कर्तव्यहीन पुत्रों की दुर्दशा निश्चित
-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
इंसानियत बहुत बड़ा सिद्धान्त है। मानवतावादी कानूनों और कई अन्तर्राष्ट्रीय अनुबन्धों का मूल आधार इंसानियत ही है। ऐसे ही एक अन्तर्राष्ट्रीय अनुबन्ध के अनुसार जब किसी देश में किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति ऐसे हालात पैदा हो जाते हैं कि उनके मानवाधिकारों का इतना गम्भीर उल्लंघन होने लगता है कि उनके लिए उस देश में रहना अत्यन्त कठिन हो जाता है। ऐसी परिस्थितियों में वे अपने देश की सीमा से बाहर पड़ोसी देश में शरण ले सकते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार ऐसी परिस्थतियों में शरण लेना भी एक अधिकार बन जाता है। अर्थात् जब किसी देश में कोई शरणार्थी प्रवेश करता है तो उसे मानवाधिकार अवश्य ही प्राप्त होना चाहिए।
अधिकार और कर्तव्यों के बीच अक्सर एक ठण्डी जंग छिड़ी रहती है। इस जंग में अधिकार हमेशा जीतते हुए ही नजर आते हैं और कर्तव्य अपने अन्दर छिपी अनेकों महानताओं के बावजूद भी सिसकते हुए दिखाई देते हैं। अधिकारों में स्वार्थवाद से लेकर अहंकार तक प्रबल रूप से विद्यमान होते हैं। जबकि कत्र्तव्यों में परोपकार, स्वार्थरहित सेवाभाव, दूसरों का सम्मान और संरक्षण तथा अहंकार शून्यता जैसे गुण दिखाई देते हैं। परन्तु फिर भी आधुनिक समाज, स्वार्थ और तुष्टिकरण वाली राजनीति और यहाँ तक कि न्याय व्यवस्था का भी अधिकारों की रक्षा पर ही ध्यान केन्द्रित रहता है।
रोहिंग्या मुसलमान म्यानमार देश से निकलकर जब भारत के पश्चिम बंगाल प्रान्त में प्रवेश करते हैं तो अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय एक तरफ उनके मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं को लेकर शोर मचाने लगता है जिसमें म्यानमार में उनके विरुद्ध अत्याचार के तथ्यों पर विलाप किया जाता है और दूसरी तरफ पड़ोसी देश होने के नाते भारत से यह आशा की जाती है कि उन्हें शरणार्थी के रूप में स्वीकार किया जाये। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय म्यानमार के समाज और सरकार से यह नहीं पूछना चाहता कि रोहिंग्या मुसलमानों ने म्यानमार में क्या हरकतें की जिसके कारण सरकारी प्रशासन या सेना को उनके विरुद्ध कार्यवाहियाँ करनी पड़ी। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय इस बात में भी रुचि नहीं रखता कि रोहिंग्या मुसलमानों के बीच कौन सी ऐसी आदतें और प्रवृत्तियाँ हैं जिसके कारण वे अपने देश में अपने कर्तव्यों का पालन करने के कारण सरकारी प्रताड़ना का शिकार बनें। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय भारत को भी यह अधिकार नहीं देना चाहता कि वह इस बात से आश्वस्त हो जाये कि ये रोहिंग्या शरणार्थी अपनी वही आदतें और प्रवृत्तियाँ भारत में भी लागू करेंगे या उनका त्याग करने के लिए तैयार होंगे? इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि रोहिंग्या मुसलमान मूलतः अपराधी प्रवृत्ति के अतिरिक्त उग्रवाद के भी प्रबल समर्थक हैं। इनके तार पाकिस्तान के तालिबान नेताओं के साथ भी जुड़े हुए हैं जिनके कारण म्यानमार सरकार को इनके विरुद्ध कड़ी कार्यवाही के लिए मजबूर होना पड़ा। बंगला देश से होते हुए ये रोहिंग्या भारत में प्रवेश करने लगे। भारत में पश्चिम बंगाल की ममता सरकार ने यह सोचकर इनका दिल से स्वागत किया कि इससे राजनीति में उनके मुस्मिल वोटबैंक को मजबूती मिलेगी। भारत सरकार ने इंसानियत के नाते रोहिंग्या मुसलमानों को शरणार्थी के रूप में तो स्वीकार कर लिया परन्तु जब यह आदेश जारी किया कि इन मुसलमानों को पश्चिम बंगाल राज्य तक ही सीमित रखा जाये तो तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने इस पर यह कहते हुए आपत्ति व्यक्त की कि इंसानियत केवल पश्चिम बंगाल तक ही सीमित क्यों रखी जाये। इस राजनीतिक बयानबाजी के बीच ये राजनेता रोहिंग्या अधिकारों से भी अधिक अपने राजनीतिक लाभ पर ध्यान केन्द्रित रखते हैं। रोहिंग्या मुसलमानों के अपने इंसानियत के स्तर अर्थात् उनके कर्तव्य पालन पर किसी का कोई ध्यान नहीं। अन्ततः सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में कुछ रोहिंग्या मुसलमानों को वापस म्यानमार भेजे जाने की कार्यवाही को रोकने से इन्कार करके यह संकेत दे दिया है कि इंसानियत की भूमिका भी कहीं न कहीं सीमित करनी ही पड़ती है। इंसानियत का अर्थ यह नहीं हो सकता कि मूल निवासियों के लिए सिरदर्द पैदा हो जाये।
अधिकारों और कर्तव्यों की लड़ाईयाँ सारे संसार में विद्यमान हैं। यह द्वन्द तब तक चलता रहेगा जब तक आधुनिक समाज कर्तव्यों के अनुपालन पर ध्यान केन्द्रित नहीं करेगा। दो लड़ने वाले पक्षों में दोनों को ही इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाना आवश्यक है। परिवारों में माता-पिता बच्चे को पैदा करते हैं, पूरी ममता के साथ उसका पालन-पोषण और पढ़ाई-लिखाई सम्पन्न करवाई जाती है। माँ-बाप अपनी सारी जवानी कमाई करने में इसलिए लगाते हैं कि वे अपनी जमा-पूंजी से अपने बच्चों का भविष्य सुरक्षित कर सकें। उस जमा-पूंजी से बनाई गई सम्पत्तियों को भी वे अपने बच्चों के नाम कर देते हैं। मकान बेचने वाला व्यक्ति पूरी राशि लेकर खरीददार को मकान सौंपता है। परन्तु माता-पिता केवल ममता से भरी एक आशा के आधार पर अपनी सम्पत्तियाँ बच्चों को दे देते हैं कि बच्चे भी उनकी वृद्धावस्था में उनका सहारा बनेंगे। माता-पिता तथा वरिष्ठ नागरिकों के संरक्षण और कल्याण के लिए बनाये गये कानून में यह प्रावधान है कि बच्चों को माता-पिता के भरण-पोषण खर्च के लिए बाध्य किया जाये। यहाँ तक कि बच्चों से माता-पिता का आवास खाली करने के लिए कहा जा सकता है। दिल्ली की एक ऐसे ही कर्तव्यहीन व्यक्ति ने जब अपने माता-पिता के संरक्षण और पालन में लापरवाहियाँ दिखाई तो माता-पिता ने उससे वो मकान खाली करने को कहा जिसे वे पहले ही उसके नाम हस्तांतरित करवा चुके थे। वरिष्ठ नागरिकों के संरक्षण के लिए बने प्राधिकरण ने उस पुत्र को मकान खाली करने का आदेश दे दिया। कर्तव्यहीन पुत्र दिल्ली उच्च न्यायालय इस तर्क के साथ पहुँचा कि वह माँ-बाप को भरण-पोषण खर्च देने के लिए तैयार है तो मकान वापसी का आदेश गलत है। दिल्ली उच्च न्यायालय के एकल जज ने कर्तव्यहीन पुत्र के तर्क को अस्वीकार कर दिया। दो न्यायाधीशों की खण्डपीठ ने भी कर्तव्यहीन पुत्र की अपील को अस्वीकार कर दिया। हो सकता है यह कर्तव्यहीन पुत्र सर्वोच्च न्यायालय द्वार भी खटखटाये, परन्तु यह स्पष्ट हो चुका है कि अब माता-पिता के संरक्षण मामलों में कानून और न्यायालयों ने बच्चों को अधिकारों का पाठ पढ़ाने की कमर कस ली है।
देश के प्रत्येक नागरिक को यह एहसास हो जाना चाहिए कि अपने माता-पिता के सामने वह सम्पत्ति का मालिक नहीं बन सकता। सम्पत्ति का मालिक बनने का अधिकार प्राप्त करने के लिए बच्चों के कर्तव्यों पर ध्यान देना ही होगा। यदि रोहिंग्या मुसलमानों ने भी म्यानमार में अपने कर्तव्यपालन पर ध्यान दिया होता तो शायद उनके विरुद्ध देश निकाला और अत्याचारों का सिलसिला शुरू ही न होता। जिस प्रकार कर्तव्यहीन पुत्र को घर से निकाला जा सकता है उसी प्रकार कर्तव्यहीन नागरिकों को भी देश निकाला झेलना ही पड़ेगा।