संपादकीय

विश्वास के मंदिर से हारा न्याय का मंदिर

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
सबरीमाला केरल के पैरियार टाइगर रिजर्व नामक वन में पहाड़ियों पर स्थित है। यह मंदिर वर्ष में केवल 41 दिन के लिए पूजा अर्चना हेतु खुलता है। सबरीमाला मंदिर में जाने वाले तीर्थयात्री काली धोती पहनकर जाते हैं। तीर्थयात्रा की अवधि में वे शेव नहीं करते, तिलक का चन्दन अपने सिर पर लगाते हैं, तुलसी या रुद्राक्ष की माला धारण करते हैं, केवल शाकाहारी भोजन करते हैं। इरूमेल्ली से इस मंदिर तक पहुँचने का 61 किलोमीटर मार्ग और 41 दिनों की तपस्या वाला जीवन अनुयायियों में एक प्रकार से महान व्रत माना जाता है। यह मंदिर सैकड़ों वर्ष पूर्व के अय्यपा देवता के प्रति श्रद्धा से जुड़ा हुआ है। अय्यपा एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। केरल के एक स्थानीय राजकुमार ने अय्यपन की पूजा-अर्चना की और उसे महान सिद्धियाँ प्राप्त हुई। उस राजकुमार द्वार की गई ध्यान-साधना वाले स्थल को मणिमंडपम कहा जाता है। अय्यपन के नैष्ठिक ब्रह्मचारी जीवन के कारण इस एक विशेष मंदिर में ही 10 से 50 वर्ष तक की महिलाओं का प्रवेश वर्जित किया गया था।
जो लोग इस एक मंदिर में महिलाओं का प्रवेश प्रतिबन्धित करने को स्त्री-पुरुष भेदभाव कहते हैं, वे यह ध्यान नहीं रखते कि इस मंदिर में 10 वर्ष से छोटी बच्चियाँ और 50 वर्ष से बड़ी महिलाएँ प्रवेश करती हैं। 10 से 50 वर्ष की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने का मुख्य कारण मासिक धर्म की अवधि नहीं है, क्योंकि यदि ऐसा होता तो केरल में अय्यपन के ही कई मंदिर और भी हैं परन्तु अन्य किसी मंदिर में किसी आयु की महिला के लिए भी प्रवेश निषेध नहीं है। सभी मंदिरों में हर आयु की महिलाएँ प्रतिदिन पूजा-अर्चना करती हुई देखी जा सकती हैं। केवल इस एक सबरीमाला पहाड़ी वाले मंदिर में 10 से 50 वर्ष की महिलाओं का प्रवेश इसलिए निषेध है क्योंकि अय्यपन नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे।
न्यायाधीश अपने जीवन का अधिकांश समय केवल कानूनी प्रावधानों की व्याख्या में ही बिताते हैं। इसलिए वे अपने सामने प्रस्तुत प्रत्येक समस्या को केवल कानूनी प्रावधानों की दृष्टि से ही सुनते हैं। निःसंदेह संविधान में किसी प्रकार के भेदभाव की मनाही है। यह भेदभाव छुआछूत पर आधारित हो या रंग, लिंग, जाति, धर्म आदि पर आधारित हो, संविधान किसी भी भेदभाव को मान्यता नहीं देता। सबरीवाला मंदिर में यह नहीं कहा जा सकता कि यह छुआछूत पर आधारित है या स्त्री-पुरुष भेदभाव पर। वास्तव में यह नियम केवल अय्यपन देवता के नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के दृष्टिगत ही बनाया गया था। सैकड़ों वर्षों से अय्यपन के अनुयायी इस नियम का अनुपालन केवल इसलिए कर रहे हैं क्योंकि अय्यपन स्वयं भी इस नियम का पालन करते थे।
भारत में हिन्दू धर्म वास्तव में उस वैदिक धर्म का ही बिगड़ा हुआ नाम है जिसमें ईश्वर पूजा के लिए किसी देवी-देवता या गुरु आदि की विशेष आवश्यकता नहीं होती क्योंकि ईश्वर भक्ति का मूल स्वरूप केवल अपने मस्तिष्क को ईश्वर की सर्वोच्च शक्ति पर एकाग्र करने से सम्बन्धित है। जो लोग इस ईश्वर भक्ति के मार्ग पर ऊँचाईयाँ और सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं उन्हें सामान्य श्रद्धालुजन देवी-देवता या ऋषि-मुनि आदि कहकर सम्बोधित करने लगते हैं। स्वाभाविक है कि ऐसे प्रत्येक महापुरुष के जीवन का अनुसरण करने वाले उनके अनुयायी भी उन्हीं के जीवन के अनुरूप नियम भी धारण करने लगें। मनोविज्ञान के इन्हीं सिद्धान्तों के अनुसार भारत में अनेकों देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों के मंदिर स्थापित होते चले गये और ऐसे प्रत्येक धार्मिक स्थल पर उन्हीं से सम्बन्धित नियम भी लागू होते रहे। जिन लोगों को ईश्वर या महापुरुषों के जीवन पर विश्वास ही नहीं वे लोग उन सभी प्राचीन मान्यताओं को चुनौती देते हुए ही विलाप करते हुए दिखाई देते हैं। ऐसे अविश्वासी लोग जो राम और कृष्ण के अस्तित्व को भी नहीं मानते, वे उनके विश्वासों और मान्यताओं को क्यों मानेंगे? ऐसे सभी नियम और परम्पराएँ कानून और संविधान के प्रावधानों के अनुकूल ही हों यह आवश्यक नहीं। कानूनी या संवैधानिक समस्या तो तब खड़ी होनी चाहिए जब ऐसी मान्यताओं या परम्पराओं से सामान्यजन के जीवन के अधिकार छिनते हों।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्याय व्यवस्था की परम्पराओं के अनुसार केवल कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों का ही उल्लेख करते रह गये, 411 पृष्ठ के निर्णय में उन्होंने कहीं भी इस बात का गम्भीरता के साथ उल्लेख नहीं किया कि अय्यपन देवता के जीवन से जुड़ी मान्यताओं को बनाये रखना उनके अनुयायियों के लिए भी एक महान धार्मिक दायित्व ही है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने निःसंदेह अपनी संवैधानिक सीमाओं में काम किया है, परन्तु किसी एक को स्वतंत्रता देने का अर्थ दूसरे की स्वतंत्रता या मान्यताओं को छीनना नहीं हो सकता जब तक ऐसा करना उसके सामान्य जीवन में बाधक न बन रहा हो।
बन्द कमरों में संविधान और कानून में बन्द मानसिकता के आधार पर समाज की हर समस्या का समाधान नहीं ढूंढ़ा जा सकता। मेरे विचार में सबरीमाला मंदिर के प्रबन्धन की तरफ से भी शायद जोरदार विश्वास के आधार पर तथ्य और तर्क सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत नहीं किये गये होंगे। सर्वोच्च न्यायालय को स्पष्ट शब्दों में यह भी नहीं बताया गया होगा कि अय्यपन अनुयायियों के लिए उनके जीवन से जुड़ी मान्यताएँ संविधान से भी ऊपर हैं। सर्वोच्च न्यायालय को यह भी नहीं बताया गया होगा कि अय्यपन के लाखों अनुयायी मरने-कटने के लिए तैयार हो जायेंगे परन्तु अय्यपन के जीवन की मान्यताओं के साथ कोई समझौता नहीं होने देंगे, कम से कम सबरीमाला मंदिर के साथ तो किसी कीमत पर भी नहीं क्योंकि सबरीमाला मंदिर अय्यपन के जीवन से जुड़ा एक मात्र स्थान है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को यह भी नहीं बताया गया होगा कि यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त भी है कि जब एक उच्च योगी महान व्रतों के साथ किसी स्थान पर साधनामय जीवन बिताता है तो वह स्थान सारे भविष्य में उस साधना की तरंगों से तरंगित होता रहता है। सर्वोच्च न्यायालय को यह भी नहीं बताया गया होगा कि बन्द कमरों में संविधान के दायरे में बन्द मानसिकता के साथ बेशक देश के सारे विवाद सुलझाये जा सकते हों परन्तु महापुरुषों से जुड़ी मान्यताओं में बदलाव नहीं किया जा सकता, विशेष रूप से जब वह बदलाव किसी के जीवन के लिए कष्टकारी न हो। मस्जिदों में जाकर मुस्लिम महिलाएँ नमाज नहीं कर सकतीं, परन्तु दुनिया का कोई न्यायालय आज तक इस पर कोई संज्ञान नहीं ले सका। न्यायालयों को किसी मत-पंथ या सम्प्रदाय की उन मान्यताओं के साथ तो कभी छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए जब तक वे मान्यताएँ दूसरों के जीवन के लिए कष्टकारी हों या वास्तव में घृणा पर आधारित हो। आज के युग में यदि कोई धार्मिक स्थल की प्रबन्ध समिति किसी विशेष व्यक्ति या वर्ग को घृणा के कारण प्रवेश से प्रतिबन्धित करे तो ऐसी घटनाएँ अवश्य ही हस्तक्षेप के योग्य होंगी। सबरीमाला मंदिर के नियम किसी दृष्टि से वर्गभेद या घृणा के आधार पर दिखाई नहीं देते। आने वाले समय में न्यायाधीशों को भी यह स्पष्ट हो जायेगा कि केवल निर्णय देने से कोई आदेश कानून नहीं बन सकता।

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