संपादकीय

महा अभियोग नहीं, विरोधी राजनीति का महा प्रलाप

-विमल वधावन योगाचार्य,
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट 
स्वतंत्रता के बाद के 71 वर्षों में बहुतायत कांग्रेस पार्टी ही केन्द्र सरकार चलाती रही है। ऐसा दावा नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस ने न्यायपालिका के कार्यों में कभी किसी प्रकार का दखल नहीं दिया। ऐसा भी दावा नहीं किया जा सकता कि सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में अनेकों न्यायाधीशों ने कांग्रेस सरकार का अन्ध समर्थन नहीं किया। न्यायाधीशों और राजनीति के ताल-मेल पर अधिक चर्चा न करते हुए सिद्धान्त रूप में यह तो निश्चित कहा जा सकता है कि न्याय पालिका में कानूनों की व्याख्या और निर्णय काफी हद तक न्यायाधीशों की व्यक्तिगत मानसिकता पर भी निर्भर करते हैं। मकान मालिकों और किरायेदारों से सम्बन्धित मुकदमों में कुछ न्यायाधीशों की मानसिकता मकान मालिकों के पक्ष में होती है तो कुछ की किरायेदारों के पक्ष में। इसी प्रकार उद्योगपतियों और श्रमिकों से सम्बन्धित मुकदमों में कुछ न्यायाधीशों की मानसिकता उद्योगपतियों के पक्ष में तो कुछ की मानसिकता श्रमिकों के पक्ष में होती है। वैवाहिक विवादों में भी पुरुष या महिला हितों का संरक्षण न्यायाधीशों की मानसिकता पर निर्भर करता है। अपराधिक मामलों में कुछ न्यायाधीश लचीली मानसिकता वाले होते हैं तो कुछ सख्त मानसिकता वाले। दीवानी मुकदमों में कुछ न्यायाधीश कानून की प्रक्रियाओं का पालन करने के विषय में पूरे लकीर के फकीर होते हैं तो कुछ न्यायाधीश प्रक्रियात्मक गल्तियों को सुधारने के अवसर दे देते हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि न्यायाधीश भी उसी मानसिकता के दृष्टिकोण से अपने निर्णय को लिखने का प्रयास करते हैं। अदालतों में अक्सर वकीलों के बीच ऐसे विषय चर्चा के केन्द्र में रहते हैं कि कौन सा न्यायाधीश किस प्रकार की मानसिकता वाला है। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में भी कुछ न्यायाधीश सरकारी नीतियों और सिद्धान्तों के समर्थन वाले होते हैं तो कुछ विरोधी स्वभाव के।
न्यायाधीश बनने से पहले किसी व्यक्ति की मानसिकता राजनीति के किन सिद्धान्तों से जुड़ी है, उसका प्रभाव न्यायाधीश बनने के बाद भी कहीं न कहीं दिखाई देता ही रहता है। भाजपा या संघ से जुड़ा कोई वकील यदि न्यायाधीश बनता है तो वह अपनी मूल मानसिकता को पूरी तरह से भूलकर न्यायाधीश के पद पर कार्य कर पायेगा, ऐसी आशा नहीं की जा सकती। न्यायाधीश बनने से पूर्व वह कांग्रेस या वाममोर्चा के सिद्धान्तों से भी जुड़ा हो सकता है।
आज सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा के विरुद्ध कांग्रेस और वाममोर्चा के 71 सांसदों ने महा अभियोग प्रस्ताव संसद में प्रस्तुत करके समाचारों की दृष्टि से बेशक एक बहुत बड़ा ही नहीं अपितु ऐतिहासिक कार्य कर दिखाया है। क्योंकि मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध आज तक ऐसा पिछले 71 वर्षों में नहीं हुआ। इस महा अभियोग के पीछे मुख्य न्यायाधीश के व्यवहार से सम्बन्धित पांच मुख्य कारण बताये गये हैं। किसी शैक्षणिक न्यास में मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा की संलिप्तता पर छानबीन की माँग प्रथम कारण है तो दूसरा कारण यह बताया गया है कि इसी ट्रस्ट से सम्बन्धित मामलों में श्री दीपक मिश्रा न्यायाधीश बनकर कार्य करते रहे हैं। न्यायाधीश बनने से पूर्व जब श्री दीपक मिश्रा एक अधिवक्ता थे तो उन्होंने किसी भूमि का आबंटन करवाने के लिए झूठा शपथ पत्र दिया था। जिसके कारण वह आबंटन रद्द कर दिया गया था और श्री दीपक मिश्रा को वह भूमि वापिस करनी पड़ी थी। सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद कुछ जनहित या राजनीतिक विषयों से सम्बन्धित याचिकाओं को कुछ चुनिन्दा न्यायाधीशों के समक्ष ही प्रस्तुत करने की परम्परा को भी मुख्य न्यायाधीश का एक दोष बनाकर प्रस्तुत किया गया है।
संसद में भाजपा के बहुमत को देखते हुए इस महा अभियोग प्रस्ताव की सफलता किसी प्रकार से भी सम्भावित नहीं है। महा अभियोग प्रस्ताव की सफलता के लिए लोकसभा और राज्यसभा दोनों सदनों के दो तिहाई सदस्यों के वोट की आवश्यकता है जिसे जुटाना कांग्रेस और वामदलों के लिए असम्भव है। सदन में प्रस्तुत होने से पूर्व राज्यसभा के सभापति होने के नाते उपराष्ट्रपति श्री नायडू स्वयं भी इस महा अभियोग प्रस्ताव को अस्वीकार कर सकते हैं। यदि श्री नायडू ऐसा करते हैं तो विपक्षी दल इस निर्णय को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देंगे। यदि यह लड़ाई थोड़ा भी लम्बा खिंची तो 1 अक्टॅबर, 2018 को मुख्य न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति के बाद वैसे भी महा अभियोग प्रस्ताव निरर्थक हो जायेगा। सर्वोच्च न्यायालय में यदि यह मामला पहुँचा तो मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त अगले वरिष्ठ न्यायाधीश श्री चेलामेश्वर की पीठ इस पर सुनवाई करेगी। श्री चेलामेश्वर पहले ही उन चार न्यायाधीशों के साथी बनकर अपनी मानसिकता को जग-जाहिर कर चुके हैं जिनके साथ उन्होंने कुछ माह पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा के विरुद्ध संवाददाता सम्मेलन में अपने विचार व्यक्त किये थे। इसलिए सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के लिए न्यायाधीशों की पीठ का निर्णय भी अपने आपमें एक विवाद पैदा कर सकता है।
उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के विरुद्ध जब कभी भी इस प्रकार महा अभियोग प्रस्ताव प्रस्तुत हुए हैं तो संसद के निर्णय तक उन्हें काम करने से रोक दिया जाता था। परन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश को इस प्रकार का निर्देश कोई नहीं दे सकता। यह उनके स्वविवेक पर निर्भर करता है कि वे अपना कार्य बन्द कर दें या छुट्टी पर चले जायें, वैसे इसकी सम्भावना कम ही दिखाई देती है।
वैसे मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा के विरुद्ध इस महा अभियोग प्रस्ताव की सुईंयाँ कांग्रेस और वामदलों की विरोधी राजनीति से स्पष्ट जुड़ी हुई दिखाई देती हैं। महा अभियोग प्रस्ताव प्रस्तुत करने से एक दिन पूर्व ही न्यायाधीश लोया के सम्बन्ध में मुख्य न्यायाधीश की पीठ का निर्णय सुनाया गया था। इस निर्णय से विरोधी पक्ष को अवश्य ही ठेस लगी होगी। इससे पूर्व मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा की पीठ के द्वारा अयोध्या विवाद की सुनवाई भी राजनीतिक तराजू पर तौली जा रही थी। आधार कार्ड की वैधानिकता, रोहिंग्या मुसलमानों को वापिस भेजने और मुस्लिम समुदाय में बहु विवाह प्रथा तथा हलाला आदि के मुकदमें भी श्री दीपक मिश्रा की पीठ के समक्ष ही विचारधीन हैं। जिस प्रकार अपराधी घोषित व्यक्ति निर्वाचन लड़ने से प्रतिबन्धित माना जाता है उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति को राजनीतिक दल का पदाधिकारी बनने से भी प्रतिबन्धित कर दिया जाये, यह याचिका भी न्यायामूर्ति श्री दीपक मिश्रा के समक्ष विचाराधीन है। जनहित याचिकाओं के कुछ सम्भावित निर्णय विरोधी राजनीति को प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए विरोधी राजनीति ने पहले से ही मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध महा अभियोग का प्रलाप प्रारम्भ कर दिया है। इस प्रलाप से किसी को कोई विशेष लाभ होने वाला नहीं है। यह केवल विरोधी राजनीति का महा प्रलाप ही सिद्ध होगा।

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