संपादकीय

अब मुस्लिम महिलाओं के मस्जिदों में प्रवेश की आशा

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने राम जन्म भूमि मुकदमें का निर्णय सुनाकर लगभग 6 दशकों से अधिक चलने वाली एक सामाजिक समस्या का पूर्ण समाधान कर दिखाया है। इस निर्णय ने यह सिद्ध किया है कि भारत की राजनीतिक व्यवस्था एक लम्बे समय से इस समस्या का समाधान क्रियान्वित करने में पूरी तरह निकम्मी साबित हो चुकी थी। वर्ष 1947 में भारत के स्वतंत्र होने से पूर्व अनेकों शताब्दियाँ गुलामी में बीती थीं। पहले मुगल शासकों की गुलामी और अन्त के लगभग 300 साल ब्रिटिश इसाई शासकों की गुलामी के बाद स्वतंत्र भारत को अत्यन्त कमजोर नेतृत्व प्राप्त हुआ। हालांकि कि स्वतंत्रता के बाद भारतीय संविधान के रूप में एक सुन्दर लोकतांत्रिक राज्य का मार्ग प्रशस्त किया गया जिसमें एक के बाद एक सरकारों को चुनने और बदलने का मताधिकार नागरिकों को मिला और साथ ही नागरिकों को अनेकों मूल अधिकार भी प्राप्त हुए। ऐसी संवैधानिक व्यवस्था के बावजूद भारतीय लोकतंत्र का तथाकथित नेतृत्व एक रामजन्म भूमि ही नहीं अपितु अनेकों सामाजिक समस्याओं पर राजनीतिक समाधान देने में विफल रहा। इसका स्पष्ट कारण दिखाई देता रहा कि राजनेता और उनके दल अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार वोट बैंक बनाकर लोकतंत्र का खेल रचते रहे। इसलिए अनेकों प्रकार की सामाजिक समस्याओं का समाधान ढूंढ़ते-ढूंढ़ते भारतीय नागरिकों को राज्यों के उच्च न्यायालयों या भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वार खटखटाने पड़े।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की महान छवि बनाने के पीछे भारतीय लोकतंत्र का खोखलापन एक मुख्य कारण है। तमिलनाडु के राजनेता अपने-अपने वोट बैंक का नुकसान न करने से प्रेरित होने के कारण पशुओं पर क्रूरता की रोकथाम जैसे कानूनों का सहारा लेकर भी जलिकट्टू जैसी सामाजिक बुराई को रोकने में विफल रहते हैं तो सर्वोच्च न्यायालय को इस सामाजिक बुराई के विरुद्ध निर्णय देना पड़ता है। सबरीमाला मंदिर में 10 से लेकर 50 वर्ष तक की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध के रूप में चलती सामाजिक बुराई को भी केरल के राजनेता विफल रहते हैं तो सर्वोच्च न्यायालय को ही यह बुराई समाप्त करने का निर्णय देना पड़ता है। किसी परिवार की युवा लड़की यदि अपनी पसन्द के किसी ऐसे लड़के से शादी कर लेती है जो उसके परिवार की परम्पराओं से सम्बन्धित नहीं होता तो परिवार के सम्मान के नाम पर उस कन्या की हत्या कर दी जाती है और ऐसी हत्या को बेशर्मी पूर्वक ‘सम्मान हत्या’ कहा जाता है। राजनेता के साथ-साथ पुलिस और प्रशासन भी जब ऐसी प्रवृत्तियों को रोक नहीं पाता, सरकारें जनता को यह नहीं समझा पातीं कि ऐसी हरकतें सम्मान हत्या नहीं अपितु देश की नारी जाति की ‘अपमान हत्या’ है तो सर्वोच्च न्यायालय को ही अपने निर्णयों के माध्यम से ऐसी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए कड़े संदेश जारी करने पड़ते हैं। तीन तलाक जैसी अमानवीय सामाजिक बुराई पर भी भारत का लोकतंत्र स्वयं हिम्मत करके कोई निर्णय नहीं ले पाया तो सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का सहारा लेकर श्री नरेन्द्र मोदी जैसे जीवन्त प्रधानमंत्री ने संसद में इस बुराई को समाप्त करने के लिए विधिवत एक कानून का रूप दिया। खाप पंचायतें हों या मुस्लिम मौलानाओं के फतवे, जब राजनेताओं के अन्तर्गत चलने वाला पुलिस और प्रशासन किसी भी सामाजिक बुराई को समाप्त करने से पूर्व उन राजनेताओं के इशारों को महत्त्व देता है जिन्हें सामाजिक बुराईयों पर चोट करते हुए अपना वोट बैंक खिसकता दिखाई देता है तो बार-बार सर्वोच्च न्यायालय को जनहित याचिकाओं के माध्यम से अंगड़ाई लेनी ही पड़ती है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विगत 70 वर्षों की न्यायिक यात्रा में यह सिद्ध कर दिखाया है कि भारत का लोकतंत्र अपने आप केवल राजनेताओं के कंधों पर नहीं चल सकता। इस प्रकार भारतीय लोकतंत्र को एक न्यायिक लोकतंत्र का रूप देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के अब तक के सभी न्यायाधीशों का जितना साधुवाद किया जाये उतना कम है। भारत का लंगड़ा लोकतंत्र सर्वोच्च न्यायालय नामक वैशाखियों के सहारे चल रहा है। यह बुरी व्यवस्था नहीं है, परन्तु अच्छा यह होता कि भारत का लोकतंत्र हर प्रकार के कड़े निर्णय अपने कंधों पर लेता। परन्तु इस लोकतंत्र को चलाने वाले राजनेताओं के कंधे ही कमजोर थे। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान की तो इससे भी बुरी हालत है। उनका लंगड़ा लोकतंत्र तो क्रूर मिलिट्री जैसी संस्था के सहारे चल रहा है, इसीलिए उनका लोकतंत्र पूरी तरह से मर चुका है। पाकिस्तान का लोकतंत्र वास्तव में आतंकी लोकतंत्र है।
भारतीय लोकतंत्र में स्वयं लोकतंत्र से सम्बन्धित अनेकों विषय ऐसे हैं जिन पर राजनेता कड़े निर्णय लेने की स्थिति में नहीं हैं। यहाँ तक कि भारतीय लोकतंत्र का नेतृत्त्व अपराधी तत्त्वों को न सौंपने के विषय पर भारतीय राजनेता सर्वोच्च न्यायालय के बार-बार जारी निर्देशों के बावजूद भी निर्वाचन सुधारों को पूरी तरह से लागू करने में विफल रहे हैं।
भारतीय समाज में अभी भी अनेकों ऐसी बुराईयाँ लम्बे समय से चलती आ रही हैं जो भारतीय संविधान की भावनाओं के पूरी तरह विरुद्ध दिखाई देती हैं। देर-सवेर सर्वोच्च न्यायालय को ही इन बुराईयों के विरुद्ध निर्णय जारी करने पड़ेंगे। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अब भारत की मस्जिदों में महिलाओं का प्रवेश सुनिश्चित कराने के लिए भी एक याचिका प्रस्तुत की जा चुकी है। हाल ही में मुख्य न्यायाधीश की पीठ ने इस याचिका पर केन्द्र सरकार के सम्बन्धित मंत्रालयों को नोटिस जारी करके जवाब मांगा है। यह याचिका पुणे के एक मुस्लिम दम्पत्ति यासमीन तथा जुबेर अहमद ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की है। याचिका में कहा गया है कि भारतीय मुस्लिम महिलाओं का मस्जिदों में प्रवेश रोकना संविधान के अनुच्छेद-14 द्वारा प्रदत्त समानता के अधिकार तथा अनुच्छेद-15 द्वारा प्रदत्त लैंगिक न्याय और अनुच्छेद-21 द्वारा प्रदत्त जीवन की स्वतंत्रता का उल्लंघन है। किसी भी व्यक्ति के लिए समानता और गर्व के साथ जीवन जीना उसका मूल अधिकार होता है। इस जनहित याचिका पर प्रथम सुनवाई में नोटिस जारी करते समय सर्वोच्च न्यायालय ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि सबरी माला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश सम्बन्धी निर्णय के कारण ही मुस्लिम महिलाओं के मस्जिद में प्रवेश की याचिका पर नोटिस जारी किया जा रहा है। उल्लेखनीय है कि वर्ष 2018 के सितम्बर माह में सर्वोच्च न्यायालय ने सबरी माला मंदिर का निर्णय दिया था। अब मुस्लिम महिलाओं के मूल अधिकार को लेकर भी सर्वोच्च न्यायालय को ही एक बार फिर कड़ा निर्णय जारी करना होगा, क्योंकि लोकतांत्रिक रहनुमाओं से तो किसी भी सामाजिक बुराई को समाप्त करने की आशा नहीं की जा सकती। सर्वोच्च न्यायालय के कारण ही भारत में न्यायिक लोकतंत्र दिखाई देता है।

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