संपादकीय

लोकतन्त्र के मूल विनाश को प्रेस ही रोक सकती है

विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोट

भारत को विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहा जाता है। यह केवल इसलिए कि यहाँ समय पर चुनाव की प्रक्रिया सम्पन्न करवाई जाती है। क्या लोकतंत्र केवल चुनावी प्रक्रिया का पर्यायवाची है? नहीं! लोकतंत्र तो वास्तव में लोगों के जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए एक ऐसे तन्त्र का नाम है जिसके माध्यम से लोगों के विवाद, कठिनाइयाँ और उनकी आवश्यकताएँ यथासम्भव हल की जायें। वास्तव में लोकतंत्र को एक मानवतावादी विकास का माध्यम बनाया जाना चाहिए। मानवतावादी विकास के बल पर ही सुखी और सम्पन्न समाज की कल्पना की जा सकती है। ऐसा मानवतावादी समाज ही एक उच्च संस्कृति से सुसज्जित राष्ट्र की छवि बना सकता है। हमारा देश मूलतः एक आध्यात्मिक देश है। वेद की संस्कृति ने ही इस देश को हमेशा सहिष्णुता और मानवतावाद जैसे परोपकारी लक्षण प्रदान किये। इस संस्कृति का ही लाभ उठाकर विश्व की कई संस्कृतियों ने यहाँ बसेरा डाला। वह बसेरा धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता के कब्जे के रूप में परिवर्तित हो गया। पहले इस्लामिक बादशाहों ने तो बाद में इसाई व्यापारियों ने इस देश पर सैकड़ों वर्ष अपनी हुकूमत चलाई। स्वतंत्रता के बाद एक बार फिर लोकतंत्र की स्थापना हुई। लोकतंत्र का सीधा सा अर्थ बहुमत का राज्य होता है। परन्तु हमारे देश का लोकतंत्र आरक्षण और तुष्टिकरण जैसे मार्गों को अपनाता हुआ बहुमत को सदैव अनदेखा करता रहा। लोकतंत्र का दूसरा अर्थ निष्पक्ष न्याय तंत्र के समान भी माना जा सकता है। परन्तु हमारे लोकतंत्र में तो न्याय का खेल भी राजनीतिक वोट बैंक की भेंट चढ़ गया। स्वतंत्रता के बाद उम्मीद थी कि लोकतंत्र एक नये भारत का निर्माण करेगा। परन्तु भारत के शासन की विरासत इन बीते 70 वर्षों में बहुतायत कांग्रेस के हाथ ही रही। विकल्प के अभाव में कांग्रेस स्वयं भ्रष्टाचार का पर्यायवाची बन गई। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी से उम्मीद जगी। श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सरकार ने एक सत्र तो पूरा किया परन्तु कोई विशेष ऐसे प्रयास सामने नहीं आये जिनसे सच्चे लोकतंत्र अर्थात् सच्चे न्याय तंत्र अर्थात् सच्चे मानवतावादी समाज और राष्ट्र के निर्माण की दिशा निर्धारित होती। इस कारण फिर से कांग्रेस को 10 वर्ष का शासन पुनः प्राप्त हो गया। एक बार फिर उम्मीद की किरण दिखाई दी। इस बार यह आशा की किरण भाजपा के स्थान पर श्री नरेन्द्र मोदी पर अधिक केन्द्रित थी। आज प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व में वर्तमान केन्द्र सरकार अपने चतुर्थ वर्ष में चल रही है। परन्तु अब तक के इस कार्यकाल में अनेकों मूल विषयों पर सम्बन्धित मंत्रालयों का कोई विशेष ध्यान आकृष्ट नहीं हो सका जिनके क्रियान्वयन से लोकतंत्र की मजबूती का मार्ग प्रशस्त हो सकता था।

1. न्यायिक सुधार – सारे भारत की अदालतों में लम्बित लगभग 3 करोड़ मुकदमों के शीघ्र निर्णय के लिए हमारी सरकारें आज तक कोई विशेष प्रयास नहीं कर पाई। 3 करोड़ मुकदमों का अर्थ है न्यूनतम 10 से 20 करोड़ लोगों का इन मुकदमों में उलझना। कोई भी लोकतंत्र कैसे सफल हो सकता है जब उसके 10-20 प्रतिशत लोग परस्पर टकराव में जीवन जी रहे हों।

2. शैक्षणिक सुधार – भारतीय लोकतंत्र आज तक भारत के सभी नागरिकों के लिए समान शिक्षा की व्यवस्था नहीं कर पाया। इतना बड़ा लोकतंत्र किस प्रकार एक सच्चा लोकतंत्र माना जा सकता है जहाँ गरीब आदमी को अपने बच्चों की उच्च शिक्षा के लिए 100 बार विचार करने के बाद भी अधिकारपूर्वक कोई मार्ग न मिले। जबकि सच्चे लोकतंत्र का दायित्व है कि अपने नागरिकों को समान शिक्षा के साथ-साथ नैतिक शिक्षा, सामाजिकता, मानवतावाद और राष्ट्रवाद का वातावरण उपलब्ध कराता।

3. निर्वाचन सुधार – दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहलाने वाले इस देश में लगभग 30 प्रतिशत से भी अधिक निर्वाचित प्रतिनिधि अपराधी पृष्ठभूमि के होते हैं। अपराधी प्रवृत्ति के कारण ही कालेधन का प्रभाव राजनीति में सफल हो पाता है। यह कैसा लोकतंत्र है जहाँ कोई गरीब या मध्यम दर्जे का एक समाजसेवी तो निर्वाचन में भाग लेने की सोच भी नहीं सकता।

4. राजनीतिक सुधार – टैक्सी ड्राइवर हो या हवाई जहाज का पायलट, डाकिया हो या आई.ए.एस. अधिकारी, नर्सरी कक्षा का शिक्षक हो या कोई बड़े से बड़ा वैज्ञानिक, हलवाई की दुकान पर काम करने वाला कारीगर हो या डाॅक्टर, वकील, चार्टड एकाउटेंट जैसे बड़े-बड़े पेशों के विद्वान, सभी को एक निर्धारित शिक्षा और दीक्षा के बाद ही अपनी-अपनी आजीविका का अधिकार मिलता है। परन्तु हमारे देश और समूचे लोकतंत्र की बागडोर संभालने वाले इन कथित राजनेताओं के लिए किसी शिक्षा या दीक्षा का कोई तंत्र विकसित नहीं हुआ। इसीलिए इस लोकतंत्र को चलाने वाले लोगों में आज अनपढ़, बदजुबान, छटे हुए बदमाश और धन के बल पर भ्रष्टाचार करने वाले तथा देश की अस्मिता को दांव पर लगाने वाले लोग भी इस भारतीय लोकतंत्र के प्रहरी बने दिखाई देते हैं।

5. पुलिस सुधार – लोकतंत्र की कल्पना अनुशासन के बिना नहीं की जा सकती। अनुशासन का मुख्य दायित्व पुलिस पर होता है। परन्तु आज भारतीय पुलिस बहुतायत निरंकुश राजनेताओं की कठपुतली बनी हुई दिखाई देती है। इसी कारण पुलिस का ध्यान अपराधों के नियंत्रण और छानबीन पर पूरी दक्षता के साथ नहीं लग पाता। इन परिस्थितियों में लोकतंत्र की रक्षा कैसे होगी?6. प्रशासनिक सुधार – अन्ना हजारे के आन्दोलन ने लोकतंत्र का कितना सुन्दर जलवा दिखाया था। जनता के आन्दोलन से मजबूर केन्द्र सरकार ने रविवार को संसद का सत्र बुलाकर लोकपाल बिल पारित किया। परन्तु लोकतंत्र के उस विशाल आन्दोलन के बाद आज कानून बनने के बाद भी कहाँ है वह लोकपाल और कहाँ है वह सिटिजन चार्टर जैसी दक्षता वाला लोकतंत्र?

7. जेल सुधार – आज भारत की जेलें अपराधियों के लिए प्रशिक्षणशालाओं की तरह स्थापित हो चुकी हैं। परन्तु हमारे लोकतंत्र में कोई ऐसा विचार आज तक लागू नहीं किया जा सका जिससे जेल प्रशासन का मुखिया एक सामाजिक, मानवतावादी और मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञ को बनाया जाये।

8. कृषि सुधार – आज भी भारत की आधे से अधिक जनसंख्या कृषि क्षेत्र में कार्यरत है। जबकि इस लोकतंत्र में यही सबसे बड़ा किसान वर्ग आज सबसे अधिक पीड़ित व्यक्ति दिखाई देता है। कभी कृषि ऋण माफी, कभी खाद और बीज की समस्या तो कभी आत्महत्याओं की घटनाओं ने भारतीय किसान को एक दीन-हीन वर्ग बनाकर रख दिया है। परन्तु हमारे इस कथित लोकतंत्र ने आज तक भारत के इस बहुमत वर्ग को समान रूप से कृषि सुधार की नई-नई तकनीकें और उत्पादन की खरीद की पूर्ण सुरक्षा और सम्मानजनक दरें उपलब्ध कराने में भी हमेशा कंजूसी दिखाई हैं। यदि कृषि सुधार पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता तो आज पढ़ा-लिखा युवा वर्ग भी कृषि की तरफ आकर्षित होता।

9. स्वास्थ्य सुधार – भारत का लोकतंत्र आज भारतीय नागरिकों की स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर भी अंग्रेजी औषधियों और मंहगी चिकित्सा का मोहताज बना हुआ है। जबकि योग के अतिरिक्त हमारे पास शुद्ध और सात्विक खान-पान, आध्यात्मिक जीवन पद्धति को समाहित करते हुए प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति के सिद्धान्त उपलब्ध हैं। हमारे पास गंगाजल एक ऐसी औषधि के रूप में उपलब्ध है जो अनेकों रोगों का इलाज कर सकती है। गौमूत्र तथा पंचगव्य भी गंगाजल के समान ही महान औषधियाँ हैं। परन्तु हमारे लोकतंत्र ने भारतीय नागरिकों को स्वस्थ रहने की कला नहीं सिखाई। बल्कि स्वास्थ्य के स्थान पर रोगों से लड़ने के लिए अंग्रेजी चिकित्सा जैसे अनुदान के बल पर नागरिकों को पंगु बनाकर रखा हुआ है।मेरे विचार में नरेन्द्र मोदी सरकार की यह मूल में भूलों को लेकर यदि भारतीय मीडिया एक-एक विषय पर व्यापक अभियान चलाये तो शायद सरकार को लोकतंत्र के यह दायित्व समझ में आयें। भारतीय मीडिया तभी लोकतंत्र का चैथा और सबसे मजबूत स्तम्भ बनेगा जब वह लोकतंत्र के इन नकली खिलाड़ियों का पूरा बहिष्कार करके सच्चे लोकतंत्र की आवाज को उठाने का दायित्व निभायेगा।

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