संपादकीय

राजस्थान में उठने लगी जाट मुख्यमंत्री की मांग

-रमेश सर्राफ धमोरा
(स्वतंत्र पत्रकार)
राजस्थान में आगामी विधानसभा चुनाव के लिये 7 दिसम्बर को वोट डाले जायेगें। सभी पार्टियां जीतने को पूरा जोर लगा रही है। मुख्य मुकाबला सत्तारूढ़ भाजपा व कांग्रेस में होना है। विधानसभा चुनाव में सभी जातियों के नेता अपने लोगों को अधिकाधिक टिकट दिलाने का प्रयास कर रहे है ताकि सरकार में प्रभाव बना रह सके। ऐसे में प्रदेश में जाट मुख्यमंत्री की मांग जोरो से उठने लगी है। राजस्थान में जनसंख्या के हिसाब से जाट मतदाताओं की संख्या सबसे अधिक करीबन पन्द्रह प्रतिशत है। राजस्थान में वर्तमान में 31 जाट विधायक हैं। ऐसे में यह चर्चा जारो से होने लगी है कि सबसे ज्यादा वोट व विधायक होने के उपरान्त भी प्रदेश में आज तक जाट जाति का मुख्यमंत्री क्यों नहीं बन पाया है।
राजस्थान में दो बार कांग्रेस विधायक दल के नेता के चुनाव में 1972 में रामनिवास मिर्धा व 2008 में शीशराम ओला ने सीधा मुकाबला किया मगर दोनो ही बार उनको हरा दिया गया। 1972 में ब्राम्हण समाज के हरिदेव जोशी व 2008 में माली (सैनी) समाज के अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बन गये। दोनो ही बार जाट मुख्यमंत्री बनने से रह गये। राजस्थान में 7 अप्रैल 1949 से लेकर अब तक 24 मुख्यमंत्री रह चुके हैं। जिनमे ब्राम्हण आठ बार, बनिया पांच बार, मुस्लिम एक बार, राजपूत पांच बार, खटीक एक बार, कायस्थ दो बार, माली दो बार मुख्यमंत्री रह चुका है। मगर इस सूची में जाट समाज के एक भी व्यक्ति का नाम नहीं हैं।
आबादी के हिसाब से जाट समाज राजस्थान में सबसे अधिक है, इसके उपरान्त भी जाट समाज का अब तक राजस्थान मुख्यमंत्री नहीं बन पाना जाटो की उपेक्षा को ही दर्शाता है। राजस्थान में जाट वर्ग के लोग कृषि से जुड़े हुये किसान है। आजादी के बाद कांग्रेस ने राजस्थान में जागिरदारी प्रथा को समाप्त किया था। जागिरदारी प्रथा में जाट काफी दबे हुये थे ऐसे में जागिरदारी प्रथा समाप्त होते ही जाट पूर्णतया कांग्रेस से जुड़ गये। उसके बाद हर बार जाट समाज कांग्रेस के पक्ष में एकजुटता से मतदान करता रहा है।
जाटो के वोटो से कांग्रेस ने राजस्थान में करीबन 48 वर्षों तक राज किया। राजस्थान में जाटो में कोई प्रभावशाली नेता नहीं थे जो मुख्यमंत्री नहीं बन सके ऐसी बात नहीं थी। राजस्थान में प्रभावशाली जाट नेताओं की कमी नहीं थी। आजादी के बाद से ही सरदार हरलाल सिंह, कुम्भाराम आर्य, नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, कमला, दौलतरात सारण, परसराम मदेरणा, सुमित्रा सिंह, रामनारायण चौधरी, शीशराम ओला, नारायण सिंह, बलराम जाखड़, ज्ञानसिंह चौधरी, कुंवर नटवर सिंह, रामदेव सिंह महरिया, डाॅ. हरिसिंह, मनफूल सिंह भादू अपने जमाने के प्रभावशाली जाट नेता हुये जिनके प्रभाव के सामने मुख्यमंत्री भी घबरात थे। इनमें से कई नेताओं ने मुख्यमंत्री बनने का प्रयास भी किया मगर कांग्रेस में जाट विरोधी लाबी ने जाट मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया।
वर्तमान में राजेन्द्र चौधरी, हेमाराम चौधरी, विश्वेन्द्र सिंह, महादेव सिंह खण्डेला, रामेश्वर डूडी जैसे जाट नेता है जो आज भी प्रभाव रखते हैं मगर उन्हे नेतृत्व करने का मौका नहीं दिया जा रहा है। रामेश्वर डूडी आज विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं। वह पूर्व में बीकानेर के सांसद व जिला प्रमुख भी रह चुके हैं। 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद गत पांच वर्षो में उन्होने राजस्थान के सभी क्षेत्रों में दौरे कर कांग्रेस को मजबूत करने का काम किया है। उन्होने विधानसभा में भी अपनी भूमिका प्रभावी ढग से निभायी है। इसके बावजूद भी राजस्थान में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार माली समाज के अशोक गहलोत व गुर्जर समाज के सचिन पायलेट को ही माना जा रहा है। मुख्यमंत्री के दावेदारो में किसी जाट नेता का नाम नहीं होना जाट समाज की उपेक्षा को ही दर्शाता है। भाजपा में तो कभी कोई कद्दावर जाट नेता रहा ही नहीं। भाजपा के 18 वर्षो के शासन में पांच बार मुख्यमंत्री बन चुके हैं मगर वहां भी कोई बड़ा जाट नेता नहीं उभर पाया है।
राजस्थान में 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस की हार को सबसे बड़ा कारण राजस्थान की प्रभावशाली जाट जाति का कांग्रेस से दूर होना माना जाता है। राजस्थान के 20 जिलों की करीबन 70-80 ऐसी सीट है जिन पर हार जीत का फैसला जाट मतदाता ही करते है। इन सीटों पर जाट मतदाताओं का खासा प्रभाव माना जाता रहा है। 2013 से पूर्व जाट समाज के प्रदेश में 35 से 40 विधायक जीत कर आते रहते हैं उनमें से अधिकांश कांग्रेस पार्टी से जीतते रहे थे, क्योंकि जाट मतदाताओं को राजस्थान में कांग्रेस का वोट बैंक माना जाता रहा था मगर 2013 में स्थिति पूरी तरह से बदल गयी थी। उस चुनाव में जाट मतदाताओं ने कांग्रेस को उसकी औकात दिखा दी थी। जाटो के कांग्रेस से दूर जाने से प्रदेश में कांग्रेस को सबसे बुरी हार देखनी पड़ी थी। कांग्रेस मात्र 21 सीटो पर ही सिमट गयी थी। आजादी के बाद से ही जाट कांग्रेस को वोट देते आये थे। इस कारण कांग्रेस ने जाटो को अपने वोट बैंक के रूप में ही इस्तेमाल किया। जाटों के सर्वाधिक विधायक जीतने के बाद भी कांग्रेस ने कभी जाट समाज के किसी नेता को प्रदेश का मुख्यमंत्री नहीं बनाया।
राजस्थान कांग्रेस में 1988 से अशोक गहलोत प्रभावी रहें हैं। प्रदेश की पूरी कांग्रेस पार्टी उनके इर्द-गिर्द ही परिक्रमा करती रही है। इस दौरान गहलोत कई बार प्रदेशाध्यक्ष व दस वर्षों तक राज्य के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। गहलोत ने गत तीस वर्षों में एक-एक कर प्रभावशाली जाट नेताओं को किनारे किया। गहलोत ने रामनिवास मिर्धा, डा. बलराम जाखड़, कुंवर नटवरसिंह, शीशराम ओला, डा. हरिसिंह, नारायण सिंह, राजेन्द्र चौधरी, कर्नल सोनाराम जैसे प्रभावी जाट नेताओं को कमजोर करने का हर संभव प्रयास ही नहीं किया बल्कि जाटों के नाम पर ऐसे लोगों को आगे बढ़ाया जिनका जाट मतदाताओं पर ज्यादा असर नहीं था। ऐसा करने के पीछे गहलोत का एकमात्र मकसद यही रहा था कि राजस्थान में जाट मुख्यमंत्री का मुद्दा दबा रहे। गहलोत ने अपनी मंडली में डा.चन्द्रभान, लालचन्द कटारिया, हरीश चौधरी, ज्योति मिर्धा, बद्रीराम जाखड़, महादेवसिंह खण्डेला, नरेन्द्र बुडानिया, राजाराम मील जैसे जाट नेताओं को आगे बढ़ाया जिनका अपना कोई जनाधार नहीं वे सिर्फ गहलोत के नाम पर ही राजनीति करते रहें हैं।
राजस्थान कांग्रेस के वर्तमान में सिर्फ 6 जाट विधायक हैं जो मात्र चार जिलों से ही है। राजस्थान के 29 जिलो में कांग्रेस का कोई जाट विधायक नहीं हैं। कांग्रेस से जीते 6 विधायकों में सीकर जिले से नारायण सिंह, गोविन्द डोटासरा, झुंझुनू से बिजेन्द्र ओला, श्रवण कुमार, बीकानेर से रामेश्वर डूडी व भरतपुर से विश्वेन्द्र सिंह शामिल हैं बाकी सभी जाट नेता चुनाव हार गये। सबसे बुरी हार का सामना तो प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डा.चन्द्रभान को करना पड़ा था उनकी ना केवल जमानत ही जब्त हुयी बल्कि वो करीबन पन्द्रह हजार मतो पर ही सिमट गये थे।
प्रभावशाली जाट नेता शीशराम ओला, परसराम मदेरणा का निधन हो चुका है। आगामी विधानसभा चुनाव में प्रदेश में कांग्रेस को यदि वर्तमान स्थिति से बचाना है तो पार्टी को अपने नाराज जाट मतदाताओं को अपने पाले में लाना होगा। इसके लिये कमजोर व चापलूस छवि वाले जाट नेताओं के स्थान पर उन प्रभावशाली जाट नेताओं को आगे लाना होगा जिनके कहने पर जाट मतदाता वोट डाल सकते हैं। प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष चौधरी नारायण सिंह, नेता प्रतिपक्ष रामेश्वर डूडी, हरेन्द्र मिर्धा, राजेन्द्र चौधरी, हेमाराम चौधरी, विश्वेन्द्र सिंह, सुचित्रा आर्य जैसे नेताओं को कांग्रेस में आगे लाना चाहिये।
निर्दलिय जाट विधायक हनुमान बेनीवाल प्रदेश में भाजपा, कांग्रेस के खिलाफ तीसरा मोर्चा बनाने का प्रयास कर रहा है। हनुमान बेनीवाल को जाट समाज का भरपूर साथ मिल रहा है। उनकी रैलियों में लाखों की भीड़ उमड़ रही है जो यह दर्शाती है कि इस बार जाटो ने हनुमान बेनीवाल का साथ देने की ठान ली है। हनुमान बेनीवाल भी जाट मुख्यमंत्री बनने की बात का खुलकर समर्थन कर चुके हैं। यदि अगले विधानसभा चुनाव में जाट हनुमान बेनीवाल के समर्थन में आ जाते हैं तो फिर उनको कोई ताकत नहीं रोक पायेगी। हनुमान बेनीवाल कांग्रेस, भाजपा को छोड़ कर अन्य दलो को एक मंच पर लाने में लगे हैं। यदि प्रदेश में तीसरा मोर्चा बन जाता है तो कांग्रेस, भाजपा के लिये सत्ता पाना आसान नहीं होगा। किसान नेता चौधरी रंगलाल लमोरिया का कहना है कि अब समय आ गया है कि कांग्रेस को जाट समाज के नेता को मुख्यमंत्री बनाना चाहिये। राहुल गांधी यदि ऐसा करते है तो पूरे उत्तर भारत के जाट कांग्रेस के पक्ष में एकजुटता से मतदान करेंगें। वरना अबकी बार जाट अपनी लड़ाई खुद लड़ेगे जिसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ेगा।

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