संपादकीय

गाँधी सत्य के मौखिक परम्परा के वाहक हैं : प्रो. गणेश नारायण देवी

नई दिल्ली। रजा फाउंडेशन एवं इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के संयुक्त तत्वावधान में 20-11-2018 को शाम 06ः30 पर ‘गाँधी मैटर्स’ श्रृंखला का दूसरा आयोजन प्रसिद्ध भाषा-चिंतक और संस्कृतिकर्मी प्रो. गणेश नारायण देवी का ‘ट्रुथ, फ्रॉम दी बिगनिंग टू महात्मा’ विषय पर व्याख्यान संपन्न हुआ। गाँधी मैटर्स की इस श्रृंखला की शुरुआत चर्चित समाज वैज्ञानिक प्रो. आशीष नंदी के व्याख्यान से हुआ था। प्रसिद्ध भारतीय चित्रकार एस.एच. रजा गाँधीवादी विचारों से प्रभावित थे। गाँधी के जीवन के 150 वें वर्ष में रजा फाउंडेशन द्वारा गाँधी मैटर्स श्रृंखला को चलाया गया है। इस श्रृंखला का मुख्य आशय तत्कालीन समय में गाँधी की प्रासंगिकता को रेखांकित करना है। कार्यक्रम का आरम्भ रजा फाउंडेशन के प्रबंध न्यासी और हिंदी के कवि श्री अशोक वाजपेयी द्वारा प्रो. गणेश नारायण देवी और उपस्थित श्रोताओं के स्वागत और अतिथि परिचय के साथ हुआ। उन्होंने गाँधी मैटर्स श्रृंखला के बारे में श्रोताओं का परिचय कराया। प्रो. गणेश नारायण देवी ने ‘ट्रुथ, फ्रॉम बिगनिंग टू महात्मा’ विषय पर बात रखते हुए कहा कि मेरे जीवन के संदेहों और संकटों में गाँधी अपने अभय, अहिंसा और सत्य के साथ खड़े होते हैं। उन्होंने कहा कि गाँधी के सत्य का विचार या प्रत्यय सचाई और अहिंसा का है।
गाँधी अपने सत्य को स्थापित करने के लिए सत्य और अहिंसा के क्रम को अपनाते हैं। सत्य को रेखांकित करते हुए प्रो. देवी ने सत्य की प्रकृति को भारतीय वैदिक एवं उपनिषदिक् परम्परा में धर्म का पर्यायवाची बताया, जिसे प्रकृति के प्रथम पुरुष या अपौरुषेय कहा गया। सत्य को उन्होंने एक शाश्वत मौखिक परम्परा माना। सत्य की अवधारणा के मूल में धार्मिक समाजवाद के समर्थक के रूप में गाँधी अपने विचारों को विस्तारित करते हैं।
गाँधी का सत्य ‘अनुभवजन्य पीड़ा के साथ अनुभवजन्य सत्य’ ही मान्य है। जिसे गाँधी वैदिक परम्परा और बौद्ध परम्परा के सहमेल से पाते हैं। गाँधी सत्य को अनुभवजन्य वास्तविकता में तलाशते है, उनके लिए सत्य छाया नहीं है। उनके लिए सत्य प्रकाश है। विभिन्न सभ्यताओं के लिए सत्य की अलग-अलग अवधारणाएं हैं। विश्वास, वस्तुनिष्ठता, वैज्ञानिकता सत्य के स्वरूप को रेखांकित करतीं हैं। औपनिषदिक् धार्मिकता के कारण वैयाकरण, मीमांसक(भतृहरि के वाक्यपदीयम्) इत्यादि पर अर्थ के अस्तित्व की वजह से सत्य की प्रकृति पर प्रभाव पड़ता है। वस्तु का भौतिक अस्तित्व पर सत्य निर्भर करता है। भाषाओँ के आरंभिक इतिहास में काल की अवधारणा सिर्फ वर्तमान के रूप में मौजूद था। भूतकाल के प्रयोग के साथ ही असत्य आया क्योंकि उस कहे गए में अनुपस्थित का भाव है और भविष्य की अवधारणा एक मिरर इमेज की अवधारणा है। प्रो. देवी ने लाईब्निज की अवधारणा से सत्य की मौजूदगी को रेखांकित किया। उन्होंने निर्गुण संतों की अर्थ के सभी प्रकारों को समाहित कर सत्य के विभिन्न आयामों को पाने की अवधारणा को गाँधी के सत्य के विचार के लिए महत्वपूर्ण माना, जो एकान्तिक और अनुभवजन्य सत्य है। गाँधी के सत्य की अवधारणा का विकास रस्किन के बाद तोल्स्तोय के सत्य का विकसित रूप है।
गाँधी सजा और गरीबी में मुक्ति को तलाशते हैं। यह मुक्ति मोक्ष का नहीं सत्य से प्राप्त होने वाला आत्मसंतोष का पर्याय है। गाँधी गरीबी को राजनैतिक और आर्थिक मानते हैं जबकि सजा या आत्मपीड़न को मानसिक, धार्मिक और भावात्मक मानते हुए सत्य की और बढ़ाया गया कदम के रूप में देखते हैं। सत्य और अहिंसा के बाद जैन दर्शन से प्रभावित होकर जब गाँधी अपने विचार-दर्शन में अपरिग्रह को लाते हैं, वहीँ से उनकी महात्मा बनने की शुरुआत होती है। वे मानते हैं कि न्याय और अन्याय के अवधारणा के बीच में ही हिंसा का कारण मौजूद है। गाँधी के विचार-दर्शन में सत्य को बल अभय से प्राप्त होता है। कस्तूरबा ने ही गाँधी को अभय सीखाया। गाँधी का सत्य तब तक सत्य नहीं है जब तक वह अभय के साथ नहीं है। गाँधी के सत्यता का सौन्दर्य नैतिकता, राजनीति और सौन्दर्य के तिर्यक आयामों में निहित है। गाँधी के सत्य का अंतिम लक्ष्य मुक्ति है, जो मोक्ष के अर्थ में नहीं जीने के अर्थ में है। प्रो. देवी ने सत्य को रेखांकित करते हुए कहा कि भारत में ब्रिटिशों ने लिखे को सत्य माना जबकि गाँधी सत्य की मौखिक परम्परा को सत्य का माध्यम बनाया। गाँधी के अनुसार सत्य वह है जिसे बोला जा सके। ‘वाचा सत्यता’। यह मौखिक के साथ-साथ अंतिम व्यक्ति के साथ खड़ा अवधारणा है। यह सत्य मौन का सत्य है जो आन्तरिकता में सवाल उठाती है। उन्होंने कहा कि गाँधी अपने समय के औसत प्रतिभा थे। उनके आसपास टैगोर, विवेकानंद, तिलक और अरविन्द सत्य की अवधारणा को रख रहे थे। अपनी बात को समाप्त करते हुए प्रो. देवी ने कहा कि गाँधी की असफलताएं बहुत सुन्दर हैं। लेकिन वे अपने विचार और कार्य में कभी भी असफल नहीं रहे। गाँधी का जीवन विचार और कार्य का एका है जो उनके सत्य का केन्द्रक है।

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