संपादकीय

बेसहारा गायों के लिए जनभागीदारी बन सकती है वरदान

-विवेक कुमार पाठक
गाय पिछले काफी समय से राजनीति के केन्द्र में है। सियासी दल गौमाता की दुर्दशा पर राजनैतिक बयान जारी करते हैं तो आए दिन गाय और गौवंश से जुड़े मुद्दे पर धरना प्रदर्शन देश में देखे जाते हैं। गाय पर सकारात्मक नकारत्मक दोनों तरह का विमर्श हुआ है। गाय अब घोषणा पत्रों में भी है तो सरकारें आने पर बेसहारा गायों के लिए गौशालाएं खोलने का काम भी सरकारें कर रही हैं। यह कदम सार्थक है मगर इसे व्यापक बनाए जाने की आवश्यकता है। आइए इस पर व्यापक चर्चा करते हैं। बेसहारा गाएं भले ही दूध न दें मगर वे मिट्टी की पोशक बन सकती हैं तो आए इस मुद्दे पर चर्चा कर ही लें।
गायों को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा इन दिनों मध्यप्रदेश में हो रही है। कमलनाथ सरकार ने अपने चुनाव अभियान में गौशालाएं खोलने का वादा किया था। अब वचन पत्र अनुसार मध्यप्रदेश में 1000 गौशालाएं पहले चरण में खोली जा रही हैं। इन गौशालाओं के संचालन के लिए पशुपालन विभाग ने जो प्रोजेक्ट बनाया है उसमें जिला प्रशासन, पंचायत एवं स्वयंसेवी संस्थाओं को यह काम देना तय किया गया है। प्रारंभ में खोली गईं गौशालाओं में बड़ी संख्या में बेसहारा गायों को रखा गया है। इन गौशालाओं में निरंतर गाएं आती जा रही हैं। देखने में आ रहा है कि सरकार की गौशालाएं खोली जाने से ग्रामीण क्षेत्र के पशुपालकों में एक अलग प्रवृत्ति देखी जा रही है। वे बिना दूध देने वाली अपनी गायों को शहरों की ओर छोड़ रहे हैं नतीजतन सरकारी गौशालाओं में बेसहारा गायों की संख्या दिनोंदिन बढ़ रही है।
बात ग्वालियर जिले की करें तो लाल टिपारा पर पहले से बड़ी गौशाला का संचालन नगर निगम कर रहा है। इसमें हजारों की संख्या में बेसहारा गायों को रखा गया है। इन गायों की अधिक संख्या के कारण अतिरिक्त गौक्षेत्र प्रस्तावित किया गया है। नई सरकार के बाद भितरवार घाटीगांव से लेकर गोला का मंदिर स्थित निजी हॉस्पीटल तक गायों के लिए गौशाला अस्थायी रुप से प्रारंभ कर दी गयी है। ये सरकारी प्रयास स्वागत योग्य हैं इसके बाबजूद लंबे समय तक गौशालाओं का सुचारु संचालन करने के लिए व्यापक संसाधनों, पर्यवेक्षण, श्रम एवं प्रबंधन की आवश्यकता है। जिला प्रशासन हो या पंचायत बेसहारा गायों की गौशाला के संचालन के लिए उन्हें एक दीर्घकालीन प्रबंधन कार्यक्रम बनाना होगा तभी यह योजना समस्या रहित रह सकेगी। इन गौशालाओं में भले ही अधिकतर गाएं दूध न देती हों मगर उनके गोबर एवं मूत्र का उपयोग गौशालाओं के संचालन के अर्थ उपार्जन में किया जा सकता है। आज लकड़ी के अभाव में हजारों जगह ईंधन के रुप में कंडों का उपयोग होता है। शहर के श्मशान स्थलों पर प्रतिदिन कई क्विंटल लकड़ियों की जरुरत होती है। इन स्थानों की जरुरत गौशालाओं के कंडों के जरिए की जा सकती है।
गौशालाओं में हजारों गायों के मल मूत्र का उपयोग करके बायोगैस संयंत्र का भी बड़े पैमाने पर सफल संचालन किया जा सकता है। बायोगैस प्लांट लगने से गौशाला में पशुओं के अपशिष्ट का सही उपयोग किया जा सकता है। इसके अलावा जैविक खाद और केंचुआ खाद बनाने में गोबर का उपयोग जगजाहिर है। सरकारी गौशालों में जैविक खाद का उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जा सकता है एवं इस काम में बेरोजगार ग्रामीण युवाओं की मदद भी ली जा सकती है। आज शहरों में जैविक खाद प्रति किलो के हिसाब से जब गमलों के लिए लोग नर्सरी से खरीदते हैं तो गौशालााओं के लिए घरों में पौधे लगाने वाले लोग गौशाला की खाद को कुछ राशि देकर न केवल उत्साह से खरीदेंगे बल्कि इससे वे गौशाला संचालन की जरुरतों में भी अपना थोड़ा थोड़ा योगदान कर सकेंगे। आवारा बताकर पकड़ी जाने वाली बेसहारा गायों के चारे आदि के लिए जनभागीदारी सबसे बेहतर व्यवस्था हो सकती है। गौवंश को पूजने वाले भारतीय समाज में प्रमुख तीज त्यौहारों एवं जन्मदिन आदि मंगल अवसरों पर चारा दान कार्यक्रम भी अच्छा प्रयास है। ग्वालियर में प्रशासन ने प्रयास किया है कि सरकारी गौशालाओं में लोग बच्चों के जन्मदिन, विवाह वर्षगांठ आदि अवसरों पर जनभागीदारी के मकसद से आएं और बेसहारा पशुओं को चारा आदि दान कर सेवा कार्य करें। इस तरह के जनभागीदारी प्रयास गौशाला योजना के लिए बहुत जरुरी एवं महत्वपूर्ण हैं एवं इन्हें शामिल कर विस्तृत प्रोजेक्ट बनाकर ही पशुपालन विभाग सरकारी गौशालाओं का दीर्घकाल तक सफल संचालन जारी रख सकता है।

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