मानवतावाद और रचनात्मकता से ही होगी संविधान की रक्षा
-विमल वधावन योगाचार्य,
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
भारत का लोकतंत्र क्रियात्मक रूप से तो एक भीड़तंत्र की तरह बन चुका है। पहले धन के बल पर लोगों को लालच देना और वोट लेना, उसके बाद निर्वाचित सदन में सत्ता पक्ष या विपक्ष के साथ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में केवल अपनी स्वार्थसिद्धि करते चले जाना राजनेताओं का मुख्य लक्षण बन चुका है। ऐसे वातावरण में किसी बुद्धिजीवी से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह ईमानदारी का दामन भी थामे रखे और राजनीति में अपनी बुद्धि के बल पर समाज और देश के कल्याण के लिए कुछ महान रचनात्मक कार्यक्रम और नीतियाँ स्थाई रूप से लागू करवा सके। इसका सीधा सा कारण है कि यदि इस प्रकार के एक या दो व्यक्ति निर्वाचित सदन में पहुँच भी जाते हैं तो संख्याबल का सहारा उनके पास नहीं होता। क्योंकि आज लोकतंत्र नहीं भीड़तंत्र काम कर रहा है और नेताओं की लगभग सारी भीड़ केवल अपने स्वार्थ से ग्रसित होकर अपने साथ चलने वाली भीड़ का दुरुपयोग कर रही है।
ऐसी परिस्थितियों में लोकतंत्र की रक्षा का सारा दायित्व न्यायपालिका के कंधो पर आकर टिक जाता है। बेशक न्यायपालिका की भी एक सीमित भूमिका है परन्तु फिर भी स्वतंत्र भारत की न्यायपालिका ने पिछले 70 वर्षों में हमेशा कठिन परिस्थितियों में उदार, मानवीय और रचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए लोकतंत्र को सुधार की तरफ ले जाने का प्रयास किया है। सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा ने पिछले दिनों एम.सी. सीतलवाड़ स्मृति व्याख्यान में बोलते हुए अपने ऐसे ही कई अनुभवों को व्यक्त किया जिससे पता लगता है कि न्यायपालिका के निर्णयों का सूत्र मानवतावाद और रचनात्मकता से ही बंधा होता है।
श्री सीतलवाड़ भारत के इतिहास में एक ऐसे महाधिवक्ता थे जिन्होंने उस वक्त के मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रस्तावित न्यायाधीश पद को ठुकरा दिया था। एक अधिवक्ता के रूप में श्री सीतलवाड़ अपनी इस आदत के लिए जाने जाते थे जो मुकदमें में बहस के लिए उपस्थित न हो पाने पर उस दिन की फीस वापिस कर दिया करते थे। उन्होंने न्यायालय में कभी अपने पक्ष की तरफ से भी गलत तर्क को गलत स्वीकार करने में संकोच नहीं किया।
मुख्य न्यायाधीश श्री दीपक मिश्रा ने कहा कि भारत का सर्वोच्च न्यायालय संविधान का अंतिम रक्षक है। इसलिए संविधान में दिये गये सभी अधिकारों की रक्षा करना सदैव सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य उद्देश्य रहा है। हमें भी यह दावा उचित दिखाई देता है, क्योंकि यदि सर्वोच्च न्यायालय अपने इस कत्र्तव्य में चूक जाये तो उस दिन लोकतंत्र का दीया भी बुझना निश्चित ही होगा। प्रत्येक मानवीय समाज सदैव उन्नतिशील होता है। उन्नति का यह चक्र लगातार चलता ही रहता है। प्रत्येक समाज को नियंत्रण और निर्देशन प्रदान करने के लिए उस देश का एक ऐसा संविधान आवश्यक होता है जो दूरदर्शिता के साथ ऐसे बुद्धिजीवियों के द्वारा तैयार किया गया हो जो समाज का नेतृत्व अपने किसी व्यक्तिगत स्वार्थ के कारण नहीं अपितु अपनी रचनात्मक और मानवतावादी बुद्धि के कारण कर रहे हों। समाज की लगातार उन्नतिशीलता के कारण स्वाभाविक रूप से कोई भी संविधान चाहे कितनी भी समझदारी के साथ तैयार किया गया हो, समय के साथ-साथ परिवर्तन मांगता ही है। इसीलिए हमारे देश के संविधान में आज तक अनेकों परिवर्तन हो चुके हैं और भविष्य में कई परिवर्तनों की आवश्यकता अभी भी दिखाई देती है।
भारत के किसी भी नागरिक को जब कभी भी अन्य नागरिकों या सरकारी कार्यवाही से ऐसा प्रतीत हो कि उसके संवैधानिक अधिकारों पर कुठाराघात हो रहा है तो वह तुरन्त न्यायपालिका की शरण में जाकर अपने प्रति मानवतावाद और रचनात्मकता के संरक्षण की दुहाई देकर संरक्षण मांगता है। हो भी क्यों न, क्योंकि भारत का संविधान अपनी घोषणा से यह सिद्ध करता है कि उसे भारत के लोगों ने स्वयं बनाया है। संविधान की घोषणा के प्रारम्भिक शब्द हैं, ‘‘हम भारत के लोग …………….’’।
वैसे तो समाज का हर व्यक्ति अपनी बुद्धि और बल के आधार पर अपना जीवन स्वयं चलाता है। अपनी रचनात्मक और निर्माण शक्ति से वह समाज के दूसरे लोगों की सेवा में जुटा रहता है। इस प्रकार उसकी रचनात्मकता भी बढ़ती जाती है और उसकी आजीविका भी चलती रहती है। जब उसकी रचनात्मकता में बाधा उत्पन्न करने की कोशिश की जाती है तो स्वाभाविक रूप से उसे संविधान और न्यायालय की शरण लेनी पड़ती है।
न्यायमूर्ति श्री दीपक मिश्रा ने सर्वोच्च न्यायालय द्वारा तीन तलाक प्रथा समाप्त करने से सम्बन्धित दिये गये निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के पास मानवतावाद और रचनात्मकता की रक्षा के लिए अपार शक्तियाँ हैं। इन्हीं शक्तियों के बल पर सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा बनाये गये कानूनों को भी रद्द कर सकता है। यह सही भी है, क्योंकि कभी-कभी संसद जैसे संस्थान तो केवल लोकतंत्र के नाम पर और भीड़तंत्र के सहारे मानवतावाद और रचनात्मकता को कुचलने वाले संस्थान दिखाई देने लगते हैं।
आये दिन किसी न किसी फिल्म को लेकर भी भारत की सड़कों पर प्रदर्शन देखने को मिलते हैं। वैसे मेरा तो व्यक्तिगत रूप से यह मानना है कि बहुतायत फिल्मों ने भारतीय समाज की संस्कृति के साथ-साथ इतिहास को भी नष्ट-भ्रष्ट करने का कार्य ही किया है। बहुत कम फिल्में मानवतावाद, रचनात्मकता और देश सेवा, राष्ट्रभक्ति जैसी भावनाओं के प्रचार-प्रसार का कार्य करती हुई दिखाई देती है। आज फिल्मों का मुख्य उद्देश्य हिंसा और सैक्स के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं देता। फिल्म निर्माताओं ने तो आधुनिक युग में शहीद भगत सिंह पर बनाई गई फिल्म में भी उस अमर शहीद को किसी युवती के प्रेम भाव में दिखाने का प्रयास किया। शहीद भगत सिंह के परिजनों सहित कोटि-कोटि राष्ट्रभक्तों ने इस प्रयास का विरोध किया।
हाल ही में ‘पदमावत’ फिल्म के विरोध में भी इतिहास से छेड़छाड़ का आरोप लगा, सैकड़ों जगह प्रदर्शन हुए परन्तु सर्वोच्च न्यायालय ने इन तर्कों को निराधार मानते हुए रद्द कर दिया। मुख्य न्यायालय श्री मिश्रा ने अपने व्याख्यान में कहा कि जब रचनात्मकता को दबाने का प्रयास किया जाता है तो समाज और सभ्यता का क्षय होने की संभावनाएँ पैदा हो जाती हैं। न्यायमूर्ति श्री दीपक मिश्रा ने सर्वोच्च न्यायालय के अनेकों निर्णयों को एक लय में अपने व्याख्यान का हिस्सा बनाते हुए बार-बार केवल एक ही बात को सिद्ध करने का प्रयास किया कि भारतीय न्याय व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य मानवतावाद और रचनात्मकता की रक्षा करते हुए ही संविधान की रक्षा करना है।