संपादकीय

घरेलू हिंसा का दायरा

-सिद्धार्थ शंकर
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 1993 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा घरेलू हिंसा को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय घोषणा पत्र तैयार किया गया था, जिसमें घरेलू हिंसा को परिभाषित करने और रोकने की बात कही गई थी। इसी क्रम में भारत में 2005 में घरेलू हिंसा रोकने के लिए कानून भी बनाया गया था। पर आज का समय बदला हुआ है, रुका हुआ है और इसमें विकल्पों का घोर अभाव है। दरअसल, 1980 का दशक वह दशक था जब ज्यादातर महिलाओं की मृत्यु स्टोव फटने या डिबरी से मिट्टी का तेल गिरने से हो जाया करती थी। इन घटनाओं के पीछे की साजिश और कारणों की पड़ताल करने के बाद भारत में क्रूरता और दहेज हत्या को भारतीय दंड संहिता की धारा 498 क और 304 ख में अपराध भी घोषित किया गया। पर, यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विवाह हमारे समाज में संस्कार माना गया है। विवाह संस्था को बनाए रखने का हम सबका नैतिक और सामाजिक दायित्व बनाया गया है, और चूंकि आपराधिक विधि की अपनी सीमाएं हैं, जिसकी वजह से घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं को जरूरी मदद मुहैया नहीं हो पाती थी।
इसलिए ऐसे सिविल विधि की आवश्यकता महसूस की गई, जिसमें अपराध की शिकार महिला को त्वरित मदद व अन्य सुविधाएं मिल सकें। इसलिए घरेलू हिंसा रोकने के लिए वर्ष 2005 में एक अधिनियम बनाया गया, जिसमें घरेलू हिंसा की परिभाषा को उदार और व्यापक बनाने तथा पीड़िता को अर्थपूर्ण मदद दिलाने की पहल की गई। यहां घरेलू हिंसा से तात्पर्य था किसी भी प्रकार का शारीरिक, लैंगिक, मौखिक, भावनात्मक व आर्थिक दुव्र्यवहार। पीड़ित व्यक्ति का अर्थ ऐसी महिला से था जो आरोपी के साथ घरेलू संबंधों में है या रह चुकी है और जो यह आरोप लगाती है कि आरोपी द्वारा किसी प्रकार की घरेलू हिंसा की गई है। घरेलू संबंध का अर्थ दो व्यक्तियों के बीच ऐसा संबंध, जो किसी क्षण में सहभागी गृह में एक साथ रहते हैं या रह चुके थे। उल्लेखनीय है कि यहां लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला को भी घरेलू हिंसा से संरक्षण प्रदान किया गया है। वास्तव में दो वयस्क लोगों द्वारा सहमति से यौन संबंध चूंकि कोई अपराध नहीं और प्रेम व सहमति पर आधारित ऐसे संबंध में भी जब पितृसत्तात्मक संरचना हावी हो जाती है, तो वहां घरेलू हिंसा के मामले सामने आते हैं। इसलिए ऐसी महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने की बात अधिनियम में कही गई है।
प्रस्तुत अधिनियम में घरेलू हिंसा की शिकार महिला को संरक्षण आदेश, आर्थिक अनुतोष, निवास आदेश, अभिरक्षा आदेश, प्रतिकर आदेश एवं अंतरिम और एकपक्षीय आदेश प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया गया है। यह अधिनियम पुलिस अधिकारियों, सेवा प्रदाताओं और मजिस्ट्रेट के कर्तव्यों का उल्लेख करने के साथ-साथ आश्रय गृहों के कर्तव्यों का भी उल्लेख करता है। ऐसे अनुदेश प्राप्त करने के लिए पीड़ित व्यक्ति या संरक्षण अधिकारी या कोई अन्य पीड़ित व्यक्ति की ओर से मजिस्ट्रेट को आवेदन कर एक या फिर अधिक अनुतोषों की मांग कर सकता है। पर आज स्थिति बिल्कुल भिन्न है। आज कोर्ट, कचहरी, न्यायालय बंद हैं। थानों की पुलिस, कानून व्यवस्था बनाने और स्वास्थ्य आपदा से निपटने और अति आवश्यक कार्यों के संचालन में व्यस्त है। पर इस परिस्थिति का एक क्रूर परिणाम घरेलू हिंसा के मामलों में होने वाली दिन दूनी रात चैगुनी वृद्धि के रूप में दिखाई दे रहा है।
वास्तव में आज का समाज दुर्खीम के श्रम विभाजन के सिद्धांत के अनुसार इतना ज्यादा विभक्त हो चुका है, इतनी ज्यादा परनिर्भरता बढ़ चुकी है कि जहां एक व्यक्ति की आवश्यकता दस व्यक्तियों से पूरी होती थी, आज दस व्यक्तियों की भी आवश्यकता एक व्यक्ति से पूरी कराने की कवायद हो रही है। वास्तव में बच्चे, बूढ़े और दंपत्ति जब एक साथ एक घर में रह रहे हैं, तो अनेक फरमाइशों, आवश्यकताओं और दायित्वों का बोझ सिर्फ एक महिला के ऊपर आ गया है। हां, कुछ ऐसे भी लोग हैं जो नौकरी या अन्य कारणों से परिवार से अलग रह रहे हैं और इस बात से असहमत भी हो सकते हैं। पर इस समस्या की भयावहता गंभीर है और लगातार बढ़ रही है। संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटारेस ने इस समस्या को समझा और इस पर लगातार बात कर रहे हैं। उन्होंने वैश्विक स्तर पर बढ़ते घटनाक्रम को रोकने के लिए संघर्ष विराम का आह्वान तक कर दिया, क्योंकि यह समस्या कोरोना की तरह ही चीन से यूनान और ब्राजील से जर्मनी तक फैलती जा रही है। जहां अमेरिका का कानून घरेलू हिंसा की स्थिति में पक्षकारों को एक दूसरे से अलग रहने की बात करता है, वहीं भारत में उसी घर में रहने की बात कही गई है। कानूनी विसंगतियों की विडंबना यह है कि वर्तमान में मदद भी उपलब्ध नहीं है। आंकड़े यह बताते हैं कि लॉकडाउन के आरंभिक दौर में हेल्पलाइन नंबर पर घरेलू हिंसा संबंधी शिकायतों का प्रतिशत मात्र बीस था, पर अब इनमें नाटकीय ढंग से वृद्धि हो रही है। इसकी पुष्टि आइसलैंड की राजधानी निकोसिया की घरेलू हिंसा निवारण से जुड़ी अनीता ड्राका और भारतीय राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष ने भी की है।
राष्ट्रीय महिला आयोग ने अब एक वाट्सएप नंबर भी जारी कर दिया है। अधिकारियों का कहना है कि अब घर से फोन न कर पाने की स्थिति में महिलाएं संदेश भेज रही हैं, मगर इस घुटन, हताशा और निराशा को दूर कैसे किया जाए यह एक गंभीर प्रश्न बना हुआ है क्योंकि ये आंकड़े तो केवल ऐसी महिलाओं के हैं, जो शिकायत करना जानती हैं, मदद मांगना जानती हैं, पर उनका क्या, जिनके हाथ में न तो मोबाइल है न ही कोई अन्य संसाधन। जो घर में बैठे अपनी बेरोजगार शराबी पति की हिंसा का शिकार होते हुए घुट रही है। अब प्रश्न है कि क्या विभिन्न राज्यों द्वारा जारी हेल्पलाइन नंबरों से कुछ मदद मिलेगी? या फिर स्त्रियों को स्वयं इस स्थिति से बचना होगा। या कि फिर राष्ट्राध्यक्षों को राष्ट्र के नाम एक विशेष संदेश देकर यह आग्रह करना होगा कि ऐसे घिनौने अपराध बंद हों, स्त्रियों को मशीन नहीं, बल्कि इंसान समझा जाए और इंसानियत के नाते गतिविधियों को आत्मानुशासन और आत्मनियंत्रण से रोका जाए। घरेलू हिंसा की वजह से सामाजिक पतन किस हद तक हुआ है, यह बताने की जरूरत नहीं। इस प्रवृत्ति को अभी नहीं रोका गया तो समाज में विघटन की ऐसी खाई बनेगी, जिसे पाट पाना असंभव होगा।

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