संपादकीय

अपनी राजनीतिक जमीन बचाने में लगी है सपा बसपा

– रमेश सर्राफ धमोरा
स्वतंत्र पत्रकार
हाल ही में उत्तरप्रदेश में सम्पन्न हुये राज्यसभा चुनाव में बसपा प्रत्याशी भीमराव अम्बेडकर की हार के बाद बसपा सुप्रिमो मायावती द्वारा प्रेस कांफ्रेन्स कर बयान दिया कि अपने प्रत्याशी की हार के उपरान्त भी उनका समाजवादी पार्टी से बना गठजोड़ आगे भी जारी रहेगा। हालांकि मायावती ने अपनी पार्टी के कोर्डिनेटरों की मिटिंग में यह जरूर कहा कि आगे के उपचुनावो में बसपा किसी पार्टी के पक्ष में सक्रिय नहीं रहेगी। मायावती ने कहा कि अब उनकी पार्टी का पूरा फोकस 2019 के लोकसभा चुनावो पर रहेगा। उन्होने पार्टी नेताओं को बिना इजाजत बसपा नेताओं से मेलजोल ना बढ़ाने की भी हिदायत दी। मायावती के इस बयान से सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने राहत की सांस जरूर ली होगी, क्योंकि मायावती ने आगामी उपचुनावों में अपनी पार्टी के प्रत्याशी नहीं उतारने का ईरादा जता दिया। अखिलेश ने उसी समय अपने ट्वीटर से निर्दलिय विधायक व मायावती के कट्टर दुश्मन राजा भैया का आभार प्रकट करने वाला ट्वीट भी हटा दिया जो उन्होने जया बच्चन को राज्यसभा चुनाव में वोट देने के बदले राजा भैया को धन्यवाद स्वरूप किया था।
सपा बसपा गठबंधन का फिलहाल सपा को ही एकतरफा लाभ होता दिख रहा है। इस गठबंधन से फौरी तौर पर बसपा को कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा है। उत्तरप्रदेश में राज्यसभा चुनाव हो चुके हैं जिसमें सपा की जया बच्चन तो जीत गयी मगर बसपा प्रत्याशी हार गया था। गठबंधन बनने से हाल ही में सम्पन्न हुये लोकसभा उपचुनाव में हाईप्रोफाइल गोरखपुर व फूलपुर सीट सपा जीत गयी। इस तरह सपा के खाते में दो लोकसभा व एक राज्यसभा सीट आयी वहीं बसपा के हाथ खाली ही रह गया। बसपा को आगे भी फिलहाल कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा है। कैराना लोकसभा व नूरपुर विधानसभा सीट के उपचुनाव में भी बसपा अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारेगी ऐसे में बसपा का साथ फिर एक बार सपा को ही मिलना तय माना जा रहा है।
राज्यसभा चुनाव में अपने प्रत्याशी की हार का मायावती को काफी मलाल है मगर वर्तमान हालात में उनके पास अपनी हार को पचा कर चुप रहने के अलावा और कोई चारा भी नहीं बचा है। सपा को अपना दुश्मन नम्बर एक मानने वाली बसपा सुप्रिमो मायावती को अखिलेश यादव के साथ गठबंधन करना राजनीति मजबूरी बन गया था। मायावती को यह बात अच्छी तरह से पता है कि गत 6 वर्षों से वह सत्ता से बाहर है। उनके कई बड़े नेता इस दौरान पार्टी छोडकर दूसरी पार्टियों में शामिल हो चुके हैं। सत्ता से बाहर होने के कारण मायावती का मतदाता भी उनकी पार्टी से दूर होने लगा है। ऐसे में उन्हे अपने खिसकते जनाधार को बचाने की चिन्ता सताने लगी थी। सपा से गठबंधन करके मायावती ने अपने मतदाताओं को इस बात की दिलासा दिलाने का प्रयास किया है कि सपा से गठबंधन करके आगे के चुनावों में वह भाजपा को हरा देगी।
2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं जात सकी थी। जबकि उसे एक करोड़ 59 लाख 14 हजार 194 वोट मिले थे जो कुल मतदान का 19.77 प्रतिशत था। 2014 में उत्तरप्रदेश में सरकार चला रही समाजवादी पार्टी को एक करोड़ 79 लाख 88 हजार 967 वोट मिले जो कुल मतदान का 22.35 प्रतिशत था। हांलाकि उस वक्त सपा को बसपा से मात्र 2.58 प्रतिशत मत ही अधिक मिले थे मगर सपा पांच लोकसभा सीटे जीतने में कामयाब हो गयी थी।
2017 के राज्य विधानसभा चुनाव में बसपा को सपा से अधिक वोट मिलने के उपरान्त भी सीटे सपा से बहुत कम मिली। सपा ने जहां एक करोड़ 89 लाख 23 हजार 689 वोट लेकर 47 सीटो के साथ कुल मतदान का 21.80 प्रतिशत वोट हासिल किया था। हालांकि सपा की सीटो में भी काफी कमी हुयी। 2012 में सपा के पास 224 सीटे थी जो इस बार के चुनाव में मात्र 47 ही रह गयी। वहीं बसपा ने एक करोड़ 92 लाख 81 हजार 352 वोट लेकर मात्र 19 सीट ही जीत पायी जबकि 2012 में उसने 80 सीटे जीती थी। गत विधानसभा चुनाव में बसपा को 22.20 प्रतिशत मत मिले जो 2012 के विधानसभा चुनाव से 3.71 प्रतिशत कम थे। 2012 की तुलना में 2017 के विधानसभा चुनाव में वोट प्रतिशत तो सपा का भी 7.35 प्रतिशत घटा था।
हाल के राज्यसभा चुनावों के बाद बसपा की बनिस्पत सपा आज भी अधिक ताकतवर नजर आती है। बसपा का लोकसभा में कोई सांसद नहीं है व राज्यसभा में भी मात्र चार सांसद ही बचे हैं। वहीं सपा के लोकसभा में सात व राज्यसभा में 13 इस तरह कुल 20 सांसद हैं। सपा के सांसद संख्याबल पर संसद में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवा सकने में सक्षम हैं। उत्तर प्रदेश में गत दिनो सम्पन्न हुये दो लोकसभा उपचुनाओं में सपा की जीत में जहां कम मतदान का होना एक बड़ा कारण रहा वहीं मायावती का सपा को साथ देने की भी प्रमुख भूमिका रही। मायावती ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी कि हर हाल में उनके बठबंधन के उम्मीदवार जीतने चाहिये। जितना प्रयास मायावती ने सपा प्रत्याशियों को जिताने के लिये किया शायद उतना प्रयास अखिलेश यादव ने राज्यसभा चुनाव में मायावती के प्रत्याशी को जिताने के लिये नहीं किया। वर्ना वो आवश्यकता से अधिक वोट जया बच्चन को नहीं दिलाते। यदि अखिलेश यादव भी मायावती की तरह गम्भीर होकर कुशल रणनीति बनाते व सभी भाजपा विरोधी दलों के विधायको को विश्वास में लेकर एकजुट करते तो बसपा का राज्यसभा उम्मीदवार भी आसानी से चुनाव जीत सकता था।
चूंकि अभी मायावती का मुख्य उद्देश्य किसी भी तरह से अपने बिखरते कुनबे को एकजुट रखना है। इसलिये मायावती अखिलेश के साथ गठबंधन बनाये रखेगी। गठबंधन करके उपचुनाव लडने से मिली जीत में मायावती के हाथ तो कुछ नही लगा। वो खुद भी इस बात से भलीभांति वाफिक है मगर मजबूरीवश उनको अभी अखिलेश के साथ की जरूरत है। मायावती को इस बात का भी पता है कि उसने तो अखिलेश के प्रत्याशियों को अपनी पार्टी के लोगों के वोट दिला दिये मगर समय आने पर अखिलेश यादव शायद ऐसा नहीं कर पाये। इसलिये मायावती ने प्रेस कांफ्रन्स में कहा भी था कि यह गठबंधन बराबर लेनदेन का बना है हम जितना देगें उतना लेगें भी।
मायावती को हर समय अपनी पार्टी के टूटने की भी चिंता सताती रहती हैं। राज्यसभा चुनाव में भी उनकी पार्टी के एक विधायक अनिल सिंह ने भाजपा के पक्ष में क्रास वोटिंग की थी। मायावती की पार्टी के कई विधायक और भी है जो सत्तारूढ़ दल से जुड़ने के चक्कर में लगे हुयें हैं। मायावती चाहती है कि सपा के सहारे वो अपनी पार्टी को एकजुट बनाये रखें व पार्टी से बगावत करने वालों पर भी नियंत्रण रख सके। हाल ही में मायावती की पार्टी का एक बड़ा नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी कांग्रेस में शामिल हो गया। सिद्दीकी ने पहले सपा में भी शामिल होने का प्रयास किया था मगर बात बनते बनते रह गयी थी। अखिलेश से मिलाप के बाद जहां बसपा को अपने विधायकों के पार्टी छोड़कर सपा में जाने का खतरा समाप्त हो गया वहीं इस गठबंधन की आड़ में वो कांग्रेस पर भी नियंत्रण रख पायेगी। उपचुनावो में सपा बसपा गठबंधन की जीत से चकित कांग्रेस इस बात का पूरा प्रयास कर रही है कि किसी तरह वह भी इस गठबंधन का हिस्सा बने। ऐसे में बसपा छोडने वाले नेताओं को शामिल करने से कांग्रेस परहेज करेगी।
माना जा रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव तक सपा बसपा का गठबंधन ऐसे ही चलता रहेगा। गठबंधन के नाम पर दोनो ही दल अन्दरखाने अपने वोट बैंक को एकजुट बनाये रखने का प्रयास कर रहें हैं। राज्यसभा चुनाव में जिस तरह से दोना ही पार्टियों के विधायको ने क्रास वोटिंग की उससे दोनो ही दलो को अन्दरूनी खतरे का अहसास हो गया है। फिलहाल तो यही प्रतीत हो रहा है कि दोनो ही पार्टियों के नेताओं ने एक बार अपनी पुरानी कड़वाहट को भुलाकर एकजुटता से आगे बढने का फैसला कर लिया हैं। अखिलेश मायावती का साथ कब तक चलेगा, इस गठबंधन की उम्र कितनी लम्बी होगी यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। क्योंकि मायावती की फितरत से हर कोई वाकिफ है कि वो कब रंग बदल ले कोई नहीं जानता है।

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