संपादकीय

व्यंग्यों की तीखी अभिव्यक्ति : पप्पू बन गया अफसर

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम : पप्पू बन गया अफसर,
लेखक : आलोक सक्सेना,
पृष्ठ : 208,
मूल्य : 460 रुपए,
प्रकाशक : किताब घर, 24/4855, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002
प्रयोगधर्मी व्यंग्यकार आलोक सक्सेना का नया छठा व्यंग्य संग्रह ’पप्पू बन गया अफसर‘ हाल ही में आया है। व्यंग्य की सहज धारा के उत्कृष्ट लेखकों में व्यंग्यकार आलोक सक्सेना का नाम काफी उल्लेखनीय है। वह लगभग तीन दशक से व्यंग्य लेखन में सक्रिय हैं। व्यंग्यकार समाज में अनैतिक बुराइयों एवं परिस्थितियों को देखकर उनका सफाया करने के लिए अपनी कलम को चलाता है। ऐसी ही लेखनी के धनी हैं व्यंग्यकार आलोक सक्सेना। इसीलिए एक सफल लेखक को कहा जाता है कि धरती पर रहते हुए भी रवि तक आकाश में सीधे पहुंचने की कला में माहिर होते हैं समस्त लेखक और कविगण।
प्रयोगधर्मी व्यंग्यकार आलोक सक्सेना का ताजा व्यंग्य संग्रह ‘पप्पू बन गया अफसर’ पढ़ने के बाद ऐसा लगता है कि आलोक सक्सेना ने सामाजिक दृष्टिकोण, राजनीतिक, पाखंड के साथ-साथ धार्मिक अज्ञानता एवं आर्थिक जगत के समस्त क्षेत्रों में विद्रूपताओं और विसंगतियों की बेहतरीन पहचान कर समाज को एक नई दिशा प्रदान की है। समस्त व्यंग्यों की विशेषता है कि उनकी भाषा शैली एकदम जनसामान्य के समझने वाली साधारण है परंतु प्रहार करने में कोई कसर नहीं छोड़ती। प्रकाशित संग्रह में व्यंग्यक्रम से पहले चार अपने ‘स्तंभ कटखने शब्द के माध्यमों से उन्होंने धार्मिक पाखंडता और अज्ञानता की ओर जो अपने कटाक्ष प्रस्तुत किए हैं वास्तव में समझने योग्य और उपयोगी हैं। यहां पर उन्होंने ज्ञानविमर्श, सामाजिक बुराई, शिकायत और आश्वस्ति का सकारात्मक तानाबाना बुना है। कहीं-कहीं पर वह अपने खट्टे-मीठे अनुभवों से पाठकों को अपने व्यंग्यों के माध्यम से जोड़ते भी चलते हैं।
उनके समस्त व्यंग्यों में व्यंजनात्मक तीखी अभिव्यक्ति और भरपूर कटाक्ष प्रस्तुत होता है। इस नए संग्रह में आलोक सक्सेना की आपबीती एवं सत्यकर्म पर आधारित इक्यावन व्यंग्य रचनाएं संग्रहित हैं। इस संग्रह की एक बानगी प्रस्तुत है- ’‘जनाब, जब भी बाथरूम में जाता हूं तो मुझे एक आधी-अधूरी शायरी याद आती है, ’आपसे तो अच्छे हैं बाथरूम के पत्थर जो हुस्न को बेनकाब देखते हैं। हुस्न भी वहां कुछ बोल नहीं पाते हैं, बेजुवान रहते हैं।‘ अजीसाहब, कितना भी दमखम हो इस शायरी में मगर बाथरूम के बिना काम भी तो नहीं चलता है। वहां तो नंगा होना ही पड़ता है।‘‘ प्रस्तुत नई पुस्तक में प्रयोगधर्मी व्यंग्यकार आलोक सक्सेना ने आज के दौर से ओतप्रोत होकर जो भी भी नई रचनाएं लिखी हैं, वह पाठकों के लिए जहां एक और व्यंग्य का वातावरण बनाएंगीं, वहीं दूसरी ओर उन्हें शिक्षा का नया पाठ भी अवश्य पढ़ाएेंगीं। आलोक सक्सेना के इस संग्रह के प्रकाशन ने यह सिद्ध कर दिया है कि आलोक सक्सेना व्यंग्य के प्रति अपने उत्तरदायित्व और निष्ठा को निभाने में पीछे नहीं हटते।
व्यंग्यकार आलोक सक्सेना भारतीय प्रसारण सेवा में टैक्नीकल डॉयरेक्टर जैसे प्रतिष्ठित राजपत्रित पद पर रहते हुए भी अपने आसपास की विसंगतियों को देखकर हमेशा करारा व्यंग्य करते हैं। यही कारण है कि उनके व्यंग्य देशभर की समस्त राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित होते ही रहते हैं। आलोक सक्सेना के व्यंग्य के विषय सामान्य जनजीवन और सामाजिक पहलूओं से इस कदर जुड़े हुए होते हैं कि उन्हें पढ़ने पर हमेशा ताजा और नयापन का अनुभव होता है। सामाजिक विसंगतियों पर उनके प्रहार देखते ही बनते हैं।

– सुनील शून्य

 

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