संपादकीय

व्यापार के दायरे से बाहर होगा तम्बाकू

– विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 में जीवन जीने के अधिकार को नागरिकों का मूल अधिकार घोषित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय के अनेकों निर्णयों ने स्वस्थ जीवन को भी इसी मूल अधिकार का अंग माना है। दुनिया भर के शरीर वैज्ञानिक पूरी तरह स्वीकार करते हैं कि तम्बाकू का सेवन करने वाले लोगों को अनेकों प्रकार के रोगों और यहाँ तक कि टी.बी. और दमा जैसी बीमारियों के कारण मृत्यु का शिकार होना पड़ता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 9 लाख व्यक्ति तम्बाकू के दुष्प्रभावों के कारण मृत्यु के शिकार होते हैं। वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध किया है कि तम्बाकू के माध्यम से निकोटीन नामक रसायन शरीर में प्रवेश करता है जो वास्तव में हिरोईन और कोकीन से भी अधिक नशे की आदत डालने वाला है। इन परिस्थितियों में भी यदि देश के अन्दर तम्बाकू का व्यापार बेलगाम चल रहा है तो क्या ये जीवन जीने के मूल अधिकार का स्पष्ट उल्लंघन नहीं है? क्या तम्बाकू का उत्पादन और क्रय-विक्रय अपने आपमें ही असंवैधानिक नहीं बन जाता क्योंकि इस उत्पाद का एक-एक कण उपभोक्ता के स्वस्थ जीवन की सुरक्षा को खतरा पैदा करता है। निःसंदेह तम्बाकू उद्योग में प्रतिवर्ष अरबों रुपये का लेन-देन होता है और लाखों व्यक्तियों के लिए यह रोजगार का माध्यम भी बना हुआ है, परन्तु क्या यह दो तथ्य उन लाखों-करोड़ों के जीवन और स्वास्थ्य की लागत पर स्वीकार किये जा सकते हैं जो प्रतिवर्ष तम्बाकू के कारण नशेड़ी, रोगी बनते जा रहे हैं और उनमें से अनेकों मृत्यु का शिकार भी हो जाते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की बैठकों में भी ऐसे अनेकों प्रस्ताव पारित हुए हैं जिनमें बच्चों और युवाओं को तम्बाकू जैसे नशे से सुरक्षित रखने की अपीलें विश्व के सभी देशों से की गई हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-47 में भी सरकारों का यह दायित्व बताया गया है कि नागरिकों के पोषण स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने, विशेष रूप से नशे वाले पदार्थों के उपभोग को प्रतिबन्धित करने का प्रयास किया जाये।
पिछले दो-तीन दशकों में कई बार राज्य सरकारों ने गुटखा, पान-मसाला जैसे तम्बाकू उत्पादों पर प्रतिबन्ध लगाये, परन्तु अक्सर तम्बाकू कम्पनियाँ व्यापार करने की स्वतंत्रता के नाम पर सरकारों के इन प्रयासों को विफल करने में सफल हो जाती हैं। अन्ततः सर्वोच्च न्यायालय ने अंकुर गुटखा बनाम इंडियन अस्थमा केयर सोसाइटी नामक मुकदमें में गुटखा और पान-मसाला उत्पादों पर प्रतिबन्ध को संवैधानिक ठहराया है। इतना ही नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध को लेकर सभी राज्य सरकारों को नोटिस जारी करके अपने जवाब देने के लिए कहा गया। यह नोटिस उन राज्यों को भी जारी किये गये जिन्होंने अब तक यह प्रतिबन्ध घोषित नहीं किये थे। असम सरकार ने तो सबसे आगे बढ़ते हुए किसी भी प्रकार के तम्बाकू के व्यापार को ही अवैध घोषित कर दिया। परन्तु गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने इस प्रतिबन्ध पर रोक लगा दी। निःसंदेह यह मामला भी सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आयेगा जहाँ पहले ही तम्बाकू पर पूर्ण प्रतिबन्ध को लेकर कई याचिकाएँ विचाराधीन हैं।
प्रतिबन्ध की बात तो दूर, तम्बाकू कम्पनियाँ तो उस नियम का भी जोरदार विरोध करती रही हैं जिसमें तम्बाकू उत्पादों की पैकिंग के 85 प्रतिशत हिस्से में तम्बाकू से होने वाले दुष्प्रभावों और चेतावनियों को प्रकाशित करना अनिवार्य किया गया था।
भारत सरकार ने पहली बार सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष यह आवेदन किया है कि तम्बाकू को व्यापार के दायरे से बाहर रखा जाये। इसका सीधा अर्थ है कि तम्बाकू का उत्पादन और क्रय-विक्रय यदि व्यापार ही न माना जाये तो स्वतः ही तम्बाकू का सारा किला अवैध घोषित हो जायेगा और सभी सरकारों के लिए इस पर प्रतिबन्ध को लागू करना भी आवश्यक हो जायेगा। वास्तव में तम्बाकू का उत्पादन और क्रय-विक्रय एक गम्भीर अपराध बन जायेगा।
सर्वोच्च न्यायालय के लिए किसी भी राजनीतिक या व्यापारिक उद्देश्य का कोई महत्त्व नहीं होना चाहिए, न्यायालय ही वास्तव में आधुनिक लोकतंत्र के लिए भगवान का रूप है। लोकतंत्र के इस भगवान का यह दायित्व है कि नागरिकों के स्वास्थ्य या अन्य लोक हितकारी उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए किसी भी व्यापारिक गतिविधि को पूरी तरह से समाप्त करने की घोषणा करे। वैसे भी जिस अनुच्छेद-19(1)(छ) में व्यापार की स्वतंत्रता को मूल अधिकार बताया गया है और इस अनुच्छेद का हवाला देकर सरकारी प्रयासों को विफल किया जाता है, इसी अनुच्छेद के उपखण्ड 6 में सरकारों को यह अधिकार भी है कि यदि कोई व्यापार जनता के हितों के विपरीत हो तो उस पर प्रतिबन्ध भी लगाया जा सकता है। आशा है निकट भविष्य में सर्वोच्च न्यायालय अवश्य ही तम्बाकू उद्योग की समाप्ति का बिगुल बजायेगा। यह सम्भावना इसलिए प्रबल दिखाई दे रही है क्योंकि पहली बार केन्द्र सरकार किसी कानून को बनाने से पहले सर्वोच्च न्यायालय से उसके अनुकूल घोषणा करने का आवेदन लेकर खड़ी हुई है।
न्यायालयों के आदेश और सरकारी कानूनों के बावजूद इस बात की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि यह सब कुछ होने बावजूद भी लुक-छिपकर तम्बाकू का क्रय-विक्रय और सेवन किसी न किसी रूप में चलता ही रहेगा। इसके लिए धार्मिक, सामाजिक और शैक्षणिक संस्थाओं को जन-जागृति अभियान चलाने चाहिए। मंदिरों, गुरुद्वारों, मस्जिदों और गिरजाघरों के साथ-साथ समाज के सभी क्लब और सोसाइटियों के द्वारा यथा सम्भव तम्बाकू जैसे जानलेवा उत्पादों के विरुद्ध प्रचार अभियान शुरू होने चाहिए। स्कूलों और काॅलेजों की तो यह विशेष जिम्मेदारी बनती है कि वे बच्चों को बचपन से ही तम्बाकू के दुष्प्रभावों से अवगत करायें।

 

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