संपादकीय

भारत के मुख्य न्यायाधीश पर आरोप

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई के विरुद्ध न्यायालय की 35 वर्षीय महिला कर्मचारी द्वारा कामुक शोषण के प्रयास के आरोप ने देश में कई प्रकार की नई चर्चाओं को जन्म दे दिया है। इन आरोपों के प्रकाश में आने के बाद एक तरफ सर्वोच्च न्यायालय के महासचिव ने कुछ मीडिया समूहों को भेजे गये उत्तर में कहा कि यह आरोप पूरी तरह से निराधार, झूठे और शरारतपूर्ण है। यह सम्भावना भी व्यक्त की गई कि इन आरोपों के पीछे न्याय पालिका को बदनाम करने वाली कुछ ताकतों का भी हाथ हो सकता है। दूसरी तरफ सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई सहित न्यायमूर्ति श्री अरुण मिश्रा और श्री संजीव खन्ना की पीठ ने सरकार के साॅलीसिटर जनरल श्री तुषार मेहता द्वारा ध्यान आकर्षण के फलस्वरूप इस मामले की सुनवाई प्रारम्भ कर दी।
इन दोनों प्रक्रियाओं के माध्यम से समाज को उक्त शिकायत के पहले ही कदम पर यह विश्वास दिलाने की कोशिश की गई है कि यह सभी आरोप झूठे और षड्यन्त्रपूर्ण हैं। क्या शिकायत के पहले कदम पर ही सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस प्रकार का प्रभाव पैदा करना न्यायोचित है। जब भी कोई शिकायत पैदा होती है तो उसकी परिणति की दोनों सम्भावनाएँ हो सकती हैं – शिकायत झूठी और षड्यन्त्रपूर्ण साबित हो सकती है और यह सम्भावना भी हो सकती है कि वास्तव में शिकायतकर्ता को पीड़ित करने का कोई प्रयास किया गया।
देश का सर्वोच्च न्यायालय सारे देश को यह स्वीकार करने के लिए मजबूर कर रहा है कि शिकायत निराधार और षड्यन्त्रपूर्ण है। हो सकता है यह बात सत्य हो। इसलिए हम भी शिकायत को निराधार और षड्यन्त्रपूर्ण मान लेते हैं। हम यह भी मान लेते हैं कि इस शिकायत के माध्यम से इस वर्ष के अन्त तक सेवानिवृत्त होने वाले मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई के अब तक के ईमानदार और बेदाग चरित्र पर दाग लगाने की निन्दनीय साजिश दिखाई दे रही है। न्यायमूर्ति श्री रंजन गोगोई वास्तव में अनुशासन और ईमानदारी के उत्तम प्रतीक रहे हैं। परन्तु कानूनी दृष्टि से इस शिकायत को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के प्रक्रियात्मक आचरण ने अनेकों प्रश्न खड़े कर दिये हैं जो सामान्य न्याय प्रक्रिया में किसी कीमत पर बर्दाश्त नहीं किये जा सकते।
महिला शिकायतकर्ता को अक्टूबर, 2016 में श्री रंजन गोगोई की टीम में एक जूनियर सहायक की तरह भेजा गया था। इससे पूर्व उसकी वार्षिक रिर्पोटें ‘अच्छी’ और ‘बहुत अच्छी’ लिखी जाती रही हैं। शिकायत में कहा गया है कि अक्टूबर, 2016 से अगस्त, 2018 तक श्री रंजन गोगोई उसके कार्य से प्रसन्न थे और उस पर विश्वास करते थे और समय-समय पर उसके कार्य की तारीफ भी करते थे। यह महिला मेरठ के चै. चरण सिंह विश्वविद्यालय से कानून का अध्ययन भी कर रही थी। उसका कहना है कि श्री रंजन गोगोई उसकी शिक्षा से लेकर उसके पूरे परिवार की जानकारी लेने में भी रुचि रखते थे। इस प्रकार धीरे-धीरे श्री गोगोई शिकायतकर्ता के साथ नजदीकियाँ बढ़ाते रहे।
अगस्त, 2018 में उन्होंने इस महिला को जूनियर सहायक होने के बावजूद भी अपने घर पर कार्य करने वाली टीम में शामिल कर लिया था। मुख्य न्यायाधीश बनते ही 9 अक्टूबर, 2018 को उन्होंने इस महिला के दिव्यांग देवर को भी जूनियर सहायक की तरह नियुक्ति यह कहते हुए दी कि मेडिकल परीक्षण में फेल होने के बावजूद भी उसे यह नियुक्ति दी जा रही है। इसके बाद श्री गोगोई ने उसे कई बार स्पर्श करने की भी कोशिश की और अब वे उसे अपनी कामुक भावनाओं में शामिल करने का प्रयास करने लगे। 11 अक्टूबर, 2018 की ऐसी ही एक विशेष घटना के बाद उन्होंने उसे इसका जिक्र किसी न करने के लिए भी कहा। इसके बाद अक्टूबर, 2018 में उसे तीन बार भिन्न-भिन्न विभागों में स्थानान्तरित किया गया। 19 नवम्बर, 2018 को उसे तीन झूठे आरोप लगाकर स्पष्टीकरण मांगा गया कि उसने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के निर्णय पर प्रश्न किये और उन पर प्रभाव डालने का प्रयास किया और 17 नवम्बर, 2018 को वह बिना बताये काम से अनुपस्थित थी। 21 दिसम्बर, 2018 को उसे नौकरी से निकाल दिया गया। इसके एक सप्ताह के बाद 29 नवम्बर, 2018 को दिल्ली पुलिस में कार्य करने वाले उसके पति और उसके एक देवर को भी नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया। इसके बाद उसके पति ने जब मुख्य न्यायाधीश के सचिव से बात करने का प्रयास किया तो 31 दिसम्बर, 2018 को उसके विरुद्ध तिलक मार्ग थाने में शिकायत दर्ज कर दी। इसी प्रक्रिया में उसके उस दिव्यांग देवर को भी बिना कारण बताये सर्वोच्च न्यायालय की नौकरी से हटा दिया गया जिसे मुख्य न्यायाधीश ने स्वयं नियुक्त किया था। शिकायतकर्ता के अनुसार उस पर रिश्वतखोरी का झूठा आरोप लगाकर थाने मे शिकायत भी दर्ज करवा दी गई।
एक तरफ शिकायतकर्ता की लम्बी पीड़ा दिखाई देती है जो हो सकता है पूरी तरह झूठी हो, परन्तु न्याय का सर्वोच्च प्रश्न यह है कि क्या ऐसी शिकायत को रजिस्ट्रार कार्यालय की एक विज्ञप्ति या सर्वोच्च न्यायालय की उस पीठ के द्वारा निन्दनीय बताने का प्रयास उचित दिखाई देता है जिस पीठ पर स्वयं वही मुख्य न्यायाधीश विराजमान हों जिनके विरुद्ध यह सारी शिकायतें की गई हैं। सर्वोच्च न्यायालय देश के प्रत्येक छोटे-बड़े संस्थान से कार्यस्थल पर कामशोषण समाप्त करने वाले कानून के अन्तर्गत यह आशा करता है कि किसी भी महिला की शिकायत पर एक आन्तरिक कमेटी गठित की जानी चाहिए जिसकी अध्यक्षता एक महिला के द्वारा सुनिश्चित की जाये। क्या यह कानून सर्वोच्च न्यायालय जैसे संस्थान पर लागू नहीं होता, जबकि वास्तविकता यह है कि सर्वोच्च न्यायालय स्वयं कार्यस्थल पर शोषण समाप्त करने के लिए वर्ष 2015 में विशेष नियमों की घोषणा कर चुका है। न्यायमूर्ति श्री अरुण मिश्रा स्वयं उस पीठ के सदस्य थे जिसने वर्ष 2015 में इन नियमों की घोषणा की थी। सर्वोच्च न्यायालय के पास महिला न्यायाधीशों की कमी नहीं है। इस वक्त श्रीमती आर. भानुमति, श्रीमती इन्दू मल्होत्रा तथा श्रीमती इन्दिरा बनर्जी सर्वोच्च न्यायालय की तीन महिला न्यायाधीश हैं। शिकायतकर्ता को न तो किसी छानबीन समिति ने और न ही अदालत ने सामने बुलाकर सुनवाई का साहस दिखाया, बल्कि उसे अपमानित करने का हर प्रयास कर दिखाया। अदालत ने यहाँ तक कहा कि शिकायतकर्ता का यह प्रयास मुख्य न्यायाधीश कार्यालय को अव्यवस्थित करना और न्याय व्यवस्था की गरिमा को ठेस पहुँचाना है। यहाँ तक कि मुख्य न्यायाधीश सहित तीन न्यायाधीशों की पीठ ने सुनवाई करने के बाद जो आदेश जारी किया उस पर केवल अन्य दो न्यायाधीशों के ही हस्ताक्षर हैं। क्या मुख्य न्यायाधीश को यह विशेषाधिकार है कि वे जिस मामले की सुनवाई करें उसके आदेश पर हस्ताक्षर करने से अपने आपको बचा रखें। न्यायालय ने इस सुनवाई के बाद कहा कि वे कोई न्यायिक आदेश पारित नहीं कर रहे और मीडिया को स्वतंत्रता है कि वे इसे अपने विवेक से प्रकाशित करे। यदि अदालत को न्यायिक आदेश के स्थान पर मीडिया को सन्देश मात्र देना था तो अदालत में सुनवाई की क्या आवश्यकता थी, इसके स्थान पर संवाददाता सम्मेलन आयोजित करना चाहिए था। प्रारम्भ से अन्त तक न्यायालय बेशक पूरी तरह से यह मान चुकी हो कि शिकायत पूर्णतः झूठी और षड्यन्त्रपूर्ण है परन्तु किसी भी शिकायत के निपटारे की यह प्रक्रिया एक मुख्य न्यायाधीश को ही नहीं अपितु इस प्रक्रिया से जुड़े सभी महानुभावों को एक ऐसे कानूनी प्रश्न के सामने खड़ा करती है जिसका सकारात्मक समर्थन वे कभी भी किसी सार्वजनिक मंच से नहीं कर पायेंगे। न्याय केवल होना ही नहीं चाहिए अपितु होता हुआ दिखाई भी देना चाहिए।

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