राजनीतिसंपादकीय

वाचाल राजनीति में मानहानि

-विमल वधावन योगाचार्य,
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। किसी व्यक्ति का सामाजिक ताना-बाना छोटे स्तर का होता है तो किसी का बहुत विशाल। कोई व्यक्तित्व अपने परिवार और गली-मोहल्ले तक सीमित होता है तो कोई पूरे देश की नजरों में होता है। सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक क्षेत्रों में कार्य करने वाले लोगों के व्यक्तित्व के साथ अनेकों अनुयायी भी जुड़ जाते हैं। इनमें से कुछ अनुयायियों में से सामान्य तो कुछ अनुयायियों में बड़ी भारी श्रद्धा होती है। इसलिए कानून के अनुसार किसी दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध निराधार आरोप लगाना मानहानि समझा जाता है। भारत में मानहानि करने वाले के विरुद्ध मुआवजे का दीवानी मुकदमा दायर किया जा सकता है और मानहानि करने को एक अपराध मानते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा-499 से 502 में इसे एक दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है जिसके सिद्ध होने पर दो वर्ष तक के कारावास की सजा हो सकती है।
कुछ वर्ष पूर्व सुब्रह्मण्यम स्वामी ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका के माध्यम से मानहानि को अपराध की श्रेणी से बाहर करने की माँग की। इस याचिका में अरविन्द केजरीवाल, राहुल गाँधी भी बाद में पक्ष बन गये। इन तीनों नेताओं का मत समान था। उसका कारण स्पष्ट है कि इन तीनों नेताओं पर देश की अलग-अलग अदालतों में मानहानि मुकदमें चल रहे थे। सर्वोच्च न्यायालय ने इस प्रार्थना को अस्वीकार करते हुए कहा कि मतभेद या निन्दा तो स्वीकार की जा सकती है परन्तु हमले की तरह मानहानि को स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचार प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता है। परन्तु कोई भी स्वतंत्रता पूरी और अनियंत्रित नहीं हो सकती। प्रत्येक स्वतंत्रता पर सामान्य नियंत्रण आवश्यक होता है। जिस प्रकार एक व्यक्ति को बोलने की स्वतंत्रता है तो दूसरे व्यक्ति को अपना सम्मान बनाये रखने की स्वतंत्रता भी मूल अधिकार की तरह ही प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय ने निचली अदालतों को पूरी तरह से सावधान रहने का संकेत देते हुए कहा कि मानहानि के मुकदमों में बारीकी से प्रत्येक पहलू की जाँच की जानी चाहिए।
भारतीय राजनीति में लोकतंत्र का स्वरूप एक वाचाल की तरह बन चुका है। जहाँ बड़ी से बड़ी बातें करने वाले केवल बातों की कमाई करना जानते हैं। जनता से बड़े-बड़े वायदे करके सत्ता प्राप्त करना और बाद में उन वायदों को एक बेशर्म व्यक्ति की तरह भूल जाना, भारतीय राजनीतिज्ञों का लक्षण बन चुका है। भारत की राजनीति में पकड़ बना चुके राजनीतिक दलों में आज एक भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं है जो भ्रष्टाचार या गैर-कानूनी तरीकों से धन इकट्ठा न करता हो। इसके अतिरिक्त वाचालता उस समय और भी अधिक संघर्ष और विवाद का विषय बन जाती है जब ये बेलगाम राजनीतिज्ञ अपनी बेलगाम जबान से विरोधियों पर निराधार आरोप लगा-लगाकर स्वयं को ईमानदार सिद्ध करने लग जाते हैं। पहली बात तो यह है कि निराधार आरोपों का अर्थ यह नहीं है कि आरोप झूठे हैं, बल्कि कानून की नजरों में निराधार आरोप का अभिप्राय ऐसे आरोप से होता है जिसे सिद्ध करने के लिए आपके पास पर्याप्त सबूत न हों। दूसरी बात यह है कि किसी अन्य व्यक्ति पर भ्रष्टाचार का आरोप सिद्ध करने के बावजूद भी आरोप लगाने वाला ईमानदार कैसे सिद्ध हो जाता है। परन्तु हमारे देश की जनता लोकतंत्र का प्रयोग अच्छी तरह करना नहीं जानती और आरोप लगाने वाले को एक अच्छा विकल्प मानकर उस पर विश्वास कर लेती है और उसे सत्ता सौंप देती है।
सुब्रह्मण्यम स्वामी भाजपा के एक प्रसिद्ध और अनुभवी नेता हैं। पेशे से अधिवक्ता और पूर्व कानून मंत्री होने के नाते वे किसी पर आरोप लगाने से पहले अपने स्रोतों से बाकायदा प्रमाण एकत्र करते हैं। अरविन्द केजरीवाल निःसंदेह एक भ्रष्टाचार विरोधी की छवि लेकर राजनीति में उतरे। परन्तु विरोधी दलों के नेताओं पर आरोप लगाने से पूर्व उन्होंने समझदारी से काम नहीं लिया। अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा नितिन गडकरी को भारत के सबसे भ्रष्ट लोगों की सूची में शामिल करते हुए जब प्रेस कांफ्रेन्स की तो नितिन गडकरी ने मानहानि का मुकदमा दिल्ली की अदालत में प्रस्तुत कर दिया। इसी प्रकार अरविन्द केजरीवाल ने भाजपा सांसद रमेश विधूड़ी, दिल्ली क्रिकेट संघ के चेतन चैहान, अरूण जेटली, अकाली दल के मजीठिया जैसे नेताओं के विरुद्ध भी बिना प्रमाणों के आरोपों की झड़ियाँ लगा दी। राहुल गाँधी ने अपने जन्म से पूर्व हुई महात्मा गाँधी की हत्या का दोषी संघ को ठहराते हुए बयान दे डाला।
जब किसी व्यक्ति को किसी अपराधिक मुकदमें में सजा हो जाती है तो वह निर्वाचन में भाग नहीं ले सकता। परन्तु भारतीय सर्वोच्च न्यायालय अब एक ऐसी याचिका पर सुनवाई कर रहा है जिसमें यह प्रार्थना की गई है कि सजा प्राप्त व्यक्ति किसी राजनीतिक दल के गठन करने या किसी दल में पदाधिकारी बनने के भी अयोग्य ठहरा दिया जाये। इस याचिका की सुनवाई शीघ्रता के साथ चल रही है और जल्दी ही निर्णय आने की सम्भावना है। यदि सर्वोच्च न्यायालय ने यह प्रार्थना स्वीकार कर ली तो सजा प्राप्त व्यक्ति निर्वाचन लड़ने के साथ-साथ अपने राजनीतिक संगठन से भी दूर हो जायेंगे। राजनीतिज्ञों पर चल रहे मुकदमों के निर्णय शीघ्रता के साथ सम्पन्न करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय पहले ही फास्ट ट्रैक अदालतों के गठन की बात कह चुका है। केन्द्र सरकार भी सिद्धान्त रूप से अब फास्ट ट्रैक अदातलों के गठन पर काम कर रही है। दिल्ली में दो फास्ट ट्रैक अदातलों का गठन किया भी जा चुका है। अरविन्द केजरीवाल पर दिल्ली की अदालतों में ही अनेकों मानहानि मुकदमें चल रहे हैं। आने वाले एक वर्ष में यदि किसी एक मुकदमें में भी सजा हो गई तो अरविन्द केजरीवाल स्वयं भी निर्वाचन लड़ने से वंचित हो जायेंगे और उनकी पार्टी भी बिखर जायेगी। इस डर के कारण अब अरविन्द केजरीवाल ने अपने विरुद्ध चलने वाले मानहानि मुकदमों में माफी मांगने का अभियान छेड़ दिया है। नितिन गडकरी से माफी मांगकर मुकदमा समाप्त करवाया, कपिल सिब्बल और उनके पुत्र से माफी मांगकर एक अन्य मुकदमा समाप्त करवाया, अकाली दल के मजीठिया से भी माफी मांगकर एक और मुकदमा समाप्त करवा लिया है। इस माफीनामा अभियान में श्री अरूण जेटली ने अरविन्द केजरीवाल के माफीनामे को ठुकरा दिया है।
सर्वोच्च न्यायालय यदि सजा प्राप्त राजनेताओं पर प्रतिबन्ध का दायरा बढ़ाता है तो इससे भ्रष्टाचार सीधे तौर पर समाप्त हो या न हो परन्तु इतना जरूर होगा कि वाचाल नेता अपनी जबान पर लगाम लगाने के लिए विवश अवश्य होंगे। वैसे भारत की राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने की दिशा में भी सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय मील का पत्थर साबित होगा।

 

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