संपादकीय

स्वास्थ्य जीतेगा और ‘साफ्ट ड्रिंक्स’ ही हारेंगे

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट)
सर्वोच्च न्यायालय ने एक सामाजिक कार्यकर्ता उम्मेद सिंह की याचिका संक्षिप्त सुनवाई के बाद 5 लाख रुपये जुर्माने के आदेश के साथ रद्द कर दी। याचिकाकर्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद-32 के अन्तर्गत प्रस्तुत अपनी याचिका में यह प्रार्थना की थी कि कोकाकोला, थम्सअप तथा अन्य ठंडे पेय पदार्थों की बिक्री तथा प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगाया जाये तथा सामान्य जनता को इनके विरुद्ध जागृत किया जाये क्योंकि इनका प्रयोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। याचिकाकर्ता ने इस याचिका में यह भी प्रार्थना की थी कि भारत सरकार को वे सब वैज्ञानिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जाये जिनके आधार पर इन पेय पदार्थों के विक्रय की अनुमति दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय ने इस याचिका को रद्द करने का मुख्य आधार यह व्यक्त किया है कि याचिकाकर्ता को प्रस्तुत विषय की पूर्ण तकनीकी जानकारी नहीं है। उसे किस स्रोत से यह जानकारी प्राप्त हुई है उसका भी विवरण प्रस्तुत नहीं किया गया। याचिका में केवल दो ब्राण्ड को ही प्रतिबन्ध का लक्ष्य क्यों बनाया गया है। इन कारणों के आधार पर याचिका को अनुचित उद्देश्यों वाला प्रयास ठहराया गया और याचिका को 5 लाख रुपये के जुर्माने के साथ निरस्त कर दिया गया।
भारत के न्यायाधीश अक्सर जनहित याचिकाओं को पहली नजर में ही स्वार्थी उद्देश्यों वाला प्रयास मानकर इस प्रकार के प्रश्न प्रारम्भ कर देते हैं। भारतीय न्याय व्यवस्था की यह मानसिकता भी एक गम्भीर न्यायिक सिद्धान्त के विरुद्ध दिखाई देती है जो किसी भी याचिकाकर्ता को अपनी याचिका का एक-एक शब्द एक विशेषज्ञ की तरह सिद्ध करने के लिए मजबूर करती है। जबकि वास्तव में न्यायाधीश को अपने सामने प्रस्तुत होने वाले किसी भी विषय पर स्वयं गहराई से विचार-विमर्श करना चाहिए और यदि कोई ऐसा तकनीकी विषय हो जो न्यायाधीश की व्यक्तिगत बुद्धि से बाहर हो तो न्यायाधीश को उस विषय के किसी विशेषज्ञ से खुली अदालत में विचार मांगने में संकोच नहीं करना चाहिए। ऐसा कभी-कभी अदालतों में होता भी है। यहाँ तक कि भारत की संसद भी जब किसी विषय पर गहरी जानकारी की इच्छुक होती है तो ऐसे विशेषज्ञों को संसद में बुलाकर उनके विचार सुने जाते हैं जो किसी भी सदन के सदस्य नहीं होते। इस प्रकार तकनीकी विषयों को केवल याचिकाकर्ता या किसी एक व्यक्ति की प्रस्तुति पर ही समाप्त नहीं किया जाना चाहिए। जहाँ तक केवल दो ब्राण्ड चुनकर याचिका की प्रार्थना में व्यक्त करने पर अदालत द्वारा आपत्ति उठाई गई है वह पूरी तरह गलत है क्योंकि याचिका की प्रार्थना इन दो नामों के अतिरिक्त अन्य ठंडे पेय पदार्थों पर प्रतिबन्ध की माँग भी कर रही थी।
जहाँ तक बाजार में बिकने वाले ठण्डे पेय पदार्थों के स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभावों तथा उनके पीछे तकनीकी जानकारी का प्रश्न है तो इस प्रश्न का उत्तर सारा जग जानता है। इस सम्बन्ध में ढेरों तकनीकी जानकारियाँ इण्टरनेट पर भी उपलब्ध हैं। सर्वप्रथम तो इन ठण्डे पेय पदार्थों का प्रसिद्ध नाम ‘साॅफ्ट-डिंªक’ ही अपना परिचय स्वयं देता है। ‘साॅफ्ट-डिंªक’ को समझने के लिए इसके विपरीत शब्द ‘हार्ड-ड्रिंक’ को समझना पड़ेगा। शराब आदि नशा उत्पन्न करने वाले पदार्थों को ‘हार्ड-ड्रिंक’ कहा जाता है क्योंकि इन नशीले तरल पदार्थों को पीने के बाद व्यक्ति का मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है। इन पदार्थों को तैयार करने के लिए एल्कोहल की मात्रा बढ़ाई जाती है। शराब आदि पदार्थों को ‘हार्ड-ड्रिंक’ कहने की प्रथा अमेरिका से प्रारम्भ हुई थी। इससे पूर्व इंग्लैण्ड में इन पदार्थों को ‘स्प्रिट’ कहा जाता था। ‘हार्ड-ड्रिंक’ के विपरीत जिन पेय पदार्थों में एल्कोहल का प्रयोग नहीं किया जाता उन्हें ‘साफ्ट-ड्रिंक’ कहा जाता है। इनके निर्माण में भारी मात्रा में चीनी या अन्य शर्बत तथा भारी मात्रा में भिन्न-भिन्न प्रकार के रासायनिक पदार्थ प्रयोग किये जाते हैं। सारे विश्व के भिन्न-भिन्न वैज्ञानिक अनुसंधानों में इन ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ के प्रयोग से होने वाली हानियों को विधिवत सिद्ध किया गया है।
‘अमेरिकन फिजियोलाॅजिकल सोसाइटी’ ने अपनी एक अनुसंधान रिपोर्ट में कहा है कि इन ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ के प्रयोग से किडनी खराब होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। ‘अमेरिकन हार्ट ऐसोसिएशन’ ने अपनी अनुसंधान रिपोर्ट में कहा है कि ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ पीने के बाद एक स्वस्थ और जवान व्यक्ति की रक्त नाड़ियों में भी संकुचन पैदा होता है। ‘इण्टरनेशनल एजेंसी फाॅर कैंसर रिसर्च’ ने 4.5 लाख लोगों पर 16 वर्ष तक अनुसंधान करने के बाद अपनी रिपोर्ट में यह कहा है कि प्रतिदिन दो या अधिक गिलास ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ पीने वाले व्यक्ति की शीघ्र मृत्यु की अधिक सम्भवना होती है। इंग्लैण्ड द्वारा वर्ष 2015 में करवाये गये एक अनुसंधान में यह पाया गया था कि प्रतिवर्ष 1 लाख 84 हजार युवकों की मृत्यु का मुख्य कारण ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ का अधिक सेवन था। इन ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ के सेवन से शुगर की अधिक मात्रा शरीर में प्रवेश करती है। व्यक्ति अधिक भूखा महसूस करता है, अधिक खाने लगता है और परिणामतः शरीर मोटा होने लगता है। ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ का सीधा असर दांतों पर तो सबसे पहले दिखाई देना प्रारम्भ हो जाता है। थाइरायड की समस्या भी ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ के पीने से बढ़ती है। शुगर के बढ़ने से लिवर पर भी वसा जमने लगती है। ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ की मिठास और इसमें शामिल रासायन शरीर के इंसुलिन को भी निष्प्रभावी कर देते हैं जिसके कारण भयंकर मधुमेह रोग बीमारी का बहुत बड़ा जाल बना लेते हैं। यह वास्तविकता है कि इन कोल्ड-ड्रिंक्स में किसी भी प्रकार का कोई पोषक तत्त्व नहीं होता है। आज तक इसे बनाने वाली कम्पनियाँ भी किसी पोषकता का दावा करती हुई दिखाई नहीं दी। ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ में शामिल रसायनों को धीमे नशे वाली श्रेणी में माना जाता है। अतः एक गिलास ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ का शरीर के लिवर और किडनी आदि पर उतना ही प्रभाव पड़ता है जितना एक गिलास ‘हार्ड-ड्रिंक्स’ अर्थात् शराब का।
इन सामान्य जानकारियों को एक सामान्य व्यक्ति भी इण्टरनेट पर थोड़े से अध्ययन के बाद एकत्र कर सकता है, परन्तु सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के पास इतना समय नहीं कि वे अपने बल पर किसी मुकदमें में निर्धारित ज्ञान को अर्जित करे। स्वयं न सही, किसी भी याचिका में प्रस्तुत विषय के साथ उचित न्याय करने की यदि छोटी सी इच्छा भी होती तो ऐसी तकनीकी जानकारियों के लिए किसी भी विशेषज्ञ को अदालत में बुलाया जा सकता था। अदालतें आये दिन विशेषज्ञ वकीलों को भी ‘अदालत का मित्र’ नाम से अलंकृत करके विशेष मुकदमों की सहायता के लिए आमंत्रित करती हैं। परन्तु इस याचिका को 5 लाख जुर्माने के साथ रद्द करके सर्वोच्च न्यायालय ने याचिकाकर्ता के साथ ही नहीं अपितु एक महत्त्वपूर्ण विषय को भी पैदा होने से पहले ही समाप्त कर डाला है। इस प्रकार बिना बहस के ही ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ जीत गये और स्वास्थ्य हार गया। परन्तु भारतवासियों की संस्कृति पर विश्वास करते हुए हमें यह आशा रहेगी कि भारतवासियों का स्वास्थ्य जीतेगा और भविष्य में ‘साफ्ट ड्रिंक्स’ ही हारेंगे। कोरोना महामारी के संग्राम ने भारतवासियों के हौंसले और बुलन्द कर दिये। भारतवासी अब प्रकृति के और निकट आयेंगे, क्योंकि वे प्रकृति को माँ ही मानते हैं।
अदालत के इस निर्णय से न्यायिक प्रक्रिया के हल्केपन से जुड़ी निराशा तो सामने आई है परन्तु ऐसी याचिकाओं में अदालतें शायद विधिवत सुनवाई के बाद भी कोई सकारात्मक आदेश न दे पाती, क्योंकि भारत का संविधान किसी भी नागरिक को किसी भी व्यापार की स्वतंत्रता देता है, परन्तु यह भी निश्चित है कि अनुच्छेद-16(जी) प्रदत्त व्यापार की स्वतंत्रता पर सरकार ही कोई अंकुश लगा सकती है यदि वह व्यापार जनता के हित में न हो। ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ को प्रतिबन्धित करने का निर्णय अदालतों के अधिकार क्षेत्र में भी नहीं था, परन्तु अदालत इस विषय को केन्द्र सरकार के समक्ष अवश्य प्रस्तुत कर सकती थी जिस पर तकनीकी विशेषज्ञ जानकारियों और अनुसंधानों के आधार पर विचार किया जाता। वैसे सरकार तो कभी भी ‘साफ्ट-ड्रिंक्स’ ही क्या ‘हार्ड-ड्रिंक्स’ पर भी प्रतिबन्ध लगाने जैसे कड़े निर्णय नहीं ले पायेगी, क्योंकि सरकारों को इन व्यापारों से मिलने वाला राजस्व अधिक प्रिय है, लोगों का पूर्ण स्वास्थ्य नहीं। कोरोना महामारी के दौरान लाॅकडाउन की प्रक्रिया में सबसे पहली ढील शराब की बिक्री के नाम पर दी गई। इसलिए विश्व की जनता को अपने विवेक से ऐसे निर्णय लेने होगें कि वे क्या खायें और क्या पियें, क्या न खायें और क्या न पियें। अदालतें और सरकारें तो केवल नाममात्र के लोकतांत्रिक भगवान बने फिरते हैं।

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