सामाजिक

बच्चों के लिए जीवनशैली बदलें

सुरसा के मुंह सरीखे बढ़ते विकराल और विशाल बाल अपराध बच्चों की मासूमियत निगलने को तैयार बैठे हैं। अभी रेयान स्कूल में मासूम की दर्दनाक मौत की गुत्थी सही ढंग से सुलझी भी नहीं है कि दिल्ली के ही नामी स्कूल में घटे वारदात ने फिर से कान खड़े कर दिए हैं। स्कूल से आकर चार साल की बच्ची ने अपनी माँ से अपने साथ हुए यौन दुराचार की शिकायत की। सकते में आने वाली बात यह है कि बच्ची का दावा है कि उसके साथ घटित दुर्व्यवहार को उसी के कक्षा में पढ़ने वाले सहपाठी ने अंजाम दिया है ! शिकायत करने पर स्कूल प्रशासन ने दम्मी साध ली। मेडिकल जांच में बच्ची के प्राइवेट पार्ट पर गहरे चोट लगने की पुष्टि की गयी है। माँ के अनुसार बच्ची उस रात पीड़ा में रात भर सो नहीं पायी है। द्वारका साउथ में एफआईआर भी कर दी गयी है। मगर यह मामला सिर्फ यौन शोषण का कत्तई नहीं है। यह मामला हम सबको अपने गिरेबान में झांकने का है, इस घटना से सबक लेकर चिरनिंद्रा से जागने का समय है। बच्चे ने वाकई में ऐसा कुछ किया भी है तो इस मामले में क्या वाकई वो मासूम दोषी है जो शायद ठीक से अभी बोल-चल भी नहीं पाता होगा। उसे तो ये भी पता नहीं होगा कि वो क्या कर रहा है? क्या स्कूल प्रशासन पर भी दोष मढ़ कर हम दोषमुक्त हो जायेंगे? या सीरियल्स और फिल्मों में बढ़ते खुलापन को दोषी बनाकर अपना दामन बचा लेंगे?
इन मामलों में माता-पिता और परिवार अपनी जिम्मेदारी कब समझेंगे? छोटी से छोटी घटनाओं का असर बच्चों पर बहुत गहरा पड़ता है। माता-पिता और परिवार जनों को अपने जीवन शैली की उन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना होगा जो बच्चों के मन पर गहरा और नकारात्मक असर कर सकती हैं, अब फिर बच्चों को यौन शिक्षित करने की चर्चायें गर्म हो रही हैं। मगर हर कुछ दिनों के बाद ऐसे अपराधों का नया और वीभत्स रूप ही सामने आ ही जा रहा है।
खुलापन लिए सीरियल्स और फिल्में जितनी दोषी हैं उतने ही दोषी वो परिवार भी है जो बच्चों के सामने या साथ में ऐसी फिल्में या सीरियल्स देखते हैं। कई दृश्यों में बच्चों का बालमन जिज्ञासा से भर उठता है और परिवार जन उसका उत्तर सही ढंग से नहीं दे पाते हैं। किसी सीरियल में देखकर एक बच्चे ने ऐसे ही पूछ लिया था कि बिना शादी के माँ बनी तो लोग उसे घर से क्यों निकाल रहे हैं? बच्चे ने अपने परिवार और आस-पास यही देखा होता है कि बच्चों के होने का मतलब है खुशियां और मिठाइयां! ऐसे में माता-पिता प्रश्नों से कन्नी काटते नजर आते हैं जो बहुत गलत है। बच्चा अपने हिसाब से कुछ उल्टा या गलत समझ लेते हैं और ये समझ उनके मानसिक विकास की नींव बन जाती है। हमारे परिवारों में लोग अक्सर बच्चों को साथ लेकर सोते हैं। शैशावस्था में तो ठीक है मगर जिस हिसाब से बच्चे आज कल झट से चीजों को ग्रहण कर ले रहे और अपनी उम्र से आगे बढ़कर समझ रख रहे, उस हिसाब से चार-पांच की उम्र से ही उन्हें अपनी निगरानी में अलग सुलाना ही हितकर है। कई बार बच्चों की नींद उस समय खुल जाती है जब माता-पिता काम क्रिया में रहते हैं। ऐसे समय में बच्चों को भी समझ नहीं आता कि क्या हो रहा और माता-पिता भी प्रतिक्रिया नहीं दे पाते, फिर बच्चे या तो डर जाते हैं या बच्चों को इसे एक खेल बताकर माता-पिता तत्क्षण बने माहौल से खुद का पल्ला झाड़ लेते हैं। बढ़ते बच्चों को यदि साथ लेकर सो भी रहे तो बेहतर है कि आप स्वयं कुछ समय के लिए दूसरे कमरे में चले जाए, इससे माता-पिता भी संशयमुक्त रहेंगे और बच्चों के मन में कुछ घर भी नहीं करेगा।
कई घरों में यह सामान्य बात है कि माएँ बच्चों के सामने ही कपड़े बदलती हैं या तौलिया लपेट कर ही बाथरूम से बाहर निकल आती हैं। बढ़ते अबोध बच्चों के मन में शारीरिक संरचना के प्रति कई सवाल उठ खड़े होते हैं और निःसदेह बच्चे कोई भी जिज्ञासा छूकर ही समाप्त करते हैं, जैसे बच्चों को आग देख जिज्ञासा होती है मगर लाख समझाने पर भी वो नहीं मानते जब तक स्वयं छू कर देख नहीं लेते। माताएं अपने बच्चों को मोबाइल खेलने के लिए दे देती हैं ताकि वो कुछ समय आराम से रह सकें या घर के काम निपटा पाएं। कई बार उनके मोबाइल में आपत्तिजनक वीडियो और फोटो होते हैं जो बच्चों को पुनः जिज्ञासा से भर देते हैं।
बच्चों के प्रति सबसे बड़ी जिम्मेदारी परिवारजनों की है। बच्चा सबसे ज्यादा समय भी परिवार के साथ ही बिताता है, उसकी जिज्ञासाओं को सही मोड़ देना सबकी जिम्मेदारी है। बच्चों को इतना सहज रखें कि वो आपसे निःसंकोच बात कर सकें और विशेष रूप से माता-पिता के रूप में आप इतने सजग रहें कि छोटी उम्र में बड़ी जिज्ञासाएं उत्पन्न नहीं होने दें।

-स्वाति

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