संपादकीय

समलैंगिकता – बर्बादी की ओर एक कदम

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

समलैंगिकता पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने केवल एक ही सिद्धान्त को ध्यान में रखा कि संवैधानिक नैतिकता सामाजिक नैतिकता से अधिक महत्त्वपूर्ण है। यह सिद्धान्त कानून की पुस्तकों और अदालतों की चर्चाओं में तो बहुत शोभा देता है, परन्तु अदालत के बाहर समूचे समाज में जब हम व्यवहारिक जीवन पर विचार करते हैं तो वहाँ अधिकारों से अधिक कत्र्तव्यों पर ध्यान दिया जाता है। समाज में जो व्यक्ति कत्र्तव्यों पर ध्यान नहीं देता उसके कृत्यों को सामान्यतः अपराध की तरह समझा जाता है। भारतीय दण्ड संहिता में व्यक्त सभी अपराध अपने कत्र्तव्यों के प्रति सतर्क न रहने वाले कृत्यों के कारण ही अपराध बनते हैं। इसी दण्ड संहिता की धारा-377 में स्त्री-पुरुष या जीव-जन्तु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध कामुकता के कार्य को अपराध घोषित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अपने निर्णय के द्वारा अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया है। परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ में से किसी एक ने भी गहराई से समलैंगिकता के दुष्परिणामों पर विचार करने का कष्ट ही नहीं किया। न्यायधीशों ने यह सिद्ध कर दिया है कि वे कानून की अन्धी देवी की तरह केवल संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों की व्याख्या करने के लिए ही नियुक्त हैं। किस कानून से समाज को किस प्रकार का मार्ग दर्शन मिलेगा, ऐसा कोई सामाजिक दायित्व उनकी नौकरी का दायित्व नहीं है।
भिन्न-भिन्न देशों में समलैंगिकता और उसके परिणामों को लेकर अनेकों शोध किये जा चुके हैं। सिंगापुर स्वास्थ्य मंत्रालय की एक शोध रिपोर्ट के आधार पर यह सिद्ध किया गया है कि समलैंगिक लोगों में एच.आई.वी. और एड्स जैसे रोगों की सम्भावना सामान्य व्यक्तियों से कहीं अधिक होती है। अमेरिका की 2 प्रतिशत जनसंख्या समलैंगिक है, जबकि अमेरिका के एच.आई.वी. रोगियों में से 61 प्रतिशत समलैंगिक हैं। डेनमार्क और नार्वे जैसे देशों में समलैंगिक हरकतें अधिक पाई जाती हैं। इन देशों के एक शोध का कहना है कि समलैंगिक लोगों की आयु सामान्य व्यक्ति से लगभग 24 वर्ष कम पाई जाती है जबकि सिगरेट और शराब जैसे नशों के कारण लगभग 7 वर्ष की आयु कम होती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन एक तरफ इन नशों के विरुद्ध तो समूचे मानव समुदाय को सचेत करता रहता है परन्तु समलैंगिकता के विरुद्ध ऐसा अभियान क्यों नहीं? आज सारा विश्व बच्चों और किशोरावस्था के विरुद्ध कामुक अपराधों से चिंतित है। इन अपराधों पर किये गये शोध यह सिद्ध करते हैं कि समलैंगिक व्यक्ति इन बच्चों के विरुद्ध कामुक अपराध में सामान्य व्यक्तियों से 7 गुना अधिक पाये जाते हैं। समलैंगिक महिलाएँ तो बालिकाओं के प्रति ऐसे अपराधों में सामान्य महिलाओं से 22 गुना अधिक हैं। यदि समलैंगिकता का गुणगान समाज में बढ़ता रहा तो बच्चों को कामुक शोषण से बचाने के अभियान को अवश्य ही धक्का लगेगा। समाज का कोई भी परिवार अपने बच्चों के कामुक शोषण को स्वीकार नहीं कर सकता। परन्तु समलैंगिकता के बढ़ते गुड़गान से अब अवयस्क बच्चियों को अन्य महिलाओं की और अवयस्क लड़कों को वयस्क पुरुषों की संगति से भी डरना होगा। समलैंगिक स्त्री-पुरुष का मानसिक संतुलन सामान्य स्त्री-पुरुष की अपेक्षा अधिक बिगड़ता है। समलैंगिक लोगों में डिप्रेशन जैसे मानसिक रोगों की सम्भावना सामान्य लोगों की अपेक्षा 50 प्रतिशत अधिक होती है। उनके जीवन में आन्तरिक प्रसन्नता और सुख की अनुभूति भी बहुत कम होती है। वैसे आज तक कोई भी वैज्ञानिक रिपोर्ट यह सिद्ध नहीं कर पाई कि हिंजड़ों की तरह समलैंगिक स्त्री-पुरुष किसी प्राकृतिक और जन्मजात लक्षणों से ग्रसित होते हैं। समलैंगिकता केवल मात्र कुसंगति का ही परिणाम है। ऐसे अनेकों समलैंगिक देखे जा सकते हैं जो विधिवत शादी करते हैं, उनके बच्चे पैदा होते हैं, परन्तु कुसंगति के कारण घर के बाहर वे समलैंगिक हरकतों में लिप्त हो जाते हैं। समलैंगिक लोगों में नशे की आदतें विकसित होने की सम्भावना भी अधिक होती है। समलैंगिक लोग पुरुष-पुरुष और स्त्री-स्त्री के बीच शादियाँ बेशक कर लें परन्तु सन्तानोत्पत्ति का सपना भी नहीं ले सकते। सामान्य अर्थात् प्राकृतिक विवाह पद्धति के बाद अधिकांश पति-पत्नी एक-दूसरे के प्रति वफादारी से ही जीवन बिताते देखे जा सकते हैं। जबकि समलैंगिक संगतियों में अधिकतर सम्बन्ध एक से पांच वर्ष से अधिक नहीं चलते।
कुल मिलाकर यह स्वीकार करना ही होगा कि समलैंगिकता समाज के हित में नहीं है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय ने अपनी बन्द आँखों और सीमित कत्र्तव्यों के कारण केवल संवैधानिक और कानूनी व्यवस्था की तरह इस बुराई को अपराध की श्रेणी से बाहर करने का निर्णय दिया है, परन्तु समाज को इस बुराई के विरुद्ध सदैव सचेत रहना होगा। जिस प्रकार यौवन की दहलीज पर कदम रखने वाले प्रत्येक युवक और युवती को समझदार माँ-बाप यह समझाने का प्रयास करते थे कि बच्चों विवाह से पूर्व स्त्री-पुरुष मित्रता भी सुखी वैवाहिक जीवन में बाधक बनती है, उसी प्रकार अब समाज को अपने पुत्रों को यह उपदेश देना होगा कि बेटा किसी अन्य पुरुष के साथ कामुक सम्बन्ध बनाना जीवन व्यर्थ करने के समान है। इसी प्रकार पुत्रियों को भी यह समझाना होगा कि लड़कियों के बीच अप्राकृतिक कामुक सम्बन्ध भी शरीर को रोगी करने के समान है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के बाद समलैंगिकता के नाम पर जिस प्रकार शोर-शराबा मच रहा है उससे यह स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि भारतीय समाज के कदम भी पश्चिमी देशों की तरह बर्बादी की ओर बढ़ने लगेंगे। इस बर्बादी से बचने का एक ही उपाय है कि समाज का प्रत्येक व्यक्ति और प्रत्येक संगठन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में आने वाले लोगों को ऐसी बुराईयों के विरुद्ध लगातार सचेत करता रहे। सबसे बड़ा दायित्व तो समाज के प्रत्येक माता-पिता का है कि वे अपने बच्चों के साथ हर प्रकार के नैतिक मूल्यों और जीवन को सुखी और स्वस्थ बनाने वाले उपायों पर लगातार विचार करते रहें।

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