संपादकीय

बच्चों के शिक्षा खर्च की वसूली सम्भव नहीं

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
कलियुग का समाज किस गति से और किस दिशा में जा रहा है इसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। आज के समाज की दुर्दशा को शब्दों की सीमा में तो बांधा ही नहीं जा सकता। चारों तरफ हाहाकार – रिश्वतखोरी, बलात्कार, तलाक की भेंट चढ़ते वैवाहिक जीवन, तरह-तरह के अन्य अपराध और सबसे अधिक लज्जाजनक अवस्था तो समाज के राजा वर्ग अर्थात् राजनीतिज्ञों के जीवन में देखने को मिल रही है। आज के समाज में मचे इस हाहाकार को बेशक कुछ लोग कलियुग कहकर पल्ला झाड़ लेते हैं, इतना ही नहीं कुछ लोग तो ‘‘आजकल सब कुछ चलता है’’ कहकर अपनी असहाय अवस्था का ही नहीं अपितु अपनी निम्न मानसिकता का परिचय देते हैं। कलियुग की दशाओं में आये दिन कई ऐसी घटनाएँ जुड़ती जा रही हैं जिनके बारे में आदमी सहसा कह उठता है कि ऐसा पहले तो कभी न देखा न सुना। इसलिए कलियुग की दशा लगातार घिनौनी बनती जा रही है।
कलियुग की इन्हीं चर्चाओं के बीच आज एक और नया आयाम जुड़ गया है, परन्तु मुम्बई उच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया है कि ऐसी हरकतों को समाज के साथ-साथ कानून की मान्यता किसी कीमत पर भी नहीं मिल सकती। इस मुकदमें के तथ्यों के अनुसार एक पिता ने अपने पुत्र के विरुद्ध 29 लाख रुपये की धोखाधड़ी आदि अपराधों की विभिन्न धाराओं के अन्तर्गत आपराधिक मुकदमा दर्ज कराया। इस 29 लाख रुपये का ब्यौरा यह दिया गया कि पुत्र ने समय-समय पर अपनी पढ़ाई आदि के लिए उससे यह रुपया लिया था और पुत्र ने यह वचन दिया था कि पढ़ाई पूरी होने के बाद वह इस राशि को अपने पिता को वापिस लौटायेगा। पिता ने अपनी शिकायत में कहा कि पुत्र ने धोखाधड़ी पूर्वक पिता से यह धन प्राप्त किया है और वापिस करने की लिखित स्वीकृति के बावजूद वह इस धन को वापिस नहीं दे रहा। मजिस्ट्रेट अदालत में प्रस्तुत इस आपराधिक मुकदमें में पिता ने अपने अपराधी पुत्र के साथ पिता-पुत्र का रिश्ता होने का उल्लेख नहीं किया था। अदालत ने पिता की इस शिकायत पर संज्ञान लेते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा-406, 417, 418 व 420 के अन्तर्गत मुकदमा प्रारम्भ कर दिया।
मजिस्ट्रेट अदालत में कार्यवाही प्रारम्भ होने को चुनौती देते हुए पुत्र ने मुम्बई उच्च न्यायालय का द्वार खटखटाया। पुत्र का कहना था कि वह पिता के सभी खर्चों आदि की जिम्मेदारी लेने को तैयार है परन्तु पिता पुत्र के साथ अच्छा सम्बन्ध नहीं बनाये रखना चाहता क्योंकि माता-पिता के वैवाहिक विवाद में पुत्र ने माँ का साथ दिया था। इसलिए पिता बदले की भावना से अब पुत्र के विरुद्ध निरर्थक मुकदमेंबाजी कर रहा है। याचिकाकर्ता पुत्र ने कहा कि जब उसकी शिक्षा पर पिता ने धन खर्च किया था उस समय वह लगभग 18 वर्ष का था। शिक्षा पूरी करने के बाद उसकी कमाई भी प्रारम्भ हो गई और अपनी छोटी बहन को अमेरिका में शिक्षा दिलाने का सारा खर्च भी वह स्वयं करता रहा है। वह अब भी पिता के सभी दायित्व निभाने के लिए तैयार है।
दूसरी तरफ पिता की तरफ से केवल एक ही तर्क प्रस्तुत किया जाता रहा कि इस सारे मामले को भावनात्मक दृष्टिकोण से नहीं अपितु लेन-देन की दृष्टि से देखा जाना चाहिए। विशेष रूप से पिता एक ऐसे पत्र का सहारा लेता रहा जिसमें पुत्र ने यह शिक्षा खर्च की राशि वापिस देना स्वीकार किया था।
मुम्बई उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मृदुला भाटकर ने अपने निर्णय में कहा कि यह एक दुर्भाग्यपूर्ण मुकदमेंबाजी है जिसमें सभी तथ्य दोनों पक्षों द्वारा स्वीकार किये जा रहे हैं। पिता ने पुत्र की शिक्षा पर लाखों रुपये खर्च किये हैं और पुत्र ने अपने एक पत्र के द्वारा इस सारी राशि का भुगतान करने की बात को भी स्वीकार किया है। परन्तु कानूनी निर्णय के लिए केवल दण्ड संहिता की धाराओं की भाषा को ही दृष्टि में नहीं रखा जाता अपितु धोखाधड़ी की नियत को सिद्ध करना भी आवश्यक होता है। जब पिता अपने बच्चों की शिक्षा पर कुछ धन खर्च करता है तो बच्चे की नियत में धोखाधड़ी जैसे अपराध को सिद्ध करना सम्भव नहीं है। पिता द्वारा बच्चों पर किया गया खर्च उसकी जिम्मेदारी है और बच्चों के द्वारा अपने माता-पिता के प्रति सदैव कृतज्ञता का भाव रखना भी उनकी नैतिक जिम्मेदारी है। इन दोनों जिम्मेदारियों को कानूनी विवाद के रूप में नहीं देखा जा सकता। ऐसे लेन-देन प्रेम, मोह तथा एक-दूसरे की देखभाल से परिपूर्ण होते हैं। इस बीच मुकदमें की कार्यवाही के दौरान पुत्र ने स्वयं ही न्यायालय के समक्ष कहा कि वह 15 लाख रुपये तीन किश्तों में अपने पिता को देने के लिए तैयार है। अदालत ने उसके इस प्रस्ताव को भी पिता के प्रति सम्मान की तरह ही स्वीकार किया।
अदालत के निर्णय में एक बात स्पष्ट कर दी गई है कि अदालतों में प्रस्तुत होने वाले मुकदमें समाज की संस्कृति, परिपक्वता और विवादों का दर्पण होते हैं। प्रत्येक मुकदमें में यह झलक देखी जा सकती है कि समाज में किस-किस तरह के विवाद पनप रहे हैं। यह वर्तमान मुकदमा समाज की सबसे नीच दशा का प्रमाण देता है जिसमें दैविक सम्बन्धों को भी कानूनी सम्बन्ध बनाकर चुनौती के दायरे में लाकर खड़ा कर दिया जाता है। जब परिवारों के अन्दर बने हुए दैविक सम्बन्ध ही इस प्रकार एक-दूसरे को चुनौती देते रहेंगे तो परिवार के बाहर समाज में मानवीय सम्बन्धों की तो कल्पना ही निरर्थक सिद्ध होगी।
आज यदि एक पिता ने अपने पुत्र से शिक्षा खर्च वापिस मांगने को कानूनी विवाद बनाने का प्रयास किया है तो कल को भोजन, कपड़े और आवास जैसी आवश्यकताओं पर खर्च राशि का दावा करने वाले पिता भी पैदा हो सकते हैं। सारी सीमाओं को पार करते हुए कोई कलियुगी पिता अपने बच्चों से उन्हें जन्म देने के बदले भी मुआवजे की माँग करता हुआ दिखाई दे सकता है। पिता कलियुगी तभी बनता है जब परिवार में किसी भी कारण से स्वर्ग के स्थान पर नरक का वातावरण बन जाये। इसलिए परिवार के प्रत्येक सदस्य को अपने-अपने दायित्व निभाने के लिए कभी भी किसी प्रकार की लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, नहीं तो आज जैसे एक पिता ने अपना कलियुगी रूप दिखाया उसी तरह कल को माताएँ और बच्चे भी इस कलियुग की गति में एक-दूसरे से आगे निकलने का प्रयास करते हुए दिखाई देंगे। परिवारों के स्वर्ग को कलियुग की दुर्गन्ध से बचाने का एक ही उपाय है परिवार का हर सदस्य उदार हृदय से अपने-अपने दायित्वों का निर्वहन करे। मुम्बई उच्च न्यायालय ने ठीक ही कहा है कि पारिवारिक सम्बन्धों की नींव प्रेम, मोह और एक-दूसरे की देखभाल जैसे दायित्वों पर टिकी होती है। अदालत ने इस निर्णय के द्वारा सारे समाज को यह चेतावनी भी दे डाली है कि पारिवारिक दायित्व निभाने के बाद उनकी वसूली अदालतों का विषय नहीं बन सकते।

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