संपादकीय

पीरूसिंह की बहादुरी से डर गया था पाकिस्तान

18 जुलाई शहादत दिवस पर विशेष

-रमेश सर्राफ धमोरा
स्वतंत्र पत्रकार (झुंझुनू,राजस्थान)

भारत चीन सीमा पर इस वक्त भारी तनाव बना हुआ है। दोनों देशों की सेना आमने सामने डटी हुई है। गत वर्ष 15 जून की रात को दोनों देशों के सैनिकों में हिंसक झड़प भी हो चुकी है। जिसमें भारत के बीस वीर जवान शहीद हुए थे। वहीं चीन के भी कई दर्जन सैनिक मारे गए थे। सीमा पर युद्ध के हालात में दोनों देशों के सैन्य कमांडर आपसी वार्ता कर शांति बनाए रखने का प्रयास कर रहे हैं। इधर पाकिस्तान भी सीमा पर सैन्य गतिविधियां बढ़ा रहा है। ऐसे में हमें याद आते हैं 1948 में भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए हवलदार मेजर पीरूसिंह शेखावत। जिन्हे युद्ध में अदम्य बहादुरी के लिए भारत सरकार ने मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया था। मौजूदा हालात में परमवीर पीरूसिंह शेखावत जैसे सैनिको की वीरता की कहानियां सीमा पर डटे हमारे सैनिकों में एक नए जोश का संचार करती है। उन्हें भारत माता की सीमा की रक्षा करते हुए मर मिटने की प्रेरणा देती है।
रणबाकुरों की धरती का झुंझुनू जिला राजस्थान में ही नहीं अपितु पूरे देश में वीरता के क्षेत्र में अपना अलग ही स्थान रखता है। पूरे देश में सर्वाधिक सैनिक देने वाले इस जिले की मिट्टी के कण-कण से वीरता टपकती है। देश के खातिर स्वयं को उत्सर्ग कर देने की परम्परा यहां सदियों पुरानी है। मातृभूमि के लिए हंसते-हंसते मिट जाना यहां गर्व की बात है। देश के लिये मिट जाने की परम्परा में नये आयाम स्थापित किये 1947-48 में पाक समर्थित कबालियों से युद्ध में हवलदार मेजर पीरूसिंह शेखावत ने। जब उन्होने देश हित में स्वयं को कुर्बान कर देश की आजादी की रक्षा की थी।
राजस्थान में झुंझुनू जिले के बेरी गांव में 20 मई 1918 को ठाकुर लालसिंह शेखावत के घर जन्मे पीरूसिंह चार भाईयों में सबसे छोटे थे। पीरूसिंह राजपूताना राईफल्स की छठी बटालियन की डी कम्पनी में हवलदार मेजर थे। 1947 के भारत- पाक विभाजन के बाद जब कश्मीर पर कबालियों ने हमला कर हमारी मातृभूमि का कुछ हिस्सा दबा बैठे तो कश्मीर नरेश ने अपनी रियासत को भारत में विलय की घोषणा कर दी। इस पर भारत सरकर ने अपनी भूमि की रक्षार्थ वहां सेना भेजी। इसी सिलसिले में राजपूताना राईफल्स की छठी बटालियन की डी कम्पनी को भी टिथवाला के दक्षिण में तैनात किया गया था। 5 नवम्बर 1947 को भयंकर सर्दी के मौसम में यह बटालियन हवाई जहाज से वहां पहुंची। श्रीनगर की रक्षा करने के बाद उरी सेक्टर से पाक कबायली हमलावरों को खदेड़ने में इस बटालियन ने बड़ा साहसी कार्य किया था।
मई 1948 में छठी राजपूत बटालियन ने उरी और टिथवाल क्षेत्र में झेलम नदी के दक्षिण में पीरखण्डी और लेडीगली जैसी प्रमुख पहाडियों पर कब्जा करने में विशेष योगदान दिया। इन सभी कार्यवाहियों के दौरान पीरूसिंह ने अद्भुत नेतृत्त्व और साहस का परिचय दिया। जुलाई 1948 के दूसरे सप्ताह में जब दुश्मन का दबाव टिथवाल क्षेत्र में बढने लगा तो छठी बटालियन को उरी क्षेत्र से टिथवाल क्षेत्र में भेजा गया। टिथवाल क्षेत्र की सुरक्षा का मुख्य केन्द्र दक्षिण में 9 किलोमीटर पर रिछमार गली था। जहां की सुरक्षा को निरन्तर खतरा बढ़ता जा रहा था।
अतः टिथवाल पहुंचते ही राजपूताना राईफल्स को दारापाड़ी पहाड़ी की बन्नेवाल दारारिज पर से दुश्मन को हटाने का आदेश दिया गया था। यह स्थान पूर्णतः सुरक्षित था और ऊंची-ऊंची चट्टानों के कारण यहां तक पहुंचना कठिन था। जगह तंग होने से काफी कम संख्या में जवानों को यह कार्य सौंपा गया। 18 जुलाई को छठी राज राईफल्स ने सुबह हमला किया जिसका नेतृत्त्व हवलदार मेजर पीरूसिंह कर रहे थे। पीरूसिंह की प्लाटून आगे बढ़ती गई। उस पर दुश्मन की दोनों तरफ से लगातार गोलियां बरस रही थी। अपनी प्लाटून के आधे से अधिक साथियों के मारे जाने पर भी पीरूसिंह ने हिम्मत नहीं हारी। वे लगातार अपने साथियों को आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते रहे एवं स्वयं अपने प्राणों की परवाह न कर आगे बढ़ते रहे। वे अन्त में उस स्थान पर पहुंच गये जहां मशीन गन से गोले बरसाये जा रहे थे। उन्होंने अपनी स्टेनगन से दुश्मन के सभी सैनिकों को भून दिया जिससे दुश्मन के गोले बरसने बन्द हो गये।
जब पीरूसिंह को यह अहसास हुआ कि उनके सभी साथी मारे गये तो वे अकेले ही आगे बढ़ चले। रक्त से लहू-लुहान पीरूसिंह अपने हथगोलों से दुश्मन का सफाया कर रहे थे। इतने में दुश्मन की एक गोली आकर उनके माथे पर लगी और गिरते- गिरते भी उन्होंने दुश्मन की दो खंदके नष्ट कर दी। अपनी जान पर खेलकर पीरूसिंह ने जिस अपूर्व वीरता एवं कर्तव्य परायणता का परिचय दिया था। वह भारतीय सेना के इतिहास में शौर्य का एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है। देश हित में पीरूसिंह ने अपनी विलक्षण वीरता का प्रदर्शन करते हुये अपने अन्य साथियों के समक्ष अपनी वीरता, दृढ़ता व मजबूती का उदाहरण प्रस्तुत किया। इस कारनामे को विश्व के अब तक के सबसे साहसिक कारनामो में से एक माना जाता है। तत्कालीन प्रधानमंत्री पण्डित जवाहर लाल नेहरू ने उस समय उनकी माता श्रीमती तारावती देवी को लिखे पत्र में लिखा था कि देश कम्पनी हवलदार मेजर पीरू सिंह का मातृभूमि की सेवा में किए गए उनके बलिदान के प्रति कृतज्ञ है।
पीरूसिंह को इस वीरता पूर्ण कार्य पर भारत सरकार ने मरणोपरान्त ’’परमवीर चक्र’’ प्रदान कर उनकी बहादुर का सम्मान किया। अविवाहित पीरूसिंह की ओर से यह सम्मान उनकी मां ने राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद से हाथों ग्रहण किया। परमवीर चक्र से सम्मानित होने वाले हवलदार मेजर पीरूसिंह राजस्थान के पहले व भारत के दूसरे परमवीर चक्र विजेता सैनिक थे। पीरूसिंह के जीवन से प्रेरित होकर राजस्थान का हर बहादुर फौजी के दिल में हरदम यही तमन्ना रहती है कि मातृभूमि के लिए शहीद हो जाने से बढ़कर और कोई काम नहीं होता है। राजस्थानी के कवि उदयराज उज्जवल ने ठीक ही कहा है:-

टिथवाल री घाटियां, विकट पहाड़ा जंग।
सेखो कियो अद्भुत समर, रंग पीरूती रंग।।

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