संपादकीय

किसान को भी जवान के बराबर मानते थे शास्त्री जी

11 जनवरी पुण्य तिथि पर विशेष

लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर रेलवे टाउन मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। उनकी मां अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर जाकर बस गईं। उस छोटे.से शहर में लाल बहादुर की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही। उन्हें वाराणसी में चाचा के साथ रहने के लिए भेज दिया गया था ताकि वे उच्च विद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर सकें। घर पर सब उन्हें नन्हे के नाम से पुकारते थे।
बड़े होने के साथ ही लाल बहादुर शास्त्री विदेशी दासता से आजादी के लिए देश के संघर्ष में अधिक रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए। लाल बहादुर शास्त्री ने बचपन में ही राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए अपने देशवासियों से आह्वान किया था, इस समय लाल बहादुर शास्त्री केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। उनके इस निर्णय ने उनकी मां की उम्मीदें तोड़ दीं। उनके परिवार ने उनके इस निर्णय को गलत बताते हुए उन्हें रोकने की बहुत कोशिश की लेकिन वे इसमें असफल रहे।
लाल बहादुर वाराणसी के काशी विद्या पीठ में शामिल हुए। यहां वे महान विद्वानों एवं देश के राष्ट्रवादियों के प्रभाव में आए। विद्या पीठ द्वारा उन्हें प्रदत्त स्नातक की डिग्री का नाम ‘शास्त्री’ था लेकिन लोगों में यह उनके नाम के साथ जुड़ गया। जीवन पर्यन्त वो शास्त्री के नाम से ही जाने जाते रहे। 1927 में मिर्जापुर की ललिता देवी से उनकी शादी हो गई। उनकी शादी सभी तरह से पारम्परिक थी। दहेज के नाम पर एक चरखा एवं हाथ से बुने हुए कुछ मीटर कपड़े से ज्यादा कुछ और नहीं चाहते थे।
संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी सच्चे गान्धीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों भी जाना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलनए 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे।
शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टंडनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया। इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढ़ी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरन्तर बढ़ता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियां चढते गये।
भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें गृह एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला बस कण्डक्टरों की नियुक्ति की थी। गृह मन्त्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ करवाया। 1951 में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वो अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया। 1952 में वो पंडित नेहरु के मंत्री मंडल में रेलमंत्री बने। 1956 में केरल राज्य के अरियालुट में एक बहुत बड़ी रेल दुर्घटना हो गयी। उस दुर्घटना में 150 लोगों की मौत हो गयी थी। इस घटना से शास्त्री को बहुत दुरूख हुआ। उन्होने रेल मंत्री होने के नाते रेल हादसे की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुये अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। 1960 में उन्हे गृह्मंत्री पद की जिम्मेदारी दी गयी। 1962 में हुये चुनाव में भी वो पुनरूलोकसभा में चुनकर आये और फिर देश के गृहमंत्री बने।
जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधान मन्त्री का पद भार ग्रहण किया। उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में अपने पहले संवाददाता सम्मेलन में ही कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनकी कार्यप्रणाली सैद्धान्तिक न होकर पूर्णतः व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप होती थी।
उनके शासनकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। युद्व के दौरान देश के तीनों सेना प्रमुखों ने उनको सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा क्या हुक्म हैघ् शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया कि आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है? शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी।ताशकन्द में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह.तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैंए उनका मत है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं हुई थी। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ दिल्ली में शान्तिवन के आगे यमुना किनारे की गयी और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। शास्त्रीजी को उनकी सादगीए देशभक्ति और ईमानदारी के लिये आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है।
निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। उस वक्त पूंजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश भारत पर आक्रमण करने का मौका ढूँढ रहे थे। प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 26 जनवरी 1965 को देश के जवानों और किसानों को अपने कर्म और निष्ठा के प्रति सुदृढ़ रहने और देश को खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। यह नारा आज भी भारतवर्ष में उसी तरह लोकप्रिय है। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त 1966 में उन्हे भारत रत्न से सम्मानित किया गया।

-रमेश सर्राफ धमोरा
(स्वतंत्र पत्रकार)

 

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