संपादकीय

महिलाओं को कानून से पहले आरक्षण देने का दांव

-अलका आर्य
आम चुनावों की तारीखें घोषित होते ही लोकसभा और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का सवाल एक बार फिर सामने आ गया है। हालांकि इसका श्रेय काफी हद तक ओडिशा के मुख्यमंत्री और बीजेडी नेता नवीन पटनायक को जाता है, जिन्होंने ऐलान कर दिया कि उनकी पार्टी इस बार 33 फीसदी टिकट महिलाओं के लिए आरक्षित करेगी। ऐलान के मुताबिक, बीजेडी ओडिशा की कुल 21 लोकसभा सीटों में से 7 पर महिलाओं को टिकट देगी। नवीन पटनायक ने अन्य राजनीतिक दलों से भी अपील की कि वे एक तिहाई टिकट महिलाओं को दें। हालांकि उन्होंने विधानसभा चुनावों के लिए ऐसी कोई घोषणा नहीं की, जो आम चुनाव के साथ ही होने हैं और यह उनके विरोधियों को महिला सशक्तिकरण के लिए की गई उनकी इस पहल पर सवाल उठाने का मौका भी दे रहा है।
इसके बावजूद इतना साफ है कि नवीन पटनायक की इस पहल ने अन्य राजनीतिक दलों को थोड़ा दबाव में ला दिया। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अगले ही दिन बंगाल की सभी 42 सीटों पर तृणमूल कांग्रेस के उम्मीदवारों की घोषणा कर दी और 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिया। इसके कुछ ही समय बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने चेन्नै में कहा कि केंद्र में यूपीए की सरकार बनने पर महिला आरक्षण विधेयक पारित किया जाएगा।
दरअसल, कोई भी राजनीतिक दल महिला अधिकारों का कितना ही बड़ा पैरवीकार क्यों ना हो, चुनाव में टिकट बंटवारे के वक्त उम्मीदवारों के जीतने की प्रबल संभावना पर ही फोकस करता है। लिहाजा महिलाओं को बतौर उम्मीदवार बहुत कम तरजीह दी जाती है। साल 1996 से 2014 तक हुए 6 लोकसभा चुनावों के आंकड़े स्थिति को स्पष्ट कर देते हैं। पांच शीर्ष राजनीतिक दलों- बीजेपी, कांग्रेस, सीपीएम, सीपीआई और बीएसपी ने इन 6 लोकसभा चुनावों में कुल 9,174 उम्मीदवार मैदान में उतारे, जिनमें मात्र 726 यानी 8 प्रतिशत ही महिलाएं थीं। कांग्रेस ने सबसे अधिक करीब 10 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिए और बहुजन समाज पार्टी ने सबसे कम 5 प्रतिशत। महिला उम्मीदवारों को खड़ा करने में बीएसपी का यह खराब प्रदर्शन महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण को लेकर पार्टी प्रमुख मायावती की सोच पर भी सवालिया निशान लगाता है। कांग्रेस ने 2014 लोकसभा चुनाव में महिलाओं को 13 प्रतिशत टिकट दिए थे। बीजेपी के मामले में यह आंकड़ा कभी भी 10 प्रतिशत से ऊपर नहीं गया है।
आंकड़े यह भी खुलासा करते हैं कि पश्चिम बंगाल में महिला उम्मीदवारों के जीतने की संभावना देश में सबसे अधिक रहती है। पिछले 6 लोकसभा चुनाव में वहां से 182 महिलाओं ने चुनाव लड़ा और इनमें 37 महिलाओं के हिस्से जीत आई। यानी सफलता की दर हुई 20 प्रतिशत। संभवतः इन्हीं आंकड़ों के मद्देनजर ममता बनर्जी ने इस बार 40 प्रतिशत टिकट महिलाओं को दिए। 2014 में उन्होंने 35 प्रतिशत महिला प्रत्याशी खड़े किए थे।
बहरहाल, ओडिशा के मुख्यमंत्री ने जो पहल आरक्षण के ऐलान के जरिए की है, उसने दूसरे दलों को इस मसले पर पसोपेश में डाल दिया है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीते कई सालों से महिला मतदाताओं को समाज कल्याण की नीतियों के जरिए अपनी ओर आकर्षित करने में सफलता हासिल की और राजनीति में अपनी एक अलग राजनेता की छवि भी गढ़ी। लेकिन इस बार वह अभी तक चुप हैं। यह सवाल सबके मन में है कि क्या नीतीश कुमार आने वाले दिनों में इस मसले पर कोई बड़ा ऐलान करेंगे। राजनीति में परसेप्शन बहुत अहम भूमिका निभाती है और यहां ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को अभी तक बढ़त हासिल है। लेकिन उनका यह ऐलान भी सचमुच महिला सशक्तिकरण की दिशा में बढ़ा हुआ कदम साबित होगा या परिवारवाद के जाल में फंस कर रह जाएगा? अभी यह देखना बाकी है कि जिन पुरुषों के टिकट किसी आरोप या विवाद के चलते काटने पड़ रहे हैं, कहीं पार्टी उन्हीं के परिवारों की महिलाओं को लोकसभा उम्मीदवारी तो नहीं थमा देगी?

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