संपादकीय

भारतीय लोकतंत्र को अपराधमुक्त बनाने का अवसर

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

भारत को सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। क्या इस बड़े लोकतंत्र की यही पहचान है कि यहाँ प्रत्येक विधानसभा और केन्द्र की संसद के लिए नियमित रूप से हर पांच वर्ष के बाद निर्वाचन सम्भव हो पाते हैं, कभी कोई तानाशाही शासन भारत की धरती पर अपने पैर नहीं पसार सका? परन्तु इस सबसे बड़े लोकतंत्र का कितना बड़ा मजाक उस वक्त बनता है जब जनता के सामने निर्वाचन प्रक्रिया को एक ऐसे मंहगे कार्यक्रम के रूप में प्रस्तुत कर दिया जाता है जिसमें भाग लेने के लिए कोई बड़े से बड़ा समाजसेवी, बुद्धिजीवी या दूरदृष्टि का धनी व्यक्ति सोच भी नहीं सकता जब तक वह या तो किसी बड़े राजनीतिक दल की कृपा का पात्र न बन जाये जो उसे अपने चुनाव चिन्ह का सहारा भी दे और चुनाव लड़ने के लिए खुली आर्थिक सहायता भी दे। भारत का लोकतंत्र आकार में चाहे कितना भी बड़ा हो परन्तु नैतिकता की दृष्टि से एक बहुत बड़ा छलावा सिद्ध हो चुका है। आज यदि लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए 5 से 10 करोड़ रुपये का खर्च होता है तो एक सरल नेता के लिए इतनी बड़ी राशि का प्रबन्ध करना अत्यन्त कठिन कार्य है। यदि किसी प्रकार से यह प्रबन्ध हो भी जाता है तो जीतने पर उसके लिए सबसे पहला लक्ष्य होगा सत्ता में बैठकर या विपक्ष में रहकर किसी भी प्रकार से इतने बड़े निवेश को वापिस निकालना। इतना ही नहीं अपितु आगामी निर्वाचन के लिए भी इससे कुछ अधिक राशि की पहले से बचत करना। स्वाभाविक है कि कोई भी व्यक्ति अपनी खून-पसीने की कमाई को ऐसे कार्यों में लगाने के लिए सहमत नहीं होगा। इसलिए भारत की निर्वाचन पद्धति केवल और केवल ऐसे लोगों के लिए सीमित रह गई है जो भ्रष्टाचारी तरीकों से धन कमाते रहे हैं और उस धन का निवेश अब निर्वाचन प्रक्रिया में करने के बाद यह आशा लगाते हैं कि यदि सत्ता के सहभागी बन गये तो इससे कहीं अधिक धन कमाने के अवसर और प्राप्त हो सकते हैं। इस प्रकार हमारी निर्वाचन प्रक्रिया भ्रष्टाचारी धन का निवेश करने का एक सरल माध्यम बन चुकी है। धन से सत्ता और सत्ता से धन नामक दो धुरियों पर ही घूमता दिखाई दे रहा है भारतीय लोकतंत्र का निर्वाचन चक्र।
धन और सत्ता के बीच एक ही सम्बन्ध होता है – भ्रष्टाचारी तौर-तरीकों का सम्बन्ध। वैसे तो भ्रष्टाचार भी अपने आपमें एक अपराध है, परन्तु सत्ता की ताकत अपनी भ्रष्टाचारी हरकतों को पूर्ण अपराध की तरह परिभाषित ही नहीं होने देती। न्यायालयों में यदा-कदा ही राजनीतिक भ्रष्टाचार के मुकदमें सफल होते हुए दिखाई देंगे। काॅमनवेल्थ खेल हों, या 2-जी स्पेक्ट्रम के आबंटन में कितना बड़ा भ्रष्टाचार हुआ, परन्तु न्यायालयों से आज तक कोई निष्कर्ष नहीं निकला।
राजनीतिक भ्रष्टाचार के अतिरिक्त सामान्य अपराधियों की भी भारत के लोकतंत्र में एक बहुत बड़ी हिस्सेदारी है। पिछले कुछ दशकों से भारत के सभी राज्यों की विधानसभाओं से लेकर संसद तक 30 से 40 प्रतिशत अपराधी निर्वाचित सदस्य के रूप में भारतीय लोकतंत्र को चलाते हुए देखे जा सकते हैं। ये अपराधी केवल सत्ता के बल पर भ्रष्टाचार के ही दोषी नहीं हैं अपितु इन पर मारपीट, धमकाना, हत्या, बलात्कार, भूमियों पर अवैध कब्जे से लेकर डकैती तक के मुकदमें चल रहे होते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय में अनेकों ऐसे मुकदमें सुनवाई के लिए प्रस्तुत हुए जिनमें अपराधी तत्त्वों को निर्वाचन लड़ने के अयोग्य ठहराने की प्रार्थना की गई। इससे पहले एक समय ऐसा था जब जनता को इस विषय में कोई जानकारी ही नहीं होती थी कि उनके सामने निर्वाचन के लिए खड़ा व्यक्ति कौन-कौन से अपराधों में संलिप्त है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष 2002 में दिये गये निर्णय के बाद श्री अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने जनप्रतिनिधित्व कानून में यह प्रावधान जोड़ा था कि निर्वाचन में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रार्थना पत्र में उन सभी आपराधिक मुकदमों का उल्लेख करना होगा जो उसके विरुद्ध भारत की अदालतों में चल रहे हैं।
राष्ट्रीय स्तर पर एक बार फिर लोकसभा के सदस्यों की निर्वाचन प्रक्रिया ने समस्त भारतवासियों को राजनीतिक निर्णय की प्रक्रिया से जोड़ दिया है। आज भारत के प्रत्येक मतदाता को अपने विवेक का प्रयोग करना चाहिए। विवेक का अर्थ है सामूहिक रूप से देश के लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा? विवेक के प्रयोग में दो ही मुख्य बाधाएँ होती हैं – प्रथम, अपना स्वार्थ या लालच और द्वितीय, बुद्धिहीनता। भारत के सभी नेता और उनके साथ जुड़े कार्यकर्ता तथा उनका अपना एक घोषित या अघोषित वोटबैंक तो निश्चित रूप से स्वार्थ और लालच के कारण अपने पूर्व निर्धारित मत पर ही दृढ़ रहते हैं। इतना ही नहीं राजनेता और उनके कार्यकर्ता सामान्य मतदाताओं को भी धन, शराब, कपड़ों तथा कई अन्य प्रकार की वस्तुओं का लालच देकर अपने मत के साथ जोड़ने का प्रयास करते हैं। इन सभी परिस्थितियों में मतदाता विवेक कार्य नहीं कर पाता। दूसरी तरफ बुद्धिहीनता जो मुख्यतः शिक्षा और जागृति के अभाव में पैदा होती है और मतदाता को अपने मत का सही प्रयोग करने की योग्यता ही नहीं दे पाती। ऐसे मतदाता भी प्रथम श्रेणी के अविवेकी मतदाताओं की तरह लालच, जातिवाद या प्रचार के प्रवाह के साथ बहने लगते हैं। इन्हीं कारणों से आज भारत की राजनीति भ्रष्टाचारी और अपराधी तत्त्वों से मुक्त नहीं हो पा रही है जिसके परिणामस्वरूप सारे समाज में हर प्रकार के अपराध भी लगातार बढ़ते जा रहे हैं। इसलिए भारत के मतदाताओं को पूर्ण जागरूकता का परिचय देकर ऐसे लोगों को चुनना चाहिए जो एक तरफ उनकी स्थानीय समस्याओं पर संवेदनशील रहें और दूसरी तरफ सारे राष्ट्र के स्तर पर स्थिरता और मजबूती में सहायक सिद्ध हो सकें। केन्द्र सरकार स्थिरता और मजबूती भारत की अन्तर्राष्ट्रीय प्रगति के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है।

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