संपादकीय

अब तो बंगला खाली कर दो नेताजी…

-ज्योति मिश्रा
फ्रीलांस जर्नलिस्ट (ग्वालियर म.प्र.)
सरकार बदलते ही बहुत कुछ बदल रहा है और इसी कड़ी में नेताओं के बंगले भी बदल रहे हैं और उन्हीं बंगलों पर अब सियासत तेज हो गई है। सियासत गरमाई भी इसीलिए है क्योंकि जो भाजपाई पुरखे हैं वह 15 सालों से बराबर बंगले में टिके हुए हैं और सरकार गिरने के बाद भी बंगले से टस से मस होने का नाम नहीं ले रहे हैं। पिछले 15 साल से राजधानी भोपाल के सरकारी बंगलों में रहने वाले कुछ भाजपा नेताओं ने जहां एक ओर अपना बोरिया-बिस्तर समेट लिया है तो वहीं कुछ नेता अभी भी मोहलत मांग रहे हैं। ये तो हो गई भाजपाई पुरखों की बात अब कांग्रेसियों की बात करें तो उधर डेढ़ दशक बाद सत्ता में लौटी कांग्रेस सरकार के मंत्री उन्हें आबंटित बंगलों की साज-सज्जा से लेकर वास्तु के लिहाज से कई बड़े बदलाव करवा रहे हैं।
अब कुछ लोग ऐसे है जो बीते नौ माह से बंगले का इंतजार कर रहे हैं लेकिन बंगले का मुंह नहीं देख पा रहे जैसे कि ज्योतिरादित्य सिंधिया, उनको पूर्व मंत्री भूपेंद्र सिंह का बंगला पसंद आया लेकिन आबंटन के चक्कर में उनका बंगला अधर में अटक गया। वहीं भाजपा प्रदेशाध्यक्ष राकेश सिंह ने छह महीने तक बंगले में काफी काम कराया लेकिन अब उनका आबंटन निरस्त कर दिया गया है। पीडब्ल्यूडी मंत्री सज्जन सिंह वर्मा के बंगले में सबसे बड़ा रिनोवेशन हो रहा है तो मंत्री कमलेश्वर पटेल और गोविंद सिंह राजपूत छोटे बंगले मिलने से खफा हैं और उन्होंने बड़े बंगले की फरमाईश की है।
गोपाल भार्गव का बंगला बृजेंद्र सिंह राठौर को आबंटित हुआ था, लेकिन भार्गव अब नेता प्रतिपक्ष हैं, इसीलिए शायद वे बंगला खाली नहीं करेंगे तो वहीं पूर्व मंत्री नरोत्तम मिश्रा का बी-6 बंगला खेल मंत्री जीतू पटवारी को मिला है लेकिन मिश्रा इसे खाली न करने की जिद पर बराबर अड़े हुए हैं और इसी वजह से पटवारी अपने पुराने बंगले डी-13 का ही रिनोवेशन करा रहे हैं क्योंकि उनको भी पता है कि सांप के बिलों को खाली करना कोई आसान काम नहीं। तो वहीं बंगलों को लेकर उच्च शिक्षा एवं खेल मंत्री जीतू पटवारी और सामान्य प्रशासन विभाग एवं संसदीय कार्यमंत्री डॉ. गोविंद सिंह का कहना है की हम किसी को परेशान नहीं करना चाहते है सभी लोग आराम से खाली कर देंगे।
लेकिन बात तो यह है कि प्रदेश और देश की जनता ये सारा तमाशा देख रही है और ये महसूस भी कर रही है कि दोनों ही राजनीतिक पार्टियां दरअसल नीतियों और जनभावनाओं की नहीं बल्कि अपने निजी हितों की राजनीति कर रहे हैं।

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