संपादकीय

संकट में साथी बनी साइकिल

रमेश सर्राफ धमोरा
स्वतंत्र पत्रकार, (झुंझुनू राजस्थान)

तालाबंदी (लॉकडाउन) के दौरान देश के दूसरे प्रदेशों में कमाने गए लोगों को अपने घर जाने के लिए कोई साधन नहीं मिल पा रहे थे। ऐसे में करोड़ो लोग खुद को दूसरे प्रदेशों में फंसा हुआ महसूस कर रहे थे। इस दौरान लाखों लोग साइकिल पर 1000-1500 किलोमीटर की दूरी तय कर अपने घर पहुंचे। संकट के समय साइकिल ही उनके घर पहुंचने का एकमात्र साधन बनी। तालाबंदी के दौरान लाखों लोगों के घर पहुंचने का सबसे उपयोगी साधन बनने से लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गयी की साइकिल आज भी आम लोगों का सबसे सस्ता व सुलभ साधन है। इसकी प्रासंगिकता हमेशा बरकरार रहेगी।
पूरी दुनिया में पिछले दिनों विश्व साइकिल दिवस मनाया गया था। वेबीनार के माध्यम से बहुत जगह संगोष्ठी आयोजित कर साइकिल के महत्व पर प्रकाश डाला गया। इसी दौरान देश में साइकिल से जुड़ी दो ऐसी खबरें आई जिससे साइकिल एक बार फिर से चर्चा का मुख्य विषय बन गई। पहली खबर में एक 15 साल की एक लड़की अपने बीमार पिता को साइकिल पर बैठाकर गुडगांव से 12 सौ किलोमीटर दूर बिहार के अपने गांव ले जाती है। दूसरी खबर भारत की सबसे बड़ी साइकिल निर्माता कंपनी एटलस के बंद होने की थी।
प्रतिवर्ष 40 लाख साइकिल का उत्पादन करने वाली भारत की सबसे बड़ी व दुनिया की जानी मानी कंपनी एटलस के बंद होने से साइकिल उद्योग को बड़ा धक्का लगा है। एटलस की फैक्ट्री बंद होने से वहां काम करने वाले करीबन एक हजार लोगों के बेरोजगार होने का खतरा बढ़ गया है। एटलस साइकिल कंपनी की स्थापना 1951 में हुई थी। यह भारत की सबसे बड़ी साइकिल निर्माता कंपनी थी। इसका कई विदेशी साइकिल निर्माता कंपनियों के साथ भी गठबंधन था। जिस कारण एटलस कंपनी की साइकिल दुनिया भर की श्रेष्ठ साइकिलों में शुमार होती थी।
एटलस की साइकिल देश-विदेश में एक जाना माना ब्रांड था। अमेरिका के बड़े-बड़े डिपार्टमेंट स्टोर में भी एटलस कंपनी में बनी साइकिले बेची जाती थी। दुनिया की सबसें बड़ी साइकिल निर्माता कंपनी एटलस का विश्व साइकिल दिवस के दिन ही बंद हो जाना बड़े दुर्भाग्य की बात है। आज दुनिया भर के देशों में जहां साइकिल चलाने को बढ़ावा दिया जा रहा है। वहीं एक बड़ी साइकिल बनाने वाली कंपनी घाटे के चलते बंद हो जाती है। 2018 से ही दुनिया में पहली बार विश्व साइकिल दिवस मनाना शुरू हुआ था। इस बार तीसरा विश्व साइकिल दिवस मनाया गया है।

गुरुग्राम में रह रहे एक बीमार ऑटो रिक्शा चालक की 15 वर्षीय बेटी उसकी सहायता के लिए उसके साथ रह रही थी। अचानक तालाबंदी होने से पिता-पुत्री गुरुग्राम में फंस गये। उसके पास बिहार स्थित अपने गांव जाने के लिए कोई साधन नहीं था। बीमार आटो चालक का गुरुग्राम में उपचार भी नहीं हो पा रहा था। उसको लग रहा था कि यदि कोई साधन मिले तो वह यहां की बजाय बिहार जाकर अपने घर पर ही मरे तो ज्यादा अच्छा होगा। ऐसे में उसकी 15 साल की बेटी ने अपने बीमार पिता को साइकिल पर अपने घर ले जाने की ठानी और पिता से कहकर एक पुरानी साइकिल खरीदी। साइकिल के कैरीयर पर अपने बीमार पिता को बिठाकर 15 साल की ज्योति कुमारी 8 दिनों में 1200 किलोमीटर साइकिल चलाकर बिहार के दरभंगा जिले के अपने गांव में पहुंच गई।
जब ज्योति कुमारी की कहानी मीडिया में वायरल हुई तब बहुत से लोग उसको बधाई देने लगे। सभी जगह उसके हौसले की सराहना होने लगी। कई लोगों ने उसके पिता के ईलाज के लिये आर्थिक मदद करने की बात भी की। खेल मंत्रालय ने भी उसका ट्रायल लेने की घोषणा की है। लेकिन यदि ज्योति कुमारी को साइकिल नहीं मिली होती तो वह अपने बीमार पिता को लेकर कभी अपने घर नहीं पहुंच पाती।
किसी जमाने में जिसके पास साइकिल होती थी वह बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता था। कच्चा रास्ता होने की वजह से गांवो में तो कोई साइकिल को जानता भी नहीं था। गांव के लोग जब कभी शहरों में जाते थे। तब लोगों को साइकिल चलाते हुए देखते थे और फिर वे खुद भी धीरे-धीरे साइकिल चलाना सीख जाते थे। पहले शहरों में किराए पर भी साइकिले मिलती थी। आज से 30 वर्ष पूर्व तक अधिकांश लोग शहरों में साइकिल पर ही आवागमन करते थे।
अब तो विभिन्न प्रकार के फीचर से लैस गियर वाली कीमती साइकिले बाजार में आ गई है। लेकिन पहले लोगों के पास सामान्य साइकिले ही हुआ करती थी। जिनके पीछे एक कैरियर लगा रहता था। जिस पर व्यक्ति अपना सामान रख लेता था व जरूरत पड़ने पर दूसरे व्यक्ति को बैठा लेता था। कई बार तो साइकिल सवार आगे लगे डंडे पर भी अपने साथी को बिठाकर 3-3 लोग साइकिल पर सवारी करते थे। साइकिल से वातावरण में किसी तरह का प्रदूषण नहीं होता था। पेट्रोल डलवाने का झंझट भी नहीं था। साइकिल उठाई पैडल मारे और पहुंच गए अगले स्थान पर। पहले के जमाने में साइकिल के आगे एक छोटी सी लाइट भी लगी रहती थी। जिसका डायनुमा पीछे के टायर से जुड़ा रहता था। साइकिल सवार जितनी तेजी से साइकिल चलाता उतनी ही अधिक लाइट की रोशनी होती थी।
बढ़ते प्रदूषण की वजह से दुनिया के बहुत से देशों में साइकिल चलाने को बढ़ावा दिया जा रहा है। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम में सिर्फ साइकिल चलाने की ही अनुमति है। भारत में भी दिल्ली, मुंबई, पुणे, अहमदाबाद और चंडीगढ़ में सुरक्षित साइकिल लेन का निर्माण किया गया है। उत्तर प्रदेश में भी एशिया का सबसे लंबा साइकिल हाई वे बना है। जिसकी लंबाई करीबन 200 किलोमीटर से अधिक है।
भारत में साइकिल ने आर्थिक तरक्की में अहम भूमिका निभाई है। आजादी के बाद अगले कई दशक तक देश में साइकिल यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा रहती थी। 1960 से 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिले होती थी। यह व्यक्तिगत यातायात का सबसे किफायती, सस्ता और सबसे सुगम साधन था। शहरों में आज भी दूध की सप्लाई ज्यादातर साइकिल के माध्यम से ही की जाती है। डाक विभाग का पोस्टमैन तो आज भी साइकिल पर चिट्टियां बांटते मिलते हैं। देश की युवा पीढ़ी को अब साइकिल के बजाय मोटरसाइकिल ज्यादा अच्छी लगने लगी है। इसके उपरांत में भारत में साइकिल की अहमियत कभी खत्म नहीं हो सकती है। इसी कारण चीन के बाद आज भी भारत दुनिया में सबसे ज्यादा साइकिल बनाने वाला देश है।
हमारे देश की सरकार साइकिल परिवहन व्यवस्था में मूलभूत सुधार करके आम लोगों को साइकिल चलाने के लिए प्रेरित कर सकती है। सरकार के इस कदम से ऐसे सभी लोग प्रेरणा पा सकते हैं जिनकी प्रतिदिन औसत यातायात दूरी 5 से 10 किलोमीटर के आसपास रहती है। देश के कई राज्य सरकारें भी स्कूली छात्र छात्राओं को बड़ी संख्या में निशुल्क साइकिलो का वितरण कर रही है। जिससे साइकिल चलाने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है।
द एनर्जी एण्ड रिसर्च इंस्टीट्यूट के अनुसार पिछले एक दशक में साइकिल चलाने वालों की ग्रामीण क्षेत्रों में संख्या 43 प्रतिशत से बढ़कर 46 प्रतिशत हुई है। शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 46 से घटकर 42 फीसदी पर आ गई है। इसकी मुख्य वजह साइकिल सवार का असुरक्षित होना पाया गया है। अभी देश में साइकिल चालकों के अनुपात में साइकिल रोड़ विकसित किए जाने की प्रबल आवश्यकता है। पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से देखा जाए तो दुनिया के देशों में साइकिल की वापसी पर्यावरण की दृष्टि से एक शुभ संकेत माना जा सकता है।

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