संपादकीय

भारतीय पुलिस की लापरवाहियों का अनूठा नमूना

महाराष्ट्र के जोगेश्वरी पुलिस स्टेशन के अन्तर्गत एक पुलिस सब-इंसपेक्टर को एक काॅलेज के निकट लगभग 20 वर्ष के एक युवक की लाश मिली जिसके सिर पर भारी पत्थर से हमले का निशान था। पुलिस ने मुकदमा दर्ज करके गहन छानबीन प्रारम्भ कर दी। इस छानबीन के बीच मोहम्मद अशफाक नामक एक व्यक्ति ने पुलिस को बताया कि कुछ माह पूर्व 21 वर्ष का एक युवक उसके पास काम मांगने आया। उसने अपना नाम गुड्डू बताया। कुछ महीने काम करने के बाद वह अपने मूल निवास पंजाब के लुधियाना शहर चला गया और कुछ ही दिन बाद लगभग 30 वर्ष की एक महिला को लेकर आ गया। उसने बताया कि यह उसकी पत्नी है। इसके बाद तीन व्यक्ति मार्च 1996 में गुड्डू की तलाश करते हुए आये। उनमें से एक ने अपना नाम जवाहर लाल शर्मा बताया। ये तीनों व्यक्ति लुधियाना से आये थे। अशफाक गुड्डू की तलाश में लग गया, परन्तु उसे गुड्डू नहीं मिला। उक्त युवक की लाश मिलने के बाद जब अशफाक को उस लाश के चित्र दिखाये गये तो उसने गुड्डू को पहचान लिया। गुड्डू के शव के चित्रों को अन्य भी कई व्यक्तियों ने पहचान लिया। इस प्रकार संदेश की दिशा उन तीन व्यक्तियों की तरफ चली गई जो गुड्डू की तलाश में आये थे। पुलिस ने अब छानबीन करते हुए लुधियाना की राह पकड़ी और मई, 1996 में जवाहर लाल शर्मा को लुधियाना से गिरफ्तार कर लिया गया। जुलाई, 1996 में जवाहर लाल शर्मा को जमानत पर छोड़ दिया गया।
इसके बाद पुलिस को रशीदा खान नामक एक महिला ने पुलिस को बताया कि उसे उसके पुत्र गुड्डू की मृत्यु का समाचार एक टेलीग्राम से प्राप्त हुआ है। जबकि जिस दिन उसे टेलीग्राम मिला उसी दिन वह अपने पुत्र गुड्डू से मिली थी। इन परिस्थितियों में वह नजदीक के पुलिस स्टेशन में यह सूचना देने पहुंची कि उसका बेटा गुड्डू जीवित है। रशीदा के अतिरिक्त दो अन्य व्यक्तियों ने गुड्डू से मिलने और उसके जिन्दा होने की पुष्टि की थी। इस प्रकार पुलिस को यह जानकारी प्राप्त हो चुकी थी कि गुड्डू नामक युवक जुलाई, 1996 से जिन्दा है। इसके बावजूद पुलिस ने एक चार्जशीट प्रस्तुत करते हुए जवाहर लाल शर्मा को अभियुक्त बना डाला।
जवाहर लाल शर्मा लुधियाना में रहने वाला एक व्यापारी था जो स्वयं को बेकसूर सिद्ध करने के लिए लगा रहा। ट्रायल अदालत में उसने अपने आपको मुकदमें की कार्यवाही से मुक्त करने की प्रार्थना भी की। जवाहर लाल शर्मा अदालत की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए लगातार मुम्बई आता-जाता रहा। इस बीच जून, 2005 में सत्र न्यायाधीश ने उसे मुम्बई शहर छोड़कर तब तक बाहर न जाने का आदेश दिया जब तक ट्रायल पूरा नहीं हो जाता। इस आदेश के विरुद्ध जवाहर लाल शर्मा ने उच्च न्यायालय का द्वार भी खटखटाया परन्तु उसे सफलता नहीं मिली।
जवाहर लाल शर्मा गुड्डू की तलाश करता रहा और पता लगने पर उसने अदालत के समक्ष गुड्डू को बुलाने के लिए प्रार्थना भी की। बताये गये पते पर गुड्डू को सम्मन भेजे गये परन्तु वह नहीं आया। इसके उपरान्त गुड्डू के विरुद्ध एक गैर-जमानती गिरफ्तारी वारंट भी जारी किया गया। इस वारंट को लेकर जवाहर लाल स्वयं उत्तर प्रदेश गया जहाँ गुड्डू की माँ रहती थी। अन्ततः मुकदमा दर्ज होने के 15 वर्ष बाद 2011 में गुड्डू को अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर ही दिया गया। गुड्डू की पहचान के प्रति पूरी तरह आश्वस्थ होने के बाद अदालत ने जवाहर लाल शर्मा को मुकदमें से मुक्त कर दिया और जोगेश्वरी पुलिस स्टेशन को मुकदमें की छानबीन दुबारा करने के लिए आदेश दिया।
मुकदमें से मुक्त होने के बाद जवाहर लाल शर्मा ने उसे गलत मुकदमें में फंसाने तथा हर प्रकार की पीड़ा के बदले मुआवजे़ तथा लापरवाह पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही की मांग करते हुए मुम्बई उच्च न्यायालय के समक्ष रिट् याचिका प्रस्तुत कर दी। मुम्बई उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में कहा कि एक अवस्था में पुलिस अधिकारियों द्वारा जवाहर लाल शर्मा को गिरफ्तार करना और उस पर मुकदमा चलाना उचित माना जा सकता है परन्तु उसी वर्ष अर्थात् जुलाई, 1996 में गुड्डू की माँ के द्वारा टेलीग्राम प्राप्त होने के साथ-साथ गुड्डू के जिन्दा होने की सूचना प्राप्त होने के बावजूद पुलिस ने इस सम्बन्ध में घोर लापरवाही के साथ-साथ अयोग्यता और असंवेदनशीलता का परिचय दिया है। पुलिस के इस व्यवहार को आपराधिक लापरवाही माना जा सकता है जिसके कारण जवाहर लाल शर्मा को 15 वर्ष से अधिक एक गम्भीर आपराधिक आरोप की यातना सहनी पड़ी जिसकी सज़ा मृत्युदण्ड भी हो सकती थी। इस प्रकार स्वाभाविक रूप से वह लगातार शारीरिक और मानसिक तनाव में रहा होगा। इन परिस्थितियों में उसे संविधान के अनुच्छेद-21 के अन्तर्गत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित रखा गया। इन विचारों के साथ उच्च न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार के विरुद्ध जवाहर लाल शर्मा को 6 लाख रुपये मुआवजे़ के भुगतान का आदेश दिया। अदालत ने कहा कि सरकार चाहे तो इस राशि को दोषी पुलिस कर्मियों से वसूल कर सकती है। परन्तु विडम्बना है कि इस मुकदमें में शामिल तीन पुलिस अधिकारियों में से दो की मृत्यु हो चुकी थी और एक सेवा निवृत्त हो चुका था।
इस मुकदमें की कथा यह सिद्ध करती है कि सम्बन्धित पुलिस अधिकारी कितनी उदासीनता से मुकदमों की छानबीन करते हैं और किसी व्यक्ति की बेगुनाही स्पष्ट सिद्ध होने के बावजूद भी छानबीन की एक लाईन को पकड़ने के बाद उसे छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं होते। इसका कारण भ्रष्टाचार ही हो सकता है। जवाहर लाल शर्मा की जगह यदि कोई और व्यक्ति अपने आपको छानबीन प्रक्रिया से बाहर करवाने के लिए कुछ लाख रुपये की रिश्वत दे देता तो पुलिस अपने अधिकार का उचित प्रयोग करते हुए प्रारम्भिक अवस्था में ही मुकदमें को समाप्त कर देती। ऐसी घटनाएँ भारतीय पुलिस के उन योग्य अधिकारियों को भी कलंकित कर देती हैं जो पूरे ज्ञान, लगन और जागरूकता के साथ अपने कर्तव्यों को निभाते हैं। ऐसे योग्य अधिकारी ही ईमानदारी पूर्वक छानबीन करते हुए वास्तविक दोषियों के विरुद्ध ही मुकदमेंबाजी प्रारम्भ करते हैं। किसी अवस्था में अपनी गलती का पता लगने के बाद उसका सुधार करने से वह गलती नहीं मानी जाती जबकि उस गलती पर अड़े रहना एक महागलती बन जाती है। भारतीय पुलिस की कार्यशैली सामान्यतः ऐसी ही अहंकारवादी प्रवृत्तियों पर चलती हुई दिखाई देती है। यह मुकदमा भारतीय पुलिस की लापरवाहियों का एक अनूठा नमूना है।

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट

 

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