संपादकीय

जो लाशों पर भी अपनी ‘औकात’ दिखाना नहीं भूलते …

-निर्मल रानी
पिछले दिनों लगातार दो दिन भारतीय सिने जगत से ऐसे दुःखद समाचार प्राप्त हुए जिन्होंने फिल्म जगत सहित पूरे देश को झिंझोड़ कर रख दिया। 29 अप्रैल को मात्र 54 वर्ष के मशहूर हरदिल अजीज अभिनेता इरफान खान इस दुनिया को अलविदा कह गए वहीं अगले ही दिन 30 अप्रैल को प्रातः 8ः45 बजे 67 वर्षीय प्रसिद्ध अभिनेता ऋषि कपूर का भी निधन हो गया। इत्तेफाक से दोनों ही कलाकार कैंसर जैसे जानलेवा मर्ज से पीड़ित थे। इन दोनों में आपसी रिश्ते भी बहुत अच्छे थे। एक और समानता इन दोनों में यह भी थी की दोनों ही अपने अपने धर्म में व्याप्त कई मान्यताओं पर अत्यंत मुखरित होकर अपने विचार रखते थे। इस तरह के विचारों की वजह से इन दोनों ही कलाकारों को कभी कभी अपने अपने समुदाय के लोगों की आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ता था। परन्तु तमाम तरह की अंतर्सामुदायिक आलोचनाओं व अंतर्विरोधों के बावजूद देश की अनेक विशिष्ट हस्तियों व इन दोनों ही कलाकारों के प्रशंसकों ने जिस तरह अपने गम का इजहार किया उससे मरणोपरांत इनकी लोकप्रियता में गोया और भी इजाफा हो गया। कहा जा सकता है कि साफगोई से अपनी बात रखने वाले कलाकारों की अहमियत का एहसास इनके मरने के बाद हुआ।
अभी इरफान खान की कब्र की मिट्टी भी सुखी नहीं थी कि पूर्वाग्रही ‘कलम घिस्सुओं’ ने अपने पक्षपात पूर्ण नजरिये से उनपर कलम चलानी शुरू कर दी। यही ऋषि कपूर के साथ भी हुआ। उनकी चिता जलने से लेकर चिता की राख ठंडी होने तक में कई ऐसे बेहूदा बयान,विवादित ट्वीट व सोशल मीडिया पोस्ट आनी शुरू हो गयीं जिससे लाशों पर अपनी औकात दिखने वाले लोग बेनकाब होने लगे। पिछले कुछ वर्षों से लेखन में एक ऐसे महानुभाव सक्रिय हैं जिनको देश के हर घटना में केवल हिन्दू-मूसलिम ही नजर आता है। कोई घटना अगर हिन्दू-मूसलिम नहीं भी कराती तो भी यह इतने हुनरमंद हैं कि घुमा फिरा कर उसे भी साम्प्रदायिक मोड़ दे देते हैं। यह देश के उन ‘कलम घिस्सुओं’ में हैं जो लगभग प्रतिदिन देश के अनेक समाचार पत्रों के विचार/सम्पादकीय पृष्ठ पर छाए रहते हैं। पिछले दिनों तब्लीगी जमाअत के पूर्वाग्रही विरोध का इन महाशय ने कोई कोण खली नहीं छोड़ा। तब्लीगी जमाअत को निशाना बनाने वाला इनका एक शीर्षक बड़ा दिलचस्प था कि ‘जमाअती हरिद्वार, बृन्दावन, काशी क्यों गए थे’। इस शीर्षक से ही अनायास मेरे मन में यह विचार आया कि अच्छा हुआ कि यह महाशय 15/16 वीं शताब्दी में ‘अवतरित’ नहीं हुए थे अन्यथा ये तो सैयद इब्राहिम खान उर्फ रसखान से भी जरूर पूछ लेते कि -‘मियाँजी तुम्हारा मथुरा वृन्दावन में क्या काम है?’ अन्यथा भगवान कृष्ण से ही पूछ बैठते कि आपने हिन्दू होकर भी एक ‘मियाँ’ रसखान को दर्शन क्यों दे दिया?
बहरहाल इन्हीं महाशय ने इरफान खान की असामयिक मृत्यु पर अपने लेख के द्वारा जानबूझ कर अपनी भड़ास निकालते हुए मुसलमानों की दाढ़ी टोपी का जिक्र कर डाला,मुसलमानों को सीख दे डाली कि इरफान खान,कलाम व अब्दुल हमीद जैसे बनो। दूसरे खान कलाकारों व नसीरउद्दीनशाह तथा एम एफ हुसैन को कोस डाला। जबकि इसकी कोई जरुरत नहीं थी। फिर भी महाशय लाशों पर भी कलम से जहर उगलने की अपनी ‘औकात’ दिखाना नहीं भूले। इसी तरह जब पूरा देश ऋषि कपूर की मृत्यु पर शोकाकुल था। राष्ट्रपति,प्रधान मंत्री,गृह मंत्री,तथा वित्त मंत्री जैसे अति विशिष्ट नेताओं द्वारा ऋषि कपूर को श्रद्धांजलि पेश करते हुए बेहतर से बेहतर शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो उन्हें बहुआयामी व प्रिय के साथ साथ श्प्रतिभा का पावर हाउस तक कह दिया। राष्ट्रपति महोदय ने ऋषि कपूर को सदाबहार पर्सनालिटी वाला जिंदादिल अदाकार बताया तो गृहमंत्री अमित शाह ने उन्हें असाधारण अभिनय कौशल रखने वाला अभिनेता बताते हुए उन्हें एक ‘संस्था’ तक बताया।
परन्तु अफसोस की बात यह है कि ठीक उसी समय कुछ अवांछनीय लोगों द्वारा सोशल मीडिया पर ऐसे बयान भी दिये जा रहे थे जो मानवता विरोधी तथा पूर्णतयः बेबुनियाद व झूठ पर आधारित थे। एक अभद्र ट्वीट में कहा गया कि -‘अच्छा हुआ मर गया … (गन्दी गलियां ), कश्मीर पाकिस्तान को दान करना चाहता था। ये वही ऋषि है जिसकी भतीजी करीना कपूर है जिसने तैमूर को जन्म दिया है। गाय के मांस का भक्षण किया था तो कैंसर जैसी बीमारी से … की मौत मरा है। इसी कपूर ने गौमांस (बीफ) खाने का समर्थन किया था।’ ऐसी ही एक और पोस्ट सोशल मीडिया पर डाली गयी जिसमें कहा गया कि ‘गौमांस का भक्षण करने वाला ये धर्मद्रोही कैंसर से मर गया। ऐसे धर्मद्रोही गद्दारों के मरने पर मुझे कोई दुःख नहीं। ऐसे समस्त धर्मद्रोही गद्दारों को शीघ्र नर्क में स्थान प्रदान करें।’ इस तरह की पोस्ट पर ‘सामान विचारवान’ लोगों ने जिस तरह की अभद्र व अशोभनीय टिप्पणियां की हैं उन गंदे शब्दों का तो यहां उल्लेख भी नहीं किया जा सकता।
लेकिन लाशों को गाली देने वाले इन ‘संस्कारी’ लोगों से इतना तो जरूर पूछा जाना चाहिए कि अगर गौमांस खाने वालों से इतनी ही नफरत है तो जिस समय राष्ट्रपति बराक ओबामा को देश के प्रधानमंत्री अपने हाथों से चाय बनाकर पिला रहे थे उस समय इन ‘भक्तों’ ने अपना विरोध क्यों नहीं दर्ज किया? जब गौमांस खाने वाले राष्ट्रपति ट्रंप का गुजरात सड़कों पर लाखों लोग अभिनन्दन कर ‘‘केम छो ट्रंप’’ जैसा मेगा शो आयोजित कर रहे थे उस समय ये गौ भक्त कहाँ मुंह छिपाए बैठे थे? उस समय क्यों नहीं बोले कि भगाओ इन गौ मांस खाने वालों को। तोड़ दो उन बर्तनों को जिसमें इनको चाय पिलाई और खाना खिलाया? उस समय तो दंडवत की मुद्रा में भीड़ का हिस्सा बने रहते हैं और एक ऐसे सितारे को मरने के बाद अभद्र गलियां देते हैं जिसके करोड़ों समर्थक व प्रेमी देश विदेश में बसे हुए हैं ? ये गुमनाम लोग तब भी हमेशा खामोश रहते हैं जब इन्हीं के समुदाय के लोगों द्वारा बीफ का व्यापर किया जाता है। वैसे भी ऋषि कपूर विवादों के बाद यह स्पष्ट भी कर चुके थे कि उन्होंने बीफ खाने के बारे में तो कहा था परन्तु गौमांस खाने के विषय में नहीं कहा। इसके बावजूद मरणोपरांत, संस्कृति के इन ठेकेदारों ने मृतक व्यक्ति को भी गलियां दीं व उसके परिवार के सदस्यों को भी अपमानित किया। बेशक जो लोग लाशों पर भी अपनी श्औकातश् दिखाना नहीं भूलते ये उनकी अपनी संस्कृति या उनके व्यक्तिगत संस्कार तो सकते हैं परन्तु यह भारतीय या हिन्दू संस्कृति व संस्कार तो हरगिज नहीं हो सकते।

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