संपादकीय

न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता आवश्यक

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
केरल उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश न्यायमूर्ति श्री कीमल पाशा ने अपनी सेवा निवृत्ति के अवसर पर आयोजित सम्मान समारोह में बोलते हुए न्याय व्यवस्था की सबसे महत्त्वपूर्ण आधारशिला को झकझोरने का प्रयास किया है। न्याय व्यवस्था की आधारशिला न्यायाधीश ही होता है। न्यायाधीश बनना उस प्रक्रिया पर निर्भर करता है जिसके द्वारा उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति होती है। उच्च न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए दो प्रवेश द्वार होते हैं। प्रथम, जिला न्यायालय स्तर के न्यायाधीशों को पदोन्नति से उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है। इस श्रेणी की प्रक्रिया अधिकतर वरिष्ठता के क्रम में ही चलाई जाती है। द्वितीय श्रेणी में अधिवक्ताओं में से भी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है। इस श्रेणी की प्रक्रिया में कोई नियम, कायदा या कानून निर्धारित नहीं है। यहाँ तक कि इस नियुक्ति के लिए योग्यता के कोई मानदण्ड भी निर्धारित नहीं हैं। नियुक्ति का यह सारा खेल एक दिखावे की तरह नाम और चेहरे के आधार पर ही चलता है। प्रत्येक उच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीशों की एक समिति ऐसे अधिवक्ताओं का चयन करके केन्द्रीय कानून मंत्रालय के पास स्वीकृति और नियुक्ति के लिए भेज देती है। केन्द्रीय कानून मंत्रालय की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति का पत्र जारी किया जाता है।
न्यायमूर्ति श्री पाशा ने अपने विदाई समारोह में कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति को पारिवारिक सम्पत्ति के विभाजन की तरह नहीं समझना चाहिए। उन्होंने कहा कि अधिवक्ताओं में अत्यन्त योग्य महानुभावों के होते हुए भी कुछ ऐसे लोगों को न्यायाधीश पद के लिए चुन लिया जाता है जो इसके लिए योग्य नहीं होते। ऐसे अयोग्य न्यायाधीश केवल एक पद की प्राप्ति से ही संतुष्ट नहीं होते अपितु सेवा निवृत्ति के बाद भी उनकी निगाह किसी न किसी सरकारी पदों पर नियुक्ति पर बनी रहती है। उच्च न्यायालय में सरकारों पर सबसे अधिक संख्या में मुकदमेंबाजी पाई जाती है। ऐसे न्यायाधीश सरकारों की नजरों में अपने लिए सहानुभूति पैदा करने के उद्देश्य से सरकारी निर्णयों के विरुद्ध कोई निर्णय नहीं दे पाते। न्यायाधीशों को सेवा निवृत्ति के बाद किसी भी सरकारी नियुक्ति की आशा नहीं करनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री तीरथ सिंह ठाकुर ने भी यह मत व्यक्त किया था कि सेवा निवृत्ति के बाद कम से कम तीन वर्ष तक न्यायाधीशों को सरकारी पदों पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए।
इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी स्पष्ट कहा कि न्यायाधीश के पद पर किसी धर्म, जाति या उपजाति आदि के आधार पर नियुक्तियाँ नहीं दी जानी चाहिए।
न्यायाधीश ही न्याय व्यवस्था की आधारशिला है क्योंकि न्याय प्रक्रिया से निकलने वाले निर्णय न्यायाधीशों की बुद्धि और विवेक पर ही निर्भर करते हैं। न्यायाधीश का कार्य इस न्याय मंदिर के मंत्री के समान है। न्याय देना एक दैविक कार्य है। इसलिए जो व्यक्ति न्यायाधीश के पद पर चुना जाये उसमें ऐसी योग्यता का होना अत्यन्त आवश्यक है। जबकि वास्तविकता यह है कि अनेकों गम्भीर विवादों में निर्णय देते समय न्यायाधीशों को कई बाहरी शक्तियों के दबाव को झेलना पड़ता है। कई बार तो न्याय प्रक्रिया के अन्दर से भी ऐसे दबाव पैदा होने लगते हैं। न्यायाधीश तो आते और जाते रहेंगे। परन्तु उनके द्वारा दिये गये विवेकहीन निर्णय अधिवक्ताओं के लिए लम्बी अवधि की समस्या का कारण बन जाते हैं। इसलिए अधिवक्ता संगठनों को इस विषय पर अपनी भूमिका स्पष्ट रूप से उजागर करनी चाहिए। यदि न्यायाधीश योग्यता के स्तर पर उत्तम कोटि के नियुक्त किये जाते हैं तो इससे अधिवक्ताओं की कार्यशैली का स्तर भी सुधरेगा। अधिवक्ता तन्त्र सदैव बने रहने वाला तन्त्र है। इसलिए अधिवक्ता संगठनों को उत्तम न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए जोरदार आवाज उठानी चाहिए। न्यायमूर्ति श्री पाशा ने न्याय व्यवस्था में बढ़ते भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए भी अधिवक्ता संगठनों का आह्वान किया।
कुछ समय पूर्व बम्बई उच्च न्यायालय के बाॅर संगठनों ने भी कुछ न्यायाधीशों की भ्रष्टाचारी प्रवृत्तियों के विरुद्ध जोरदार आवाज उठाई थी। उस प्रयास से न्याय व्यवस्था में सुधार का प्रभावशाली मार्ग प्रशस्त हुआ था।
न्यायमूर्ति श्री पाशा ने उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति तथा न्यायाधीशों की कार्य प्रणाली को लेकर सटीक प्रश्न उठाये हैं। न्यायमूर्ति श्री पाशा स्वयं 1995 से जिला एवं सत्र न्यायाधीश नियुक्त हुए थे। सरकारी विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने के बाद अध्यापन कार्यों में लगे माता-पिता से ईमानदारी और न्याय की भावना को संस्कार रूप में लेकर ही वे न्यायाधीश के कत्र्तव्यों का निर्वहन करते रहे।
उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक प्रभावशाली प्रक्रिया का निर्धारण ही इन सब प्रश्नों का उत्तर बन सकता है। जिस प्रकार निचली अदालतों में शैक्षणिक योग्यता के बाद लिखित परीक्षा और साक्षात्कार आदि के साथ नियुक्ति प्रक्रिया चलती है उसी प्रकार की खुली प्रक्रिया उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के लिए भी निर्धारित होनी चाहिए। परन्तु स्वतंत्र भारत के 70 वर्षों से भी अधिक की यात्रा में हमारे देश की न्याय व्यवस्था उच्च न्यायालयों की नियुक्ति प्रक्रिया को पारदर्शी नहीं बना पाई। राजनीति में चलने वाली परिवारवादी परम्पराओं की तरह न्याय व्यवस्था में भी उच्च न्यायालयों के स्तर पर अनेकों बार ऐसी ही परिवारवादी नियुक्तियाँ देखने को मिलती हैं। परन्तु विडम्बना यह है कि इस सारे खेल को बन्द करने का दायित्व भी उन्हीं न्यायाधीशों के कंधों पर है जो स्वयं इस खेल को चलाने में लगे हुए हैं।

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