संपादकीय

न्यायाधीशों की नियुक्ति पारदर्शी क्यों न हो?

केरल के एक पत्रकार श्री ज लील ने उच्च न्यायालयों में नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों को लेकर अपने साप्ताहिक समाचार पत्र ‘मेरी कोच्चि’ में वर्ष 2014 की 5 दिसम्बर को एक लेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था – ‘भारी भ्रष्टाचार’। इस लेख में केरल उच्च न्यायालय में रिक्त पदों पर नियुक्त होने वाले न्यायाधीशों के चरित्र तथा नियुक्ति प्रक्रिया की धांधलेबाजियों को उजागर करने का प्रयास किया था। इस लेख में तीन ऐसे न्यायाधीशों की नियुक्ति पर प्रश्न खड़े किये गये जो पहले अधिवक्ता थे। एक के बारे में कहा गया कि वह अधिवक्ता वकालत करता ही नहीं। पूरे वर्ष में उस अधिवक्ता का एक भी वकालतनामा किसी अदालत के रिकाॅर्ड पर नहीं होगा। लेख में यह स्पष्ट लिखा गया कि वर्ष 2011 से लेकर 2014 के बीच इस अधिवक्ता के केवल चार मुकदमों में वकालतनामे पाये गये हैं। अत्यन्त योग्य अधिवक्ताओं को अनदेखा करके जब ऐसे अधिवक्ताओं को न्यायाधीश बना दिया जायेगा तो सामान्य जनता में न्यायपालिका का विश्वास डगमगा जायेगा। इस प्रकार योग्य लोगों के साथ न्याय नहीं होगा। इसके अतिरिक्त दो अन्य अधिवक्ताओं की न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए सिफारिश इसलिए की गई कि चयन समिति के एक न्यायाधीश की उनमें विशेष रुचि थी। इस लेख में यह भी कहा गया कि इससे पूर्व भी लेखक ने अयोग्य अधिवक्ताओं को उनके विशेष प्रभाव के कारण न्यायाधीश बनाने पर गम्भीर आरोप लगाये गये थे। इससे यह सिद्ध होता है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया में भारी भ्रष्टाचार चल रहा है। इस सारे प्रकरण को अपमानजनक मानते हुए एक अधिवक्ता श्री रविकृष्णन ने अदालत की अवमानना कानून के अन्तर्गत राज्य के महाधिवक्ता से लेखक जलील के विरुद्ध अवमानना कार्यवाही प्रारम्भ करने की अनुमति मांगी। इस प्रकार अवमानना कार्यवाही प्रारम्भ होने पर जलील ने प्रारम्भ में यह कहते हुए अपने विचारों का बचाव करने का प्रयास किया कि उसने लेख में केवल मात्र एक प्रश्न खड़ा करने का प्रयास किया है। उसने कोई निर्णयात्मक विचार व्यक्त नहीं किया। लेख लिखने के पीछे उसका अभिप्राय केवल यही था कि कुछ चुने हुए अधिवक्ताओं के नाम ही उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर नियुक्ति के लिए सिफारिश किये जाते हैं। इससे पूर्व केन्द्रीय कानून मंत्रालय की वैबसाइट पर उसने उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया का अध्ययन किया था। एक जिम्मेदार नागरिक तथा पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण वह स्वाभाविक रूप से उस प्रक्रिया पर संदेह कर बैठा जो उचित दिखाई नहीं दे रही थी। उसने अपने उत्तर में यह भी कहा कि न्यायाधीशों की चयनसमिति में भी कुछ वरिष्ठ न्यायाधीश अपने आपको अपनी व्यक्तिगत क्षमता के अनुसार वरिष्ठ सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। उसका कहना था कि चयनसमिति का निर्णय भी लोकतांत्रिक होना चाहिए किसी के व्यक्तिगत विचार के अनुसार नहीं। अपने उत्तर में उसने कहा कि वह केवल पाठकों की जिज्ञासाओं को अपने लेख का हिस्सा बनाना चाहता था। दूसरी तरफ एक उचित निन्दा अपराध नहीं होती। बाद में अदालत के समक्ष जलील ने इस लेख के प्रकाशन पर खेद व्यक्त करते हुए बिना शर्त माफीनामा प्रस्तुत किया और स्वयं अदालत में प्रस्तुत होकर भी क्षमायाचना की। उसने यह भी प्रस्ताव किया कि इस सम्बन्ध में वह एक माफीनामा कोच्चि के किसी समाचार पत्र में भी प्रकाशित करेगा। अदालत ने जलील के उक्त बिना शर्त माफीनामे को स्वीकार करते हुए उसके विरुद्ध अवमानना कार्यवाही को समाप्त कर दिया। परन्तु जलील के झुकने से न्याय प्रक्रिया को अपनी विजय नहीं मान लेनी चाहिए। वास्तव में उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की भर्तियों पर उठाये गये प्रश्न केवल जलील नामक एक पत्रकार के ही नहीं थे, यह प्रश्न सभी उच्च न्यायालयों में आये दिन उठते रहते हैं। तमिलनाडू मूल के न्यायमूर्ति श्री करनन ने भी वास्तव में न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता से सम्बन्धित प्रश्न ही उठाने का प्रयास किया था। उनकी गलती यह रही कि उन्होंने कुछ कार्यरत न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। प्रधानमंत्री कार्यालय ने वह पत्र सरकारी महाधिवक्ता के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। प्रधानमंत्री कार्यालय तथा सर्वोच्च न्यायालय दोनों ने ही आरोपों की छानबीन करने की तो आवश्यकता ही नहीं समझी, परन्तु न्यायमूर्ति श्री करनन के विरुद्ध अवमानना कार्यवाही प्रारम्भ कर दी गई। इस अवमानना कार्यवाही में भी न्यायमूर्ति श्री करनन ने एक विचित्र ही अहंकार, जिद्द और उल्टी बुद्धि का प्रदर्शन किया जिसके कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। इस सारी ऊपरी प्रक्रिया के शोर-शराबे में न्यायाधीशों की नियुक्ति में पारदर्शिता की आवश्यकता से सम्बन्धित प्रश्न पूरी तरह दब गया। सर्वोच्च न्यायालय के कुछ न्यायाधीश भी समय-समय पर न्यायाधीशों की भर्ती प्रक्रिया में पूर्ण पारदर्शिता से सम्बन्धित विचार व्यक्त करते रहे हैं। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय की न्यायधीश चयन समिति के सदस्य न्यायमूर्ति श्री चेलामेश्वर ने भी नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता बनाने के विचार व्यक्त किये थे। उनके अतिरिक्त अन्य कई न्यायाधीश भी समय-समय पर नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शिता की माँग करते रहे हैं। इसके अतिरिक्त अनेकों कानूनविदों तथा शोधकर्ताओं ने भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को लेकर कई बार तरह-तरह के प्रश्न उठाये हैं। क्या ऐसे विचार व्यक्त करने वाले सभी महानुभावों को न्याय व्यवस्था की अवमानना का दोषी माना जायेगा? न्यायाधीश पदों पर नियुक्ति पूरी तरह से उचित और पारदर्शी तभी बनेगी जब किसी भी अन्य सरकारी नियुक्ति की तरह विधिवत रिक्त पदों के लिए सार्वजनिक सूचनाओं के माध्यम से प्रार्थना पत्र आमंत्रित किये जायेंगे, बाकायदा लिखित परीक्षा और उसके उपरान्त मौखिक परीक्षा आयोजित होंगी। इसके साथ बेशक अधिवक्ताओं के अनुभव को भी नियमबद्ध तरीके से आंकलन करके उसके कुछ अंकों का लाभ उन्हें दिया जाये। चतुर्थश्रेणी के एक कर्मचारी से लेकर भारतीय प्रशासनिक अधिकारियों तक की नियुक्ति जब योग्यता और अनुभव के नियमबद्ध आंकलन के आधार पर होती है तो न्यायाधीशों की योग्यता और अनुभव की आवश्यकता के प्रति आजतक इतनी उदासीनता क्यों दिखाई जाती है। जब तक न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए खुली और पारदर्शी प्रक्रिया नहीं बनाई जाती तब तककेवल माफीनामों या अवमानना की कार्यवाही के डर से देश के नागरिकों का मुँह बन्द नहीं किया जा सकता। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को स्वयं अपने विवेक और न्याय के सिद्धान्तों का संरक्षण करते हुए इस प्रकार के प्रयास अवश्य ही करने चाहिए।

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *