संपादकीय

अपराधी रिकार्ड का प्रकाशन शर्मिन्दगी पैदा करेगा

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
भारतीय लोकतन्त्र में अपराधतंत्र की बढ़ती भागीदारी बहुत बड़ी चिन्ता का विषय बनी हुई है। पिछले कुछ वर्षों में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष कुछ याचिकाएँ विचाराधीन थीं जिनमें यह माँग की गई थी कि गम्भीर अपराधों के आरोपियों को निर्वाचन लड़ने से प्रतिबन्ध किया जाये। कानून की दृष्टि में कोई व्यक्ति अपराधी तभी माना जाता है जब उसे किसी अदालत के द्वारा सजा सुना दी गई हो, बेशक उस निर्णय के विरुद्ध उच्च अदालतों में अपील लम्बित हो। इस प्रावधान को देखते हुए वे राजनेता जिन पर अपराधिक मुकदमें चल रहे हैं, सदैव इसी प्रयास में रहते हैं कि मुकदमों के निर्णय होने ही न दिया जाये। भारतीय न्याय व्यवस्था की जानी मानी परम्परा – तारीख पे तारीख, का लाभ उठाते हुए गम्भीर अपराधों के मुकदमें कई वर्षों तक लम्बित ही पड़े रहते हैं। मुकदमों के लम्बित रहते किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं माना जाता, इसका लाभ उठाते हुए ऐसे अनेकों अपराधी राजनीति में भाग लेकर विधायक, सांसद और यहाँ तक कि मंत्री पद तक भी पहुँच जाते हैं।
कुछ समय पूर्व सर्वोच्च न्यायालय ने राजनेताओं से सम्बन्धित आपराधिक मुकदमों का शीघ्र निपटारा करने के लिए फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन का आदेश भी जारी किया था। कुछ राज्यों में यह कार्य प्रारम्भ हो गया है। जबकि बहुतायत राज्यों में अभी इस विषय पर कोई विशेष कार्यवाही नहीं हो पा रही। न्याय प्रक्रिया की इस लचरता का सीधा लाभ अपराधी राजनीतिज्ञों को ही मिल रहा है।
सर्वोच्च न्यायालय ने गम्भीर अपराधों के आरोपियों को भी निर्वाचन लड़ने से प्रतिबन्धित करने से तो बेशक इन्कार कर दिया है परन्तु लोकतन्त्र की गरिमा को छोटा सा सहारा प्रदान करते हुए कुछ विशेष निर्देश जारी किये हैं। इन निर्देशों का सार यह है कि निर्वाचन लड़ने वाले प्रत्येक उम्मीदवार को अपने विरुद्ध चल रहे सभी आपराधिक मुकदमों का विवरण निर्वाचन फार्म में तो देना ही होता था परन्तु अब सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार उसे यह सारी सूचना अपने राजनीतिक दल को भी देनी होगी जिसकी टिकट पर वह निर्वाचन लड़ने की तैयारी कर रहा है। इन निर्देशों के अनुसार ऐसे उम्मीदवार तथा सम्बन्धित राजनीतिक दल दोनों की यह प्रमुख जिम्मेदारी है कि वे बड़ी संख्या में प्रकाशित होने वाले अखबारों में ऐसे सभी विवरण प्रकाशित करवायें। अखबारों के अतिरिक्त यह विवरण इलेक्ट्रानिक मीडिया पर भी प्रसारित किये जायें। एकबार नहीं अपितु ऐसी घोषणाएँ प्रत्येक उम्मीदवार और प्रत्येक राजनीतिक दल को तीन बार करनी होगी।
अब भारत के मतदाताओं को समाचार पत्रों में ऐसे विज्ञापन देखने को मिलेंगे जिनमें प्रत्येक उम्मीदवार अपने विरुद्ध चल रहे अपराधिक मुकद्मों का विवरण प्रकाशित करेगा। इसी प्रकार बड़े-छोटे सभी राजनीतिक दलों को भी ऐसे सामूहिक विज्ञापन प्रत्येक राज्य के स्तर पर प्रकाशित करने होंगे जिसमें वे अपने ऐसे उम्मीदवारों के नाम और उनके विरुद्ध चल रहे अपराधिक मुकदमों का विवरण प्रकाशित करेंगे। क्या ऐसा करना इन राजनेताओं और राजनीतिक दलों के लिए गौरवशाली होगा? क्या ऐसा करने से ऐसे राजनीतिक दलों की सामूहिक छवि पर शर्मिन्दगी के दाग नहीं लगेंगे जिसका प्रभाव उनके सामान्य उम्मीदवारों पर भी पड़ने की सम्भावना प्रबल होगी? इन सारी शर्मिन्दगियों से बचने के लिए अब सभी राजनीतिक दलों के पास एक ही सुगम विकल्प होगा कि वे गम्भीर अपराधों के आरोपियों को निर्वाचन लड़ने के लिए टिकट देने से परहेज करें। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने बेशक गम्भीर अपराधों के आरोपियों को निर्वाचन लड़ने से प्रतिबन्धित करने से इन्कार तो कर दिया है परन्तु उक्त निर्देश जारी करके ऐसे राजनेताओं और सभी राजनीतिक दलों के लिए शर्मिन्दगी पैदा करने का प्रयास अवश्य कर दिखाया है।
दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीति के अपराधीकरण पर चिन्ता व्यक्त करते हुए लगभग 100 पृष्ठ का निर्णय जारी किया है जिसमें भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से इस समस्या पर गम्भीर चिन्ता जताई गई है। अदालत ने यह भी कहा है कि राजनेताओं, उच्चाधिकारियों और अपराधी तत्त्वों के बीच सांठ-गांठ बढ़ती जा रही है जिसका प्रभाव भारत के सामाजिक जीवन पर अनेकों प्रकार से पड़ रहा है। अपराध तन्त्र वास्तव में एक समानान्तर सरकार की तरह कार्य करता है। बड़े-बड़े शहरों में तो अपराध तन्त्र और राजनीति की सांठ-गांठ सम्पत्तियों के उद्योग के रूप में पनप रही है। कुछ वर्ष पूर्व बम्बई में सीरियल ब्लास्ट तथा अन्य आतंकवादी घटनाओं की छानबीन से यह स्पष्ट हुआ था कि केवल सामान्य अपराधियों ही नहीं अपितु उग्रवाद और आतंकवाद जैसी घटनाओं के तार भी उच्च सक्रिय राजनेताओं के साथ जुड़े हुए थे।
इन चिन्ताओं के दृष्टिगत सर्वोच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को यह सिफारिश की है कि यथाशीघ्र संसद को इस विषय पर एक पर्याप्त कानून पारित करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय के अंतिम भाग में यह आशा जताई है कि लोकतंत्र का कानून बनाने वाला पक्ष अर्थात् संसद देश के इस महारोग का उपचार करने का प्रयास अवश्य ही प्रारम्भ करेगा। यह महारोग ऐसा नहीं है जिसका उपचार न हो सके। परन्तु केवल समय की प्रतीक्षा है कि कब यह प्रयास प्रारम्भ होता है। जितना शीघ्र हो सके उतना ही अच्छा होगा, इससे पहले कि यह महारोग पूरे लोकतंत्र के सम्पूर्ण विनाश का कारण बने।
सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय से यह आशा की किरण जगी है कि श्री नरेन्द्र मोदी जैसा संवेदनशील प्रधानमंत्री अवश्य ही इस दिशा में कुछ कारगर प्रयास करेगा। यदि केन्द्र सरकार ऐसा कोई भी प्रयास करती है तो सभी राजनीतिक दलों को भी उसमें चुपचाप समर्थन दे देना चाहिए अन्यथा विरोध करने वाले राजनीतिक दलों को अपराधियों का समर्थक होने का ठप्पा झेलना होगा। सरकार के अतिरिक्त सारे देश के समस्त गैर राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक संगठनों को भी सभी राजनीतिक दलों के समक्ष यह माँग पत्र भेजना चाहिए कि वे भूलकर भी गम्भीर अपराधों के आरोपियों को निर्वाचन लड़ने के लिए अपने टिकट न देने की घोषणा करें।

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