संपादकीय

कैसे मजबूत होगा भारत का न्याय तंत्र?

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
किसी भी लोकतंत्र के तीन प्रमुख अंग होते हैं – विधायिका अर्थात् संसद और राज्यों की विधानसभाएँ, कार्यपालिका अर्थात् सरकार चलाने वाला नौकरशाही तन्त्र तथा न्याय पालिका अर्थात् अदालतों की तीन स्तरों पर चलने वाली व्यवस्था। इन तीनों में से एक मायने में न्याय पालिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इस पर एक तरफ नागरिकों के विवाद सुलझाने का बहुत बड़ा दायित्व है तो दूसरी तरफ विधायिका और कार्यपालिका द्वारा कोई कार्य संविधान विरुद्ध न हो यह दायित्व भी न्याय पालिका पर ही है।
न्याय पालिका की दुर्दशा लगातार बढ़ती जा रही है। इस दुर्दशा को एक ही यन्त्र से मापा जा सकता है कि कितनी शीघ्रता के साथ न्यायालयों में मुकदमों का निपटारा होता है। हमारे देश की न्याय पालिका के तीन स्तर हैं – सबसे नीचे जिला स्तर तक की अदालतें, मध्यम स्तर पर प्रत्येक राज्य के उच्च न्यायालय तथा सबसे ऊपर भारत का एक सर्वोच्च न्यायालय। इन सारी अदालतों में लगभग तीन करोड़ मुकदमें लम्बित हैं जिनमें से लगभग 60 लाख मुकदमें तो ऐसे हैं जो 5 साल से भी अधिक समय से लटके पड़े हैं। जितनी देर तक अदालतों में मुकदमें लटके रहते हैं उतनी अवधि तक दो पक्षों में असंतोष बना रहता है। दो पक्षों का अर्थ दो व्यक्ति ही नहीं होता अपितु दो परिवार और यहाँ तक कि कई बार एक-एक मुकदमें के निर्णय से सैकड़ों, हजारों व्यक्ति प्रभावित होते हैं। मुकदमों के लम्बित रहने का सीधा अर्थ है उन सभी लोगों में असंतोष और धैर्यहीनता का बढ़ते जाना जो मुकदमें के निर्णय से प्रभावित हो सकते हैं। इस असंतोष से कितनी बड़ी संख्या में देश के नागरिकों की उत्पादन शक्ति भी प्रभावित होती है। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से नागरिकों में असंतोष का अर्थ है देश के विकास में रुकावट।
इसलिए किसी भी देश में विकास को निर्बाध गति से जारी रखने के लिए यह आवश्यक है कि न्याय पालिका चुस्त-दुरुस्त तरीके से कार्य करे। भारत के सर्वोच्च न्यायालय में 31 न्यायाधीशों के स्थान हैं जबकि इस वक्त केवल 25 न्यायाधीश कार्य कर रहे हैं और 7 न्यायाधीश इसी वर्ष सेवा निवृत्त होने वाले हैं। देश के 24 उच्च न्यायालयों में 1079 न्यायाधीशों के स्थान हैं जिनमें से लगभग 400 स्थान रिक्त हैं। जिला स्तर तक की अदालतों में न्यायाधीशों के 20 हजार से कुछ अधिक स्थान हैं जिनमें से इस समय लगभग 5 हजार स्थान रिक्त हैं।
अमेरिका जैसे विकसित देशों में लगभग 10 हजार लोगों पर एक न्यायाधीश कार्य करता है। जबकि हमारे देश में लगभग 80 हजार लोगों पर एक न्यायाधीश निर्धारित है। उस निर्धारित संख्या में भी नियुक्तियों में देरी इस अनुपात को और अधिक बढ़ा देती है। लम्बे समय से भारत की न्याय पालिका सरकारों से यह माँग करती रही है कि न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जाये और निर्धारित संख्या में नियुक्तियों की प्रक्रिया भी तेज की जाये। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए राष्ट्रीय स्तर पर एक आयोग भी गठित किया गया था परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के अपने आदेश से ही वह कार्य भी लटक गया है। नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्र सरकार में एक ठण्डी लड़ाई चलती रहती है जिसके कारण न्यायाधीशों की नियुक्तियाँ भी हमेशा सुस्त गति से हो पाती हैं। देश की सभी जिला अदालतों के न्यायाधीशों की नियुक्ति राज्य स्तर पर होती है। सर्वोच्च न्यायालय तथा केन्द्र सरकार इस विषय पर भी विचार कर रहे हैं कि सारे देश की जिला अदालतों के न्यायाधीशों की नियुक्ति भी एक केन्द्रीय प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रारम्भ की जाये। विडम्बना है कि सर्वोच्च न्यायालय और केन्द्र सरकार के बीच नियुक्तियों को लेकर बना द्वन्द स्वयं ही एक बड़ी समस्या बना हुआ है।
फिर भी मुकदमों के शीघ्र निपटारे के लिए वर्तमान व्यवस्था में से भी कई हल ढूंढ़े जा सकते हैं। जिला अदालतों तथा उच्च न्यायालयों में एक शिफ्ट के स्थान पर दो शिफ्ट में कार्य प्रारम्भ किया जा सकता है। सांन्ध्य अदालतों की शुरुआत कुछ राज्यों में की गई है। इसे यदि सारे भारत में लागू किया जाये तो मुकदमों के निपटारे में बहुत बड़ी सुविधा मिल सकती है। अदालतों में मुकदमों को लटकाने के प्रयासों को समाप्त करना न्यायाधीशों के हाथ में है। किसी मुकदमें में बिना किसी मजबूत कारण के तिथियाँ आगे न बढ़ाई जायें। न्यायाधीशों पर मुकदमों की छोटी-मोटी प्रक्रिया का दायित्व न छोड़ा जाये। इसके लिए अन्य सहायक अधिकारी भी नियुक्त किये जा सकते हैं। भारत के न्यायालयों को आधुनिक बनाने के लिए भी अभी बहुत कुछ किया जाना है। आज भी जिला स्तर तक के अनेकों न्यायालय कम्प्यूटर तकनीक से भी वंचित हैं। इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकारों को न्याय पालिका के कार्य संचालन के बजट में भी वृद्धि करनी ही होगी। हमारे देश में वर्ष 2016 के बजट में न्याय व्यवस्था के लिए 0.2 प्रतिशत राशि आबंटित की गई थी। निःसंदेह 2017 के बजट में यह राशि 0.4 प्रतिशत कर दी गई परन्तु अमेरिका जैसे विकसित देशों में न्याय पालिका के लिए 4 प्रतिशत से भी अधिक राशि आबंटित की जाती है। केन्द्र सरकार का न्याय मंत्रालय जब तक इस गम्भीर विषय पर उदारता पूर्वक कार्य नहीं करेगा तब तक न्याय तंत्र की मजबूती दूर का सपना ही बना रहेगा। न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाना बेशक तत्काल रूप से सम्भव न हो परन्तु कुछ अन्य सुझाव केवल आदेशों और थोड़े से बजट में वृद्धि करके लागू किये जा सकते हैं। जैसे निर्धारित संख्या में न्यायाधीशों की नियुक्ति, सांन्ध्य अदालतों की शुरुआत और न्यायाधीशों को प्रक्रियात्मक कार्यों से मुक्त करके इन कार्यों को कानून में दक्ष सहायक अधिकारियों को सौंपना।

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