संपादकीय

न्याय व्यवस्था के निशाने पर अवैध सम्बन्ध

-विमल वधावन योगाचार्य, (एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
इस बात में कितनी सच्चाई है कि हमारे देश में टी.वी. धारावाहिकों की बढ़ती संख्या और फिल्मों के प्रभाव से पारिवारों के अन्दर रिश्ते लगातार बिगड़ रहे हैं और बाहर समाज में अपराध के नित नये तरीके सामने आ रहे हैं? टी.वी. और सिनेमा को मूलतः मनोरंजन का माध्यम माना गया था, परन्तु वास्तव में इस मनोरंजन के नाम पर पर-पुरुष और पर-स्त्री सम्बन्धों को इतने सहज तरीके से घर-घर पहुँचाने का कार्य प्रारम्भ हो गया कि अब भारतीय समाज में ऐसे अवैध सम्बन्धों को आपत्तिजनक मानने की परम्परा कमजोर होती जा रही है। इन अवैध सम्बन्धों के चलते अपने वैध पति या पत्नी से छुटकारा पाने के लिए तलाक से लेकर हत्या जैसे प्रयास भी टी.वी. और सिनेमा में परोसी जाने वाली कहानियों में दिखाये जा रहे हैं। जीवन की दिनचर्या की तरह प्रतिदिन ऐसी कहानियों को देखने और उन पर चिन्तन करते रहने से कुछ लोग उनका अनुसरण अपने जीवन में भी करने लगते हैं। यही कारण है कि आज परिवार और समाज अपनी दुर्दशा का कारण स्वयं बनता जा रहा है। पारिवारिक कहानियों के अतिरिक्त टी.वी. और सिनेमा समाज में अन्य अपराधों का भी प्रशिक्षण माध्यम बनते जा रहे हैं। लड़कियों से छेड़छाड़ से लेकर सामूहिक बलात्कार जैसे अपराध हों या बच्चों के अपहरण के बाद फिरौती मांगने से लेकर हत्याओं तक के अपराध आदि में वृद्धि का मुख्य कारण टी.वी. और सिनेमा उद्योग ही दिखाई दे रहा है।
मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एन. किरूबाकरण एवं श्री अब्दुल कुदहोस की खण्डपीठ ने केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों को ऐसे ही कुछ प्रश्नों की लम्बी सूची जारी करते हुए उनके कारण ढूंढ़ने का निर्देश दिया है। वास्तव में यह खण्डपीठ अजीत कुमार नामक एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई कर रही थी जिन पर एक महिला के साथ अवैध सम्बन्धों के चलते जोसफ नामक एक व्यक्ति की हत्या का आरोप था।
खण्डपीठ ने अपने अन्तरिम आदेश में जारी प्रश्न सूची में टी.वी. और सिनेमा के बढ़ते प्रभाव के अतिरिक्त महिलाओं की स्वतंत्रता के नाम पर महिलाओं का घर से निकलकर नौकरी या कारोबार में शामिल होने के कारण बाहरी वातावरण में पराये स्त्री-पुरुषों के साथ अधिक मेल-जोल और करीबी सम्बन्धों का बनना, सोशल मीडिया के माध्यम से परिवार के बाहरी लोगों के साथ अधिक जुड़ाव, पश्चिमी संस्कृति का अन्धाधुंध अनुसरण, शराब का बढ़ता प्रचलन, बड़े परिवार की व्यवस्थाओं का समापन, नैतिक मूल्यों की शिक्षा का अभाव आदि को भी प्रश्नगत किया गया है।
भारतीय समाज में प्रवेश कर चुकी अनेकों विकृतियों के बावजूद मद्रास न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि भारत में आज भी विवाह जैसा गठबन्धन प्रेम, विश्वास और वैध आशाओं के बल पर ही तैयार होता है। विवाह को आज भी एक पवित्र बन्धन ही माना जाता है। परन्तु पति-पत्नी जब बाहर समाज में भी अन्य स्त्री-पुरुषों के साथ सम्बन्ध बनाने लगते हैं तो विवाह सम्बन्ध पवित्रता के स्थान पर डरावने दिखाई देने लगते हैं। पराये सम्बन्ध बनाने के मार्ग पर पति चले या पत्नी दोनों अपराध बोध से ग्रसित तो रहते ही हैं। दूसरी तरफ उनके वैध पति या पत्नी को जब इस सम्बन्ध का पता लगता है उनमें पीड़ा बोध उत्पन्न होने लगता है। इस प्रकार अपराध बोध और पीड़ा बोध परस्पर टकराने लगते हैं। यदि अपराध बोध वाला पक्ष सरलता से अपनी गलती को स्वीकार नहीं करता और अपने चाल-चलन को ठीक नहीं करता तो दोनों पक्षों का टकराव तलाक या अपराधी तत्वों का सहारा लेकर हत्या तक की नौबत पैदा कर देता है।
मद्रास उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने केन्द्रीय परिवार कल्याण मंत्रालय को विशेष रूप से यह निर्देश जारी किया है कि परिवारों और समाज में बढ़ते अवैध सम्बन्धों के कारणों को ढूंढ़कर उनके निराकरण के उपाय तलाश करना न्याय व्यवस्था का परम कत्र्तव्य है। उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार तथा तमिलनाडू सरकार को 20 प्रश्नों की एक सूची जारी करते हुए उपलब्ध आंकड़ो तथा सर्वे आदि के माध्यम से विस्तृत उत्तर की अपेक्षा की है। उपरोक्त पारिवारिक और सामाजिक विषयों के अतिरिक्त सरकारों से यह पूछा गया है कि राज्य में विगत 10 वर्ष के भीतर अवैध वैवाहिक सम्बन्धों के कारण कितनी हत्याएँ, आत्म हत्या के प्रयास, अपहरण, मारपीट आदि जैसे अपराध हुए हैं। क्या ऐसे अपराधों की संख्या प्रतिवर्ष बढ़ती जा रही है? क्या बढ़ते अवैध वैवाहिक सम्बन्धों के पीछे टी.वी. तथा सिनेमा मुख्य कारण हैं? क्या टी.वी. सिनेमा आदि से लोगों को अपने अवैध सम्बन्धों की रक्षा के लिए हत्या, अपहरण जैसे अपराध करने की प्रेरणा मिलती है? क्या ऐसे अवैध सम्बन्धों में शामिल पति-पत्नी अपने परिवार के पीड़ित पति-पत्नियों से छुटकारा पाने के लिए पेशेवर अपराधियों की सहायता लेते हैं? क्या अवैध सम्बन्धों की वृद्धि में स्त्री-पुरुष की आर्थिक स्वतंत्रता भी जिम्मेदार है? क्या अपने वैध पति-पत्नी से काम-तृप्ति न होना भी ऐसे अवैध सम्बन्धों का कारण है? क्या फेसबुक तथा वाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफार्म भी ऐसे अवैध सम्बन्धों को बढ़ाने में सहयोग दे रहे हैं? क्या पश्चिमी संस्कृति का अन्धानुकरण भी ऐसे अवैध सम्बन्धों का कारण है? क्या पति में शराब पीने की वृत्ति के कारण पत्नियाँ अवैध सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर होती हैं? क्या परिवारों में एक-दूसरे के साथ पर्याप्त समय न बिताना भी ऐसे अवैध सम्बन्धों का कारण है? क्या विद्यालयों में नैतिक और चारित्रिक मूल्यों को न पढ़ाया जाना ऐसे अवैध सम्बन्धों का कारण है? क्या वर-वधु की इच्छा के विरुद्ध आयोजित विवाह ऐसे अवैध सम्बन्धों का कारण बनते हैं? क्या बेमेल विवाह भी अवैध सम्बन्धों का कारण बनते हैं? इसके अतिरिक्त अवैध सम्बन्धों के सामाजिक, आर्थिक या मनोवैज्ञानिक क्या कारण हो सकते हैं? क्या केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकार को सर्वोच्च न्यायालय के सेवा निवृत्त न्यायाधीश, मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को सम्मिलित करके एक ऐसी समिति का गठन नहीं करना चाहिए जो ऐसे मामलों में परिवारों और समाज के मार्ग दर्शन का कार्य करे जिससे समाज को अवैध सम्बन्धों और उससे होने वाले अपराधों से बचाया जा सके? क्या प्रत्येक जिले के स्तर पर ऐसे पारिवारिक विचार-विमर्श केन्द्र गठित नहीं किये जाने चाहिए?
मद्रास उच्च न्यायालय ने यह प्रश्न खड़े करके अपने आपमें एक महान पथ निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया है। बेशक यह निर्देश केवल तमिलनाडू राज्य को लेकर दिये गये हैं, परन्तु केन्द्र सरकार यदि चाहे तो इन विषयों पर सारे देश के लिए कोई ठोस उपाय उठा सकती है। इसी प्रकार विभिन्न राज्यों के उच्च न्यायालय तथा राज्य सरकारें भी इन विषयों पर अपने-अपने राज्यों में कार्य कर सकती हैं। सामाजिक और कानूनी कार्यकर्ताओं को अपने-अपने राज्यों में इन विषयों पर कार्य प्रारम्भ करना चाहिए। यह कार्य सीधा राज्य सरकारों के समक्ष प्रतिवेदन से हो सकता है या आवश्यकता पड़ने पर राज्य के उच्च न्यायालयों में जनहित याचिकाओं के माध्यम से भी इन विषयों पर कार्यवाही प्रारम्भ की जा सकती है। गैर-सरकारी संगठनों, मीडिया तथा सोशल मीडिया को भी इन विषयों पर यथा सम्भव आवाज उठानी चाहिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *