संपादकीय

आखिर कैसे सुधरेगी मजदूरों की स्थिति?

1 मई : मजदूर दिवस

-रमेश सर्राफ धमोरा
स्वतंत्र पत्रकार
मजदूर दिवस यानि मजदूरों का दिन। कहने और सुनने में कितना शकुन देता है यह शब्द। लेकिन इस शब्द के मायने, शायद उन मजदूरों के लिए कुछ भी नही जिनके नाम पर इसे दुनिया में मनाया जा रहा है। वो बेचारे तो इस दिन भी अपनी रोजी रोजी के लिए कमर तोड़ पसीना बहा रहे होते हैं। यदि नहीं बहाएंगे तो उनका परिवार भूखा ही सोयेगा। फिर कैसा मजदूर दिवस, किसका मजदूर दिवस? दिन रात रोजी-रोटी के जुगाड़ में जद्दोजहद करने वाले मजदूर के लिए पेट और परिवार की मजबूरी में हर दिवस छोटा होता है। उसे तो दो जून की रोटी मिल जाए मानों सब कुछ मिल गया। आजादी के इतने साल में भले ही बहुत कुछ बदला हो, लेकिन नहीं बदले तो सिर्फ मजदूरों के हालात। तो फिर क्यों मनाये मजदूर दिवस?
दुनिया भर में प्रतिवर्ष 1 मई को मजदूर दिवस यानी अंतर्राष्ट्रीय श्रम दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिसे मई दिवस भी कहा जाता है। मई दिवस समाज के उस वर्ग के नाम किया गया है, जिसके कंधों पर सही मायनों में विश्व की उन्नति का दारोमदार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति एवं राष्ट्रीय हितों को पूरा करने का प्रमुख्ख भार मजदूर वर्ग के कंधों पर ही होता है। मजदूर वर्ग की कड़ी मेहनत के बल पर ही राष्ट्र की प्रगति का चक्र तेजी से घुमता है, लेकिन कर्म को ही पूजा समझने वाला श्रमिक वर्ग श्रम कल्याण सुविधाओं के लिए आज भी तरस रहा है। वैश्वीकरण और मुनाफे की अंधी दौड़ में मजदूरों का शोषण आज भी जारी है। प्रतिदिन आठ घंटे और सप्ताह में 40 घंटे कामकाज, उचित पारिश्रमिक और बेहतर माहौल जैसी मांगों को लेकर शुरू हुआ मजूदरों का संघर्ष आज भी जारी है। यही वजह रही है कि मजदूर दिवस जैसे आयोजन अब इस तबके को बेमानी से लगने लगे हैं।
आज भी देश का शायद ही ऐसा कोई हिस्सा हो जहां मजदूरों का खुलेआम शोषण न होता हो। आज भी स्वतंत्र भारत में बंधुआ मजदूरों की बहुत बड़ी तादाद है। कोई ऐसे मजदूरों से पूछकर देखे कि उनके लिए देश की आजादी के क्या मायने हैं ? जिन्हें अपनी मर्जी से अपना जीवन जीने का ही अधिकार न हो, जो दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी अपने परिवार का पेट भरने में सक्षम न हो पाते हों। उनके लिए क्या आजादी और क्या गुलामी? सबसे बदतर स्थिति तो बाल एवं महिला श्रमिकों की है। बच्चों व महिला श्रमिकों का आर्थिक रूप से तो शोषण होता ही है, उनका शारीरिक रूप से भी जमकर शोषण किया जाता है। अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिए चुपचाप सब कुछ सहते रहना इन बेचारों की जैसे नियति बन गयी है।
समय बीतने के साथ मजदूरों के आत्म सम्मान का दिवस कहा जाने वाले मजदूर दिवस को लेकर श्रमिक तबके में अब कोई खास उत्साह नहीं रह गया है। बढ़ती महंगाई और पारिवारिक जिम्मेदारियों ने भी मजदूरों को उत्साह से दूर कर दिया है। मसलन अब मजदूर दिवस इनके लिए सिर्फ कागजी बनकर रह गया है। अब तो आलम यह है कि दो जून की रोटी, एक अदद छत और बच्चों के सुनहरे भविष्य के सपने संजोकर पराए प्रदेश में जाकर हाड़-तोड़ मेहनत करने के बावजूद तिल-तिल सिसकती जिंदगी जी रहे इन मेहनतकश मजदूरों के लिए अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस जैसे आयोजन कोई मायने नहीं रखते हैं।
मजदूर तबका यह अच्छी तरह से जानता है कि इस दिन हर साल की तरह उनके हितों की रक्षा के लिए दावे किए जाएंगे और दलीलें दी जाएंगी। लेकिन साल भर जब यह तबका नौकरी के लिए संघर्ष करता है, या नौकरी मिल जाए तो पगार लेने के लिए जद्दोजहद और फिर कम पगार में घर चलानें की चुनौतियों से जुझता है, तो कोई भी संगठन सही मायने में इनके लिए आगे नहीं आता। यहां का मजदूर एक अदद छत, उचित वेतन व अन्य मूलभूत सुविधाओं के अभाव में गुजर-बसर करने को मजबूर है।
मई दिवस के अवसर पर देशभर में बड़ी-बड़ी सभाएं, सेमीनार आयोजित किए जाते हैं, जिनमें मजदूरों के हितों की बड़ी-बड़ी योजनाएं बनती हैं और ढ़ेेर सारे लुभावने वायदे किए जाते हैं। सरकारे समाचार पत्रो में मजदूरो के हित की योजनाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन जारी करती है जिन्हें देख सुनकर एक बार तो यही लगता है कि मजदूरों के लिए अब कोई समस्या बाकी नहीं रहेगी। लोग इन खोखली घोषणाओं पर तालियां पीटकर अपने घर लौट जाते हैं किन्तु अगले ही दिन मजदूरों को पुनरू उसी माहौल से रूबरू होना पड़ता है। मजदूरो को फिर वही शोषण, अपमान व जिल्लत भरा गुलामो जैसा जीवन जीने के लिए अभिशप्त होना पड़ता है।
कैसे बदले मजदूरो के हाल कैसे बदले उनकी दशा और दिशा। मजदूरों का ना सामाजिक स्तर बदला, ना शिक्षा का स्तर बदला। जिंदगी लगातार उसी ढर्रे पर चल रही है। डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, वकील का बेटा वकील मास्टर का बेटा मास्टर तो क्या मजदूर के बच्चे मजदूर ही रहेंगे। रोटी, कपड़ा और मकान के लिए जूझते इस श्रमिक वर्ग के लिए इस मजदूर दिवस की कितनी उपयोगिता है इसे समझना बहुत मुश्किल नहीं है। यह भी स्पष्ट है कि पूंजीवादी बाजार और सत्ता इस मजदूर दिवस को कितना महत्व देते हैं।
जहां तक मजदूरों द्वारा अपने अधिकारों की मांग का सवाल है तो मजदूरों के संगठित क्षेत्र द्वारा ऐसी मांगों पर उन्हें अक्सर कारखानों के मालिकों की मनमानी और तालाबंदी का शिकार होना पड़ता है। सरकार कारखानों के मालिकों के मनमाने रवैये पर कभी भी कोई लगाम लगाने की चेष्टा इसलिए नहीं करती क्योंकि चुनाव का दौर गुजरने के बाद उसे मजदूरों से तो कुछ मिलने वाला होता नहीं हैं। चुनाव फंड के नाम पर सभी राजनीतिक दलों को चन्दे के रूप में मोटी-मोटी थैलियां इन्हीं कारखानों के मालिकों से ही मिलती हैं।
देश के सभी राजनीतिक दलों ने अपने यहां मजदूर मार्चा बना रखा। सभी दल दावा करते हैं कि देश में उनके दल से बड़ी कोई पार्टी नहीं है जो मजदूरो के भले के लिये काम करती है। मगर ये सिर्फ कहने सुनने में अच्छा लगता है हकीकत इससे कहीं उलट हैं। जहां तक मजदूर संगठनों के नेताओं द्वारा मजदूरों के हित में आवाज उठाने की बात है तो आज के दौर में अधिकांश ट्रेड यूनियनों के नेता भी भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र का हिस्सा बने हैं। जो विभिन्न मंचों पर श्रमिकों के हितों के नाम पर गला फाड़ते नजर आते हैं लेकिन अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति हेतु कारखानों के मालिकों से सांठगांठ कर अपने ही मजदूर भाईयों के हितों पर कुल्हाड़ी चलाने में संकोच नहीं करते। देश में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के फैलते जाल से भारतीय उद्योगों के अस्तित्व पर वैसे ही संकट मंडरा रहा है और ऐसे में मजदूरों के लिए रोजी-रोटी की तलाश का संकट और भी विकराल होता जा रहा है।
मजदूर दिवस के दिन कई जगह मजदूरों के झुंड एकत्रित कर रैलियां निकालीं जायेंगी। ऐसा नहीं है कि हमारे दर्शन में मजदूरों के लिए कोई सन्देश नहीं है पर उसमें मनुष्य में वर्गवाद के वह मन्त्र नहीं है जो समाज में संघर्ष को प्रेरित करते हैं। हमारे अध्यात्मिक दर्शन द्वारा प्रवर्तित जीवनशैली पर दृष्टिपात करें तो उसमें पूंजीपति, मजदूर और गरीब अमीर को आपस में सामंजस्य स्थापित करने का सन्देश है।

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