धर्म

गीता का संदेश : मोह से मुक्ति और कर्म से युक्ति

श्रीमद्भगवत गीता भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविंद से निकला वह दिव्य उपदेश हैं, जिसे स्वयं श्री हरि ने मानव जाति के कल्याण के लिए दिया। गीता के कर्म सिध्दांत को अपना कर तमाम समस्याओं से मुक्ति पाई जा सकती है। गीता का मूल संदेश मोह से मुक्ति और कर्म से युक्ति है।
अजहर हाशमी ने जिस तरह गीता का विश्लेषण किया, उससे बढ़िया विश्लेषण शायद कोई दूसरा कर सके। हाशमी लिखते हैं, गीता के कर्म और कुरआन के मर्म में कोई अंतर नहीं है। कुरआन की पवित्र आयतें भी दया और दान की बात करती हूं और गीता का 17वां अध्याय भी दान की प्रासंगिकता सिद्ध करती है। दान-दया की बात बाइबल में भी है। आज के हालात में गीता की उपयोगिता स्वयंसिद्ध है। कर्म के बिना विकास की बात कोरी कल्पना है। गीता अशांति के समुद्र में शांति का द्वीप है। ज्ञान से हम आत्मा और भक्ति से परमात्मा को जान सकते हैं, किन्तु कर्म से आत्मा और परमात्मा दोनों को जान सकते हैं। कर्म के बिना ज्ञान अधूरा और भक्ति अपूर्ण है। ज्ञान गीता का मस्तिष्क है, भक्ति गीता का हृदय है, किन्तु कर्म गीता की आत्मा है।
सारांश यह है कि गीतों निक्रियता का निष्कासन और सक्रियता का सिंहासन है। गीता भक्ति के माथे पर ज्ञान का गुलाल और कर्म का कुंकुम है। गीता, भक्ति की भावना से ज्ञान के कंधों पर पुरुषार्थ की पालकी है। गीता, ज्ञान के सितार पर भक्ति के सरगम में कर्म का संगीत है। गीता, ज्ञान का गीत, भक्ति का भजन और कर्म की कविता है। गीता, ज्ञान की गंगा में भक्ति की नाव है, जो पुरुषार्थ की पतवार से पार पहुंचाती है। गीता, ज्ञान के बगीचे में भक्ति के वृक्ष पर निरंतर कूकने वाली कर्म की कोयल है।
यह विश्लेषण गीता की महानता बताता है। दरअसल, गीता, ज्ञान और भक्ति के तटों के बीच बहने वाली कर्म की नदी है। तटों का महत्व नदी के प्रवाह के संदर्भ में ही समझा जा सकता है। यदि कर्म का पानी अर्थात् पुरुषार्थ का प्रवाह सूख जाता है तो ज्ञान भक्ति का कोई औचित्य नहीं रहता, क्योंकि कर्म के पानी के सूखने का अर्थ है नदी का सूखना और सूखी नदी के तटों का कोई औचित्य नहीं। कर्म ही गीता का केन्द्र है।
ज्ञान के लिए भी कर्म आवश्यक है। कर्म की कुंजी से ही ज्ञान और भक्ति के ताले खोले जा सकते हैं।

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