Tuesday, April 16, 2024
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संपादकीय

पुलिस अधिकारों का दुरुपयोग और झूठे मुकदमें

– विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
कुछ वर्ष पूर्व बनी एक पंजाबी फिल्म में हीरो अपने छोटे से पुत्र के साथ बड़ी मस्ती और प्रेम करता हुआ सड़क पर जा रहा था। इतने में एक पुलिस अधिकारी मोटरसाइकिल पर मोबाईल फोन से बात करता हुआ सामने से आया और हीरो के पुत्र से टकरा गया। हीरो अपने पुत्र से बहुत प्रेम करता था। पुत्र को चोट लगते देख उसने पुलिस अधिकारी को जोर से थप्पड़ मार दिया। वर्दी के रौब और पुलिसिया अधिकार के नशे ने हीरो को सलाखों के पीछे पहुँचा दिया। परिवार के लोग हीरो को मिलने आये तो हीरो उन्हें यह कहकर आश्वस्त करने की कोशिश करता रहा कि सड़कों पर सभी पुलिस वाले हजारों लोगों को थप्पड़ मारते फिरते हैं आज तक किसी पर कोई केस नहीं बना, तो फिर मेरे पर क्या केस बनेगा। परन्तु उसे क्या पता था कि पुलिसिया अधिकारों का नशा अंग्रेजी एक कहावत को कितना स्पष्ट लागू करता हुआ दिखाई देता है जिसके अनुसार सत्ता और अधिकार भ्रष्टाचार का कारण है और पूर्ण सत्ता और पूर्ण अधिकार तो पूर्ण भ्रष्टाचार का कारण है। थप्पड़ के अतिरिक्त भी मुकदमें में कुछ मसालेदार बातें लिखकर हीरो को छः महीने के लिए सजा करवा दी गई।
जेल का नाम सुनते ही आमतौर पर सबके मन में यह छवि बन जाती है कि जेल में बन्द सभी कैदी अपराधी हैं। जबकि वास्तव में जेल में बन्द अनेकों कैदी केवल आरोपी ही होते हैं। आम जनता को आरोपी और अपराधी का अन्तर भी पता नहीं होता। आरोपी व्यक्ति वह होता है जिस पर पुलिस ने मुकदमा बनाकर उसे गिरफ्तार कर लिया और अदालत ने उसे जमानत पर भी मुक्त नहीं किया। अदालत में मुकदमा भी प्रारम्भ हो गया, परन्तु वह व्यक्ति जेल में ही बन्द है। मुकदमा पूरा होने के बाद अदालत यदि उस व्यक्ति को सजा सुना देती है तो वह व्यक्ति अपराधी माना जाता है। मुकदमे की सुनवाई पूरी होने के बाद यह भी सम्भव है कि अदालत उस व्यक्ति को दोषमुक्त कर दे। परन्तु भारतीय न्याय व्यवस्था में ऐसा कोई विशेष प्रावधान नहीं है जो इस मुकदमें के दर्ज होने और व्यक्ति के जेल जाने से होने वाले उसके अनेकों प्रकार की हानियों की भरपाई कर सके।
एक बार जब व्यक्ति पर मुकदमा दर्ज होता है और पुलिस उसे गिरफ्तार करके जेल में डाल देती है तो वह व्यक्ति कितना ही चिल्लाता रहे कि वह बेकसूर है और पुलिस ने उसे गलत फंसाया है परन्तु कोई भी उसकी चीख-पुकार को सुनने के लिए तैयार नहीं होता। बस यहीं से उसकी छवि मिट्टी में मिलनी शुरू हो जाती है। परिवार और समाज के लोग भी उसे अपराधी समझने लगते हैं। यदि वह नौकरी करने वाला हो तो उसकी नौकरी चली जाती है। यदि वह व्यापार करता है तो उसकी साख खराब हो जाती है। कुल मिलाकर वह व्यक्ति विश्वास के योग्य नहीं रहता। अपराधिक छवि का प्रभाव केवल उस व्यक्ति पर ही नहीं बल्कि उसके परिजनों के जीवन पर भी दिखाई देने लगता है। बच्चों की शिक्षा और विवाह तक कठिन हो जाते हैं। एक बेकसूर व्यक्ति जब जेल में जाता है तो उसकी कठिनाईयों को कोई नहीं समझ सकता जब तक सुनने वाला व्यक्ति स्वयं उन परिस्थितियों का शिकार न हो जाये।
हमारे देश की जेलों में हजारों कैदी केवल आरोपी के रूप में जेल की सलाखों के पीछे जीवन बिताने के लिए मजबूर हैं। जब अपराधिक कानून मूलतः एक सिद्धान्त का पालन करता है कि जब तक आरोप सिद्ध न हो जाये तब तक किसी व्यक्ति को अपराधी नहीं माना जा सकता तो मुकदमा चलने के दौरान इतनी बड़ी संख्या में आरोपियों को जेल में बन्द रखने का औचित्य समझ नहीं आता। कुछ ऐसे दुर्दान्त लोग हो सकते हैं जिन पर कोई गम्भीर आरोप लगे और पीड़ित परिवार के लोगों तथा गवाहों को आगे भी खतरा बना रहे तो ऐसे लोगों को मुकदमा चलने के दौरान जेल में रखने की बात तो अपवाद स्वरूप स्वीकार की जा सकती है। परन्तु सामान्य परिस्थितियों में हर मुकदमें में आरोपियों को लम्बा समय जेल में बन्द रखना कोई विशेष महत्त्व नहीं रखता।
अपराधिक मुकदमा दर्ज होने के बाद यदि आरोपी धन-सम्पन्न होता है तो वह मुकदमेंबाजी पर अधिक से अधिक धन खर्च करके, बड़े से बड़े वकीलों की सेवाएँ लेकर जल्दी से जल्दी जमानत पर मुक्त होने में सफल हो जाता है। परन्तु गरीब व्यक्ति को तो हमेशा मन मारकर इस यातनापूर्ण अपराधिक न्याय व्यवस्था का शिकार बनने के लिए मजबूर होना ही पड़ता है। धन-सम्पन्न व्यक्ति पर झूठा तो क्या उनके वास्तविक अपराधों को लेकर भी मुकदमा बनने की संभावनाएँ कम ही होती हैं। सबसे अधिक मार तो उन गरीब या मध्यम वर्गीय लोगों पर पड़ती है जो झूठी मुकदमेंबाजी के विरुद्ध अधिक आवाज भी नहीं उठा पाते।
कुछ वर्ष पूर्व इंग्लैण्ड की आपराधिक न्याय व्यवस्था ने पुलिस की इन ज्यादतियों पर शिकंजा कसने के लिए कुछ नये कानूनी प्रावधान बनाये। यदि कोई अपराधिक मुकदमा झूठा साबित हो तो एक तरफ आरोपी को भारी मुआवजा देने की व्यवस्था लागू की गई तो दूसरी तरफ पुलिस कानून में बदलाव करके ऐसे मामलों में स्थानीय पुलिस उच्चाधिकारी को जिम्मेदार माना घोषित किया गया। इसका अर्थ यह हुआ कि एक पुलिस कमिश्नर अपने अधीन सबसे निचले स्तर पर कार्य करने वाले कांस्टेबल की ज्यादतियों के लिए भी जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। ऐसे केवल एक वाक्यरूपी प्रावधान के चलते पुलिस ज्यादतियों और झूठे मुकदमें बनाने की परम्पराओं पर पूरी लगाम लग गई। हमारे देश में झूठे मुकदमों के विरुद्ध न तो पुलिस की कोई जवाबदेही निर्धारित की जाती है और आरोपी को भारी मुआवजे की कोई व्यवस्था भी दिखाई नहीं देती। भारतीय दण्ड संहिता की धारा-211 में यह प्रावधान है कि किसी व्यक्ति पर झूठा मुकदमा चलाये जाने वालों के विरुद्ध दो वर्ष की सजा और जुर्माने तक का प्रावधान है। यदि झूठा मुकदमा कुछ ऐसे आरोपों को लेकर हो जिनमें 7 वर्ष से अधिक की सजा का खतरा हो तो ऐसे झूठे मुकदमें बनाने या बनवाने वालों को भी 7 वर्ष तक की सजा हो सकती है, परन्तु इन प्रावधानों का प्रयोग अधिक देखने में नहीं मिलता।
भारतीय विधि आयोग ने गलत मुकदमें बनाने के लिए पुलिस अधिकारों के दुरुपयोग पर विशेष सुझाव भी दिये हैं। आयोग ने स्वीकार किया है कि ऐसे मुकदमों में भारी मुआवजा देने की व्यवस्था अन्तर्राष्ट्रीय कानून की माँग भी है। मुआवजों के अतिरिक्त ऐसे पीड़ित आरोपियों के समाज में पुनस्र्थापन का विशेष दायित्व भी राज्य पर है। भारत में कानून और न्याय व्यवस्था तीव्र गति से आधुनिक होती हुई नजर नहीं आ रही।

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