मनोरंजन

फिल्म समीक्षा

फिल्म का नाम – हल्का
फिल्म के कलाकार: रणवीर शौरी, कुमुद मिश्रा और पाओली डैम
निर्देशक: नीला माधब पांडा
रेटिंग: 2.5/5

आजकल प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चलाया गया स्वच्छ भारत अभियान काफी ज़ोरों पर है, शायद इसलिए बाॅलीवुड भी इस अभियान से काफी प्रभावित है और समाज के ऐसे मुद्दों पर फिल्में बना रहा है जिसके बारे में हम सभी जानते हैं लेकिन ऐसे मुद्दों से प्रभावित नहीं होते हैं। निर्देशक नीला माधब पांडा की फिल्म ‘हल्का’ एक ऐसी फिल्म है, जो यह बताता है कि कैसे इतने बड़े महानगर में टॉयलेट भी किसी के लिए इतनी बड़ी टेंशन हो सकता है। इसे मांट्रियल फिल्म फेस्टीवल में दुनियांभर से चुनकर आई बच्चों की फिल्मों में दिखाया गया और इसे अवॉर्ड भी मिला है।

फिल्म की कहानी : इस फिल्म में रणवीर शौरी के अलावा कुमुद मिश्रा, पॉली जैसे जाने पहचाने चेहरे हैं तो कहानी का कंेद्रीय किरदार पिचकू (तथास्तु) है, जो अपने आत्म सम्मान के चलते कभी भी खुले में शौच जाना पसंद नहीं करता है। उसका पिता (रणवीर शौरी) रिक्शा चलाता है, मां (पाओली) एक अगरबत्ती फैक्ट्री में काम करती है। पिचकू का एक सपना है और एक उसका पिता है जो चाहता है कि रिक्शा बेचकर ऑटो ले लूं तो पिचकू सोचता है कब तक वो अपने घर में या पटरी के पार वाली फैक्ट्री में छुप-छुप कर हल्का होता रहेगा, एक टॉयलेट बनवा लूं वो और उसका दोस्त गोपी कचरा बीन-बीन कर पैसे इकट्ठा भी करते हैं, उसकी भी यही समस्या है और तम्बू में यूनानी दवाएं बेचने वाला हकीम (कुमुद मिश्रा) भी इसी उलझन का शिकार हैं। तीनों अपने सपने को पूरा करने में जुट जाते हैं, जबकि पिचकू का पिता सरकार से मिला टॉयलेट का पैसा ऑटो में लगा देता है, तो पुलिस उसे गिरफ्तार करने आ जाती है। ऐसे में पिचकू कैसे अचानक एक टॉयलेट प्रकट करके पिता को गिरफ्तारी से बचाता है, उसको काफी भावनात्मक तरीके से फिल्माया गया है।
जैसे टॉयलेट एक प्रेम कथा में गांव की समस्या को काफी चुटीले अंदाज में दिखाया जाता है ठीक वैसे ही शहरी झुग्गी-झोपड़ी बस्ती में पिचकू की समस्या को चुटीले और भावनात्मक दोनों तरीके से फिल्माया गया है। जिसे रणवीर, कुमुद और दोनों बच्चों की एक्टिंग ने और भी बेहतर बना दिया है।
शिव नाडार फाउंडेशन द्वारा इस फिल्म को बनाया गया है, ऐसे में उनके स्कूल में कुछ सीन फिल्माए गए हैं। रणवीर शौरी, कुमद मिश्रा आदि के पहनावे और लुक पर काफी काम किया गया जो दिखता भी है। शूटिंग के लिए दिल्ली में प्रगति मैदान के पास की झुग्गी-झोपड़ी को लिया गया और इंद्रप्रस्थ मेट्रो स्टेशन पर एक सैट लगाया गया था।

फिल्म क्यों देखें : यह फिल्म समाज के एक गंभीर मुद्दे को लेकर बनाई गई है। यह एक ड्रामा फिल्म है, इसे एक बार देखने में कोई बुराई नहीं है।

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