संपादकीय

अनुच्छेद-35ए पर राजनीतिक दूरदर्शिता की आवश्यकता

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जम्मू कश्मीर मूल की एक महिला चारू वली खन्ना द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद-35ए तथा जम्मू कश्मीर संविधान की धारा-6 को चुनौती देते हुए एक याचिका प्रस्तुत की गई है। जम्मू कश्मीर के मूल निवासियों को राज्य का स्थाई नागरिक माना जाता है और इस नाते उन्हें सम्पत्ति का विशेष अधिकार प्राप्त है जो किसी अन्य व्यक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। परन्तु जम्मू कश्मीर संविधान की धारा-6 के अन्तर्गत यदि राज्य की कोई महिला किसी ऐसे पुरुष से विवाह कर लेती है जो उस राज्य का स्थाई नागरिक नहीं है तो उसके बच्चों को स्थाई नागरिकता का अधिकार नहीं मिलता। ऐसी महिला राज्य में रोजगार का अधिकार भी खो बैठती है। राज्य के जिन लोगों के पास स्थाई नागरिकता नहीं है वे लोकसभा निर्वाचनों में तो वोट डाल सकते हैं परन्तु राज्य के स्थाई निर्वाचनों में वोट नहीं दे सकते।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद-35ए कहा जाने वाला प्रावधान वास्तव में भारतीय संविधान का हिस्सा ही नहीं है, क्योंकि किसी भी कानून में किसी प्रावधान को जोड़ने या हटाने का कार्य उस मूल कानून का संशोधन माना जाता है। अनुच्छेद-35ए को जोड़ने के लिए भारत की संसद के द्वारा भारतीय संविधान में कभी भी कोई संशोधन नहीं किया गया। इसीलिए आज सर्वोच्च न्यायालय के सामने यह प्रक्रिया से सम्बन्धित संवैधानिक प्रश्न खड़ा है कि क्या बिना संसद के द्वारा कोई संशोधन किये किसी भी बड़े से बड़े अधिकारी के आदेश से संविधान में कोई प्रावधान जोड़ा, हटाया या परिवर्तित किया जा सकता है?
वर्ष 1952 में केन्द्र तथा जम्मू कश्मीर राज्य सरकार के बीच एक समझौता हुआ था जिसमें यह निश्चित किया गया था कि राज्य के नागरिकों को भारत की नागरिकता तो प्रदान की जायेगी परन्तु राज्य के अन्दर रहते हुए नागरिकों के अधिकार निर्धारण के लिए राज्य की विधानसभा ही अधिकृत होगी। इस प्रकार राज्य के नागरिकों को स्थाई नागरिक का दर्जा दिया गया और उनके लिए कुछ विशेष अधिकार घोषित किये गये जिनमें से प्रमुख हैं सम्पत्ति का अधिकार। भारत के राष्ट्रपति ने वर्ष 1954 में एक संविधान आदेश जारी किया जिसके माध्यम से अनुच्छेद-35ए को भारतीय संविधान में जोड़ने की घोषणा की गई। इस अनुच्छेद में राज्य की विधानसभा को स्थाई नागरिकों के विशेषाधिकार निर्धारित करने के लिए अधिकृत घोषित किया गया। यह अधिकार रोजगार, सम्पत्ति अर्जित करने, राज्य में स्थाई रूप से रहने तथा राज्य सरकार की तरफ से सहायता आदि प्राप्त करने से सम्बन्धित थे।
1954 में भारत के राष्ट्रपति डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद थे और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू थे। राष्ट्रपति को प्रधानमंत्री के नियंत्रण में चलने वाली केन्द्र सरकार की सलाह पर ही कार्य करना होता है। 1954 में जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्ला थे। जवाहर लाल नेहरू ने भारतीय संसद में दिये एक वक्तव्य में ब्रिटिश राज के समय अंग्रेजों के जम्मू कश्मीर जाने तथा वहाँ भूमियाँ खरीदकर बसने के खतरे को देखते हुए तत्कालीन महाराजा ने यह कानून घोषित किया था कि जम्मू कश्मीर के बाहर से आने वाला कोई भी व्यक्ति यहाँ भूमि नहीं खरीद सकता। श्री नेहरू ने इस परम्परा का तर्क देते हुए कहा कि जम्मू कश्मीर के नागरिकों का यह अधिकार जारी रहना चाहिए। इस प्रकार ब्रिटिश राज के दौरान जो खतरा अंग्रेजों से था स्वतन्त्र भारत में वही खतरा शेष भारतवासियों से महसूस किया जा रहा था और प्रधानमंत्री नेहरू भी जम्मू कश्मीर के शेख अब्दुल्ला की हाँ में हाँ मिलाने को ही अपने प्रधानमंत्री पद का दायित्व समझ रहे थे। वास्तव में यह भारत के प्रधानमंत्री पद की गरिमा को समाप्त करने के समान था जिसमें भारत का प्रधानमंत्री सारे भारत के नागरिकों को एक राज्य के लिए खतरा समझने की वकालत कर रहा था।
सर्वोच्च न्यायालय के सामने बेशक मुख्य संवैधानिक प्रश्न यही है कि संसद के द्वारा बिना संविधान संशोधन के क्या राष्ट्रपति संविधान में कोई नया प्रावधान जोड़ सकता है? इसके अतिरिक्त सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अनुच्छेद-35ए पर सुनवाई के दौरान अन्य भी कई महत्त्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत हो सकते हैं। जम्मू कश्मीर में रहने वाले अन्य भारतीय नागरिकों की समानता का अधिकार भी एक महत्त्वपूर्ण तर्क होगा। जम्मू कश्मीर की कोई महिला स्थाई नागरिक यदि जम्मू कश्मीर से बाहर के किसी व्यक्ति से शादी करती है तो उसके बच्चों को स्थाई नागरिक नहीं माना जा सकता और ऐसी महिला सम्पत्ति के अधिकार से भी वंचित हो जायेगी। परन्तु ऐसा प्रावधान पुरुषों के लिए नहीं है। इसी प्रकार 1950 के दशक में बाल्मीकि समुदाय के लोगों को जम्मू कश्मीर का स्थाई नागरिक इस शर्त पर घोषित किया गया था कि वे तथा उनकी भावी संतानें सफाई कर्मचारी के रूप में ही कार्य करते रहेंगे। इस प्रकार आज 6-7 दशक के बाद भी यदि इस समुदाय के लोग अपना शैक्षणिक या सामाजिक उत्थान करते हुए सफाई कर्मचारी के कार्य को छोड़ते हैं तो उन्हें स्थाई नागरिकता के अधिकारों से वंचित होना पड़ता है। जम्मू कश्मीर राज्य का औद्योगिक विकास इसीलिए ठप्प पड़ा रहता है क्योंकि राज्य से बाहर का कोई औद्योगिक समूह राज्य में सम्पत्ति खरीदकर नये उद्योग स्थापित नहीं कर सकता। इसी प्रकार सारे देश के अच्छे डाॅक्टर या अस्पताल जम्मू कश्मीर में जाकर नहीं बस सकते।
इन तर्कों के विपरीत कुछ लोग इसे केवल आर.एस.एस. का एक साम्प्रदायिक विषय मानते हैं। जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय ने वर्ष 2015 के एक निर्णय में कहा था कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद-35ए जम्मू कश्मीर के पहले से चले आ रहे कानूनी प्रावधानों को ही मान्यता प्रदान करता है। यह प्रावधान राज्य को कुछ नई सुविधा प्रदान नहीं करता।
अनुच्छेद-35ए से सम्बन्धित राष्ट्रपति आदेश अपने आपमें कोई अकेली घोषणा नहीं है। इसी प्रकार की दर्जनों अन्य घोषणाएँ भी राष्ट्रपति आदेश के द्वारा समय-समय पर की गई हैं। केन्द्र सरकार के द्वारा जिन विषयों पर कानून बनाये जा सकते हैं उस केन्द्रीय सूची के 97 विषयों में से 94 विषय राष्ट्रपति आदेशों के द्वारा ही जम्मू कश्मीर विधानसभा के अधिकार में दिये गये हैं।
जम्मू कश्मीर के सभी राजनीतिक दलों ने जिन खतरनाक धमकियों के साथ अनुच्छेद-35ए की वकालत की है और जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहित भाजपा ने उन्हें आश्वस्थ किया है उससे यही लगता है कि अभी अनुच्छेद-35ए को रद्द करने जैसा कोई प्रयास सर्वोच्च न्यायालय भी नहीं करेगा। अनुच्छेद-35ए हो या 370, जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा स्वयं भारत के अन्दर संवैधानिक भेदभाव का एक उदाहरण है और यह भेदभाव हिमाचल प्रदेश तथा पूर्वोत्तर राज्यों में भी किसी न किसी रूप में विद्यमान है। संवैधानिक भेदभावों को समाप्त करने का कार्य किसी राजनीतिक नाटकबाजी का काम नहीं है। यदि भविष्य में भारत के पूरे संविधान के पुनर्लेखन का कार्य सम्भव हो सका तभी संवैधानिक भेदभावों को समाप्त किया जा सकता है और उसके लिए भी शर्त यह है कि इस पुनर्लेखन प्रयास में कोई महान, सच्चा और राजनीतिक रूप से भरपूर ताकतवर राष्ट्रवादी नेतृत्व केन्द्र की सत्ता में विराजमान हो और ऐसे व्यक्ति के प्रयास केवल राजनीतिक ही नहीं अपितु मानवतावादी और समाजवादी चरित्र पर आधारित हो।
1950 से आज तक किसी भी नेतृत्व ने अनुच्छेद-35ए तथा अनुच्छेद-370 जैसे प्रावधानों के पीछे पनपने वाले भेदभाव और अलगाववाद की गम्भीरता को समझने और इन समस्याओं के समाधान के लिए किसी गम्भीर प्रयास को करने का महान संकल्प नहीं किया। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी सारे देशवासियों को संकल्प से सिद्धि का मार्ग समझा रहे हैं। उन्हें स्वयं भी ऐसे ही कुछ संकल्प घोषित करने चाहिए। जिस प्रकार जी.एस.टी. के द्वारा सारे देश को एक कर प्रणाली में बांधने का महान प्रयास किया गया है उसी प्रकार ऐसी ही कोई राजनीतिक एकरूपता प्रणाली का विचार मंथन उन्हें अवश्य ही करना चाहिए।

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

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