संपादकीय

फिल्मों में न्याय व्यवस्था के प्रति नाराजगी

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
सामान्यतः लोगों के मन में यह धारणा रहती है कि जीवन में कभी अदालतों और वकीलों का मुँह न देखना पड़े। आप यदि किसी मुकदमें में एक पक्ष की तरह शामिल हो जाते हैं तो आपको यह अहसास होने लगता है कि जीवन की इस समस्या का समाधान होने में पता नहीं कितना समय लगेगा। वकील के पास जाते ही हर वादी अपने तथ्यों की बात करने के बाद सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यही करता है कि इस मुकदमें के निर्णय में कितना समय लगेगा। इसके विपरीत अक्सर हर प्रतिवादी मुकदमें को लम्बा लटकाने में ही अपनी सफलता मान लेता है। कभी-कभी तो अदालतों में चलने वाले मुकदमों के चक्रव्यूह से छुटकारा पाना भी असम्भव सा दिखाई देने लगता है। भारत में न्याय व्यवस्था अर्थात् अदालतों में चलने वाले मुकदमों, वकीलों और न्यायाधीशों के व्यवहार आदि को लेकर अनेकों हिन्दी फिल्मों का भी निर्माण हो चुका है। इन फिल्मों में अनेकों प्रकार के दिवानी और आपराधिक विवादों को आधार बनाकर अदालत की प्रक्रिया को जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। सामान्य जनता में फिल्मों के माध्यम से ही न्यायिक प्रक्रिया की छवि का निर्माण होता है। कभी-कभी तो फिल्मों में न्यायिक प्रक्रिया को इतने सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जिसे देखकर आम लोग यह समझ बैठते हैं कि अदालतों में ही सच्चा न्याय हो सकता है। अदालतों के न्याय से कोई अपराधी या कुकर्मी बच नहीं सकता। दूसरी तरफ अनेकों फिल्मों में यह भी दिखाया जाता है कि हर प्रकार के दुर्दान्त अपराधों में शामिल व्यक्ति बार-बार अदालतों को चकमा देने में सफल हो जाता है। किस प्रकार अपराधी लोग राजनीतिक सम्बन्धों या धन के प्रभाव से अदालतों के सामने सच्चाई को पहुँचने ही नहीं देते। इस प्रकार न्यायिक प्रक्रिया के अच्छे और बुरे सभी पक्षों को कई फिल्मों के माध्यम से जनता के समक्ष प्रस्तुत किया जा चुका है।
वर्ष 1960 में ‘कानून’ फिल्म का निर्माण बी.आर. चोपड़ा के निर्देशन में हुआ था जिसमें अशोक कुमार ने न्यायाधीश की भूमिका निभाई थी और राजेन्द्र कुमार ने न्यायाधीश का दामाद होने के बावजूद एक अपराधी के बचाव में वकालत करते हुए एक निर्दोष व्यक्ति को झूठे आरोप से बचाने का सफल प्रयास किया। 1962 में देवानन्द और वहीदा रहमान को लेकर बनी फिल्म ‘बात एक रात की’ भी अदालत में चलने वाले एक आपराधिक मुकदमें की कहानी को प्रस्तुत करती दिखाई दी। 1965 में बनी फिल्म ‘वक्त’ पूरी तरह से कोर्ट के मुकदमें पर आधारित नहीं थी परन्तु फिल्म का अन्त अदालत के एक मुकदमें के रूप में ही होता दिखाया गया। 1983 में बनी ‘अन्धा कानून’ ने तो न्यायिक प्रक्रिया की धज्जियाँ ही उड़ा दी थी जिसमें रजनीकान्त ने अनेकों हत्याएँ करने के बाद भी न्यायिक प्रक्रिया को चकमा देने के सफल प्रयास किये। 1985 में ‘मेरी जंग’ में अनिल कपूर ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए वकील की भूमिका निभाते हुए अदालत की कार्यवाही को प्रस्तुत किया। 1986 की एक फिल्म ‘एक रूका हुआ फैसला’ भी पूरी तरह अदालती प्रक्रिया पर ही आधारित थी जिसमें न्यायाधीश के साथ-साथ ब्रिटिश युग की ज्यूरी व्यवस्था को भी प्रदर्शित किया गया। 1993 में बनी ‘दामिनी’ फिल्म में तो सनी देयोल का एक डायलाॅग ‘‘तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख, तारीख पे तारीख…’’ इतना प्रसिद्ध हुआ था कि आज तक लोग अदालतों की प्रक्रिया पर इसे बोलते हुए दिखाई देते हैं। वर्ष 2001 में ‘क्योंकि मैं झूठ नहीं बोलता’ नामक फिल्म में गोविन्दा ने वकील की भूमिका निभाई। हाल ही में अक्षय कुमार ने ‘जौली एल.एल.बी.’ नामक फिल्म में तो अदालती व्यवस्था को एक जबरदस्त कामेडी की तरह प्रस्तुत किया।
कुछ वर्ष पूर्व अदालतों की दुर्व्यवहार को लेकर ‘कोर्ट’ नामक एक मराठी फिल्म बनी जिसमें झूठे आपराधिक मुकदमें का प्रदर्शन किया गया है। इस फिल्म में एक लेखक ने आत्म हत्या के अधिकार को लेकर कविता लिखी थी जिसमें विशेष रूप से सफाई कर्मचारियों के द्वारा आत्म हत्या को इसलिए उचित ठहराया गया था क्योंकि उनकी सुरक्षा और अधिकारों के प्रति सरकारी विभाग सदैव लापरवाह दिखाई देते हैं। उसकी कविता को पढ़कर एक सफाई कर्मचारी ने आत्म हत्या कर ली तो लेखक पर आत्म हत्या के लिए उकसाने का मुकदमा प्रारम्भ कर दिया गया। जबकि वास्तव में उस सफाई कर्मचारी की मृत्यु गटर के अन्दर सफाई करते हुए बदबूदार वातावरण के कारण हुई थी जिसके लिए वास्तव में सरकारी विभाग जिम्मेदार था जिसने सफाई कर्मचारियों के लिए उचित सुरक्षा की व्यवस्था नहीं की थी। परन्तु इस मूल लापरवाही से ध्यान हटाकर अपराधिक मुकदमा कवि के ऊपर प्रारम्भ कर दिया गया। मुकदमें में कवि को अराजकता फैलाने वाले उग्रवादी के रूप में आरोपित किया गया। देखने में यह मुकदमा निराधार लग रहा है परन्तु वास्तव में भारत में अनेकों ऐसे झूठे और निराधार मुकदमें अदालतों के सामने प्रस्तुत किये जाते हैं। ऐसे झूठे मुकदमों और समस्याओं की पीड़ा को झेलते हुए जब एक व्यक्ति अदालत के समक्ष खड़ा होता है और न्यायाधीश तथा वकीलों की अहंकारवादी सत्ता से उसे कदम-कदम पर टकराना पड़ता है तो सामान्य जनता उसकी पीड़ा को नहीं समझ सकती। परन्तु फिल्म के माध्यम से ऐसी पीड़ाओं को जनता के बीच प्रस्तुत किया जाता है। इस फिल्म में वकील कोर्ट में नियमित रूप से उपस्थित होने के स्थान पर समाज के बुद्धिजीवियों और धनाढ्य व्यक्तियों के बीच मानवाधिकारों पर लेक्चर देते हुए तथा कई प्रकार की विलासिताओं में डूबे हुए दिखाये गये हैं। महिला सरकारी वकील को इस प्रकार से प्रस्तुत किया गया है जैसे हर मुकदमा उसके लिए एक नया सिरदर्द है और हर पुलिस केस में वह पहले ही निश्चित धारणा बनाकर कार्य करती है कि हर आरोपी को जेल भिजवाना ही उसका मुख्य कत्र्तव्य है। न्यायाधीश को उदासीनता के ऐसे रूप में दिखाया गया है जो सारी व्यवस्था के कारण लोगों के प्रति इन्सानियत के भाव से विहीन हो चुका है और अपने अदालती कार्य को केवल एक मशीनी प्रक्रिया की तरह ही करता दिखाई देता है। कई बार तो वह न्यायाधीश पक्षों की बात सुनते-सुनते अपनी आँखे बन्द कर लेता है और कानून की मूल भावना को समझने का प्रयास ही नहीं करता। एक महिला को तो वह यहाँ तक कह बैठता है कि वह उसे सुनना नहीं चाहता क्योंकि उसने बिना बाजू वाला ब्लाउज डाल रखा है। झूठे मुकदमें में फंसे व्यक्ति की पीड़ा किस कदर बढ़ जाती है जब उसकी जमानत अर्जी पर सुनवाई ऐसे दिन मना कर दी जाती है जिसके बाद अदालतें गर्मी की छुट्टियों के लिए बन्द हो रही हैं। उदासीनता की पराकाष्ठा पर पहुँचते हुए न्यायाधीश उसे उच्च न्यायालय जाने की सलाह देता है। इसके बाद अन्धेरे में खाली अदालत का दृश्य शायद यही दिखाने के लिए जोड़ा गया कि न्याय व्यवस्था में सर्वत्र अन्धेरा ही अन्धेरा है। न्यायाधीश और वकील छुट्टियों का भरपूर आनन्द लेते हैं परन्तु वे यह भूल जाते हैं कि इन छुट्टियों में कितने पक्षकार उस भयंकर पीड़ा को निरर्थक झेलने के लिए मजबूर हो रहे हैं जिनके मुकदमें न्यायालयों में लम्बित पड़े रहते हैं।
वास्तव में यह चिन्ता का विषय है कि वर्ष के 365 दिनों में से भारत का सर्वोच्च न्यायालय केवल 193 दिन का काम करता है और 172 दिन छुट्टियों का आनन्द लेता है। ऐसी कार्य संस्कृति किस प्रकार न्याय व्यवस्था को शीघ्र न्याय की प्रेरणाएँ दे सकती है? हिन्दी फिल्मों में न्याय व्यवस्था के प्रति दिखाये गये रोष वास्तव में न्यायाधीशों और सरकारों के लिए ध्यान देने योग्य हैं।

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