संपादकीय

एस.सी., एस.टी. कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण

महाराष्ट्र सरकार ने वर्ष 2004 में एक आदेश के द्वारा अनुसूचित जाति, जनजाति तथा कुछ अन्य विशेष पिछड़े वर्गों के सरकारी कर्मचारियों को पदोन्नति में भी आरक्षण का अधिकार प्रदान किया था। इस आदेश को मुम्बई उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी। मुम्बई उच्च न्यायालय ने यह सारा विषय महाराष्ट्र प्रशासनिक प्राधिकरण को निर्णय के लिए भेज दिया था। महाराष्ट्र प्रशासनिक प्राधिकरण ने 2014 के एक निर्णय के द्वारा पदोन्नति में आरक्षण सम्बन्धी आदेश को संविधान के विरुद्ध ठहराया था।
मुम्बई उच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों की खण्डपीठ ने प्रशासनिक प्राधिकरण के निर्णय के विरुद्ध प्रस्तुत अपील पर सुनवाई की। खण्डपीठ के एक न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री अनूप मोहता ने प्राधिकरण के इस निर्णय को उलटते हुए पदोन्नति में आरक्षण सम्बन्धी आदेशों को उचित ठहराया जबकि दूसरे न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री ए.ए. सैय्यद ने पदोन्नति में आरक्षण को संविधान के विरुद्ध बताया। न्यायमूर्ति श्री सैय्यद ने प्राधिकरण को इस कार्य के लिए अधिकृत नहीं माना कि जो इन आदेशों की संवैधानिकता की जाँच कर सके। जबकि वास्तव में न्यायमूर्ति श्री अनूप मोहता ने भी प्राधिकरण को इस कार्य के लिए अनाधिकृत माना था। इसलिए यह सारा मुकदमा मुख्य न्यायाधीश के आदेश से एक अन्य तीसरे न्यायाधीश श्री एम.एस. सोनक के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
न्यायमूर्ति श्री सोनक ने सर्वोच्च न्यायालय के एक महत्त्वपूर्ण निर्णय एम. नागराज का संदर्भ प्रस्तुत करते हुए कहा कि राज्य सरकार ने उचित तरीके से आंकड़ों का संग्रहण नहीं किया जिससे उचित प्रतिनिधित्व न होना सिद्ध हो सके, अतः पदोन्नति में आरक्षण का आदेश उचित नहीं ठहराया जा सकता।
सर्वोच्च न्यायालय ने अनेकों पूर्व निर्णयों में सिद्धान्त रूप से इसे मान्य किया था कि नियुक्ति का अर्थ सीधा नियुक्ति ही नहीं अपितु पदोन्नति भी होता है। अतः जिन वर्गों को पिछड़ा होने के कारण प्रारम्भिक भर्ती के लिए नियुक्ति में आरक्षण दिया जाता है उन्हें पदोन्नति में भी आरक्षण दिया जा सकता है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ ने 1992 में ही इन्दिरा साहनी नामक निर्णय के द्वारा यह व्यवस्था जारी की कि नियुक्ति का अर्थ केवल प्रारम्भिक नियुक्ति ही माना जायेगा इसमें पदोन्नति शामिल नहीं होगी। हालांकि इन्दिरा साहनी नामक निर्णय ने पूर्व निर्णयों की व्याख्या को 5 वर्ष तक जारी रखने का आदेश दिया था। इन्दिरा साहनी निर्णय से केन्द्र सरकार भी असमंजस की स्थिति में थी। अतः एक संविधान संशोधन के द्वारा अनुसूचित जाति और जनजातियों को पदोन्नति में भी आरक्षण का अधिकार दिया गया। यह अधिकार अन्य पिछड़े वर्गों को नहीं दिया गया था। सरकार की इस कार्यवाही को एम. नागराज नामक मुकदमें में चुनौती दी गई जिसका निर्णय वर्ष 2006 में सुनाया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय के द्वारा केन्द्र सरकार के उस विशेष प्रावधान को संविधान सम्मत ठहराया था जिसमें केवल अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों को ही पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान जोड़ा गया था। इस निर्णय में यह स्पष्ट किया गया था कि राज्य को उचित प्रतिनिधित्व से सम्बन्धित आंकड़ों के आधार पर ही कुछ पिछड़े वर्गों को पदोन्नति में आरक्षण देने का अधिकार है। इसके अतिरिक्त प्रशासन की क्षमता को भी ध्यान में रखना होता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने तीन मुख्य शर्तों को घोषित किया था जिनके आधार पर पदोन्नति में आरक्षण दिया जा सकता है – प्रथम, किसी वर्ग का पिछड़ापन, दूसरा, उचित प्रतिनिधित्व का अभाव और तीसरा, कुल मिलाकर प्रशासनिक क्षमता पर उस आरक्षण का प्रभाव।
महाराष्ट्र सरकार द्वारा पदोन्नति में आरक्षण सम्बन्धित आदेश जारी करने से पूर्व इन तीनों शर्तों को पूरा करते हुए कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया। महाराष्ट्र सरकार ने 1961 से लेकर वर्ष 2001 तक की अनेकों रिपोर्ट तथा उनके अंश अपने निर्णय के समर्थन में प्रस्तुत किये। परन्तु मुम्बई उच्च न्यायालय के तीसरे न्यायाधीश श्री एम.एस. सोनक ने इन्हें निरर्थक घोषित किया क्योंकि इन सभी रिपोर्टों में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की वर्तमान अवस्था अर्थात् उचित प्रतिनिधित्व का कोई उल्लेख नहीं था। इन परिस्थितियों में न्यायमूर्ति श्री सोनक ने न्यायमूर्ति श्री सैय्यद के विचारों से सहमति व्यक्त करते हुए महाराष्ट्र सरकार के उस आदेश को संविधान विरुद्ध घोषित किया जिसमें अनुसूचित जाति एवं जनजाति के कर्मचारियों को पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था घोषित की गई थी।
दूसरी तरफ केन्द्र सरकार ने हाल ही में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को पदोन्नति में आरक्षण देने की पहल प्रारम्भ कर दी है। केन्द्र सरकार सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों का अध्ययन करने के बाद सभी शर्तों को पूरा करते हुए ही अब इस प्रयास को अन्तिम रूप देगी।
-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

 

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