संपादकीय

पूजा समाप्त, अपवित्रता चालू है, जनाब

कटखने शब्द

भटनागर साहब ने मिलते ही मुझसे कहा, ‘जनाब, लो हो गई पूजा समाप्त। नौ दिन व्रत-उपवास रख कर सब हो गए पवित्र और निच्चू।’ मैंने कहा, ‘यार, यह ’निच्चू‘ क्या होता है?‘ वह बोले, ’निच्चू मतलब फारिक हो जाना या फिर फुरसत में आ जाना या फिर अपने पुराने ढर्रे में आ जाना।‘ निच्चू का मतलब समझ मैंने अगला प्रश्न उनसे दाग दिया, ’जनाब, पूजा समाप्ती पर आपको इतना आश्चर्य क्यों है? क्या आप नास्तिक हैं?‘
वह बोले, ’यार, मेरी समझ में यह नहीं आता कि भगवान ने गीता के माध्यम से स्वयं यह उपदेश दिया है कि समस्त देवी-देवताओं से ऊपर परमपिता परमात्मा भगवान स्वयं ही हैं। इसलिए समस्त आत्माओं को केवल उन्हें ही याद करना चाहिए। भगवान ने स्वयं कहा है कि, ’मामेकम‘ मुझे याद करो, बस। फिर आखिर लोगबाग इतनी भक्ति में क्यों लगे रहते हैं। व्यर्थ में ही अपना समय नष्ट करते हैं।
भगवान एक है। वही समस्त आत्माओं के करनकरावन हार हैं। वही सबके मालिक हैं। इसीलिए कहा भी जाता है कि सबका मालिक एक। हमसब आत्माओं का बाप एक है। जो कि निराकार है। सर्वशक्तिमान है। प्रेम का सागर है। ज्ञान का सागर है। वही इस संपूर्ण सृष्टि और विश्वरंग मंच का क्रिऐटर, डाॅयरेक्टर और एक्टर है। वह बाप हमारा है तो हमसब भी मास्टर सर्वशक्तिमान हैं।
जरुरत है योग के माध्यम से अपने उस पारलौकिक भगवान यानी बाप से संबंध स्थापित करने की। उसके लिए भक्ति नहीं, योग लगाना सीखना चाहिए। जब संबंध स्थापित जो गया और आपकी आत्मा की बैटरी उस पाॅवर हाऊस द्वारा चार्ज हो गई तो फिर और क्या चाहिए। आत्माओं की शक्ति को जाग्रत करना ही भगवान से योग लगाना होता है। उसके लिए किसी प्रकार के उपकरणों की जरूरत नहीं पड़ती न ही किसी विशेष स्थान आदि की।
आपने एक बार सर्वशक्तिमान भगवान से योग लगाना सीख लिया फिर वह कहीं भी, किसी भी स्थान पर लग सकता है। इस कलियुग में मनुष्य को भक्ति से ज्यादा अब योग की आवश्यकता है। योगबल से ही उसका स्थाई उद्धार हो सकता है अन्य किसी प्रकार के ढकोसलों से नहीं। जो भगवान को ही नहीं जानता वह किसी भी देवी-देवता की कितनी भी भक्ति कर ले कोई फायदा नहीं। हां, क्षणिक अस्थाई लाभ अवश्य प्राप्त हो सकते हैं, बस। गीता में स्पष्ट लिखा है कि देवी-देवता तो भगवान के प्रतिनिधि हैं, बस। परमशक्ति तो केवल भगवान है।’
भटनागर साहब की बात सुनकर मैंने उनसे अपना अगला प्रश्न किया, ‘चलिए, बताइए कि भौतिक प्रकृति क्या है?’ वह बोले, ‘गीतानुसार इसकी व्याख्या अपरा प्रकृति के रूप में हुई है। जीव को परा प्रकृति कहा गया है। प्रकृति चाहे परा हो या अपरा सदैव नियंत्रण में रहती है। प्रकृति स्त्री-स्वरूपा है और वह भगवान द्वारा उसी प्रकार नियंत्रित होती है, जिस प्रकार पत्नी अपने पति द्वारा। प्रकृति सदैव अधीन रहती है, उस पर भगवान का प्रभुत्व रहता है, क्योंकि भगवान ही अध्यक्ष हैं। जीव तथा भौतिक प्रकृति दोनों ही परमेंश्वर द्वारा अधिशासित एवं नियंत्रित होते हैं।’
मैंने हंसते हुए कहा, ‘जनाब, इस कलियुग में तो स्त्री अपने पति द्वारा नियंत्रित ही नहीं होना चाहती है बल्कि उसे नियंत्रित करना चाहती है। इसका क्या करें?’ वह बोले, ‘जब कलियुग ही चल रहा है तो फिर यहां अब सबकुछ उलटा ही होना निश्चित है।
आप कुछ नहीं कर सकते। प्रकृति तीन गुणों से निर्मित है-सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण। इन गुणों के ऊपर नित्य काल है। इन गुणों तथा नित्य काल के संयोग से अनेक कार्यकलाप होते हैं, जो ‘कर्म’ कहलाते हैं। ये कार्यकलाप अनादि काल से चले आ रहे हैं और हम सभी अपने कार्यकलाप (कर्मों) के फलस्वरूप सुख या दुख भोग रहे हैं। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम अपने कर्म के फल का सुख भोगते हैं या उसका कष्ट उठाते हैं। यह कर्म कहलाता है। केवल धार्मिक कर्मकांड़ों, पाखंडों व पूजा-पाठ से कुछ नहीं होता। केवल भगवान के साथ ‘योग’ लगाने से ही स्थाई संपूर्णता आती है। वैसे भी नौ दिन देवी की पूजा कर ली और दसवें दिन से फिर हो गए अपवित्र और मांस-मदिरा, प्याज-लहसुन व तमोप्रधान खानपानयुक्त। तो ऐसी पूजा-अर्चना से केवल निराधार ही शांति मिल सकती है स्थाई कदापि नहीं। बनना है तो जीवनभर सतोगुणी बनो और केवल भगवान को याद करो, बस।
गीतानुसार भी कथन है कि समस्त आत्माओं का स्थाई कल्याण केवल भगवान की याद से होता है, अन्य किसी से नहीं। पवित्रता ही सुखशांति की जननी है, अपवित्रता नहीं। इसलिए केवल नौ दिन ही क्यों जीवनभर पावन पवित्र सतोगुणी बनिए। तब निश्चित ही आपका सौ प्रतिशत कल्याण होगा। हम सब अनादि काल से अपने शुभ-अशुभ कर्मफलों को भोग रहे हैं, किंतु साथ ही हम अपने कर्मों के फल को स्थाईरूप से बदल भी सकते हैं और यह परिवर्तन केवल हमारे ज्ञान की पूर्णता और भगवान एक है व देवी-देवता अनेक हैं की निश्चय बुद्धिमत्ता पर निर्भर करता है।’

-डाॅ. आलोक सक्सेना

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