पड़ता है कि वह अपने ग्राहक के अनैतिक आचरण का सहारा बनकर उसके पाप की कमाई में भागीदार बने या उसे कानून के नैतिक पक्ष का मार्गदर्शन देकर अपनी गलतियों को स्वीकार करने के लिए प्रेरित करे। वकालत में नैतिकता को बढ़ाने के लिए कानूनी शिक्षण संस्थाओं को भी कुछ परिवर्तन अवश्य ही करने चाहिए। न्याय व्यवस्था के मार्गदर्शक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, कानून मंत्रियों तथा उच्च राजनेताओं को देर-सवेर यह विचार करना ही होगा कि वकालत को नैतिकता के पथ पर ले जाने से ही देश में मेल-जोल, भाई-चारे और शांति का वातावरण बढ़ेगा, अन्यथा कानूनी लड़ाईयों के रूप में करोड़ों लोगों में फैला तनाव देश की जनता के मानसिक रोगों का कारण बना ही रहेगा।

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