सामाजिक

अब शब्दों के अर्थ बदलने लगे हैं

नई दिल्ली। ‘हम रह रहे हैं एक खतरनाक समय में और समय की इस भयावहता से कविता कैसे अछूती रह सकती है। समय गुर्राता है चीखता है, और कविताओं में क्षण ही नहीं पूरा दौर कैद होता है। ‘वह बर्दाश्त नहीं करते असहमति’ ‘मौजूदा राजनीतिक द्वंद्व, सहमति व असहमति की दीवारों को लांघता हुआ अब कविताओं की पंक्तियों में भी दर्ज होने लगा है। इन्हीं असहमतियों को कविताओं के माध्यम से कवियों ने रजा फाउण्डेशन द्वारा आयोजित काव्य संध्या ‘आज कविता’ में रखा। विष्णु नागर, गीत चतुर्वेदी, अनीता वर्मा व उमाशंकर चैधरी की कविताओं में आज का दौर, संजीदगी और ईमानदारी के साथ सांस ले रहा है। रजा फाउण्डेशन और इण्डिया इंटरनेशनल सेन्टर की संयुक्त पहल ‘आज कविता’ का यह तीसरा आयोजन था। कार्यक्रम का संचालन प्रसिद्ध साहित्यकार व रजा फाउण्डेशन के मेनेजिंग ट्रस्टी अशोक वाजपेयी ने किया।
काव्य पाठ का आरंभ उमाशंकर की कविता ‘शब्दों के अर्थ’ के साथ हुआ। मौजूदा राजनीतिक हालात ने शब्दों के मायनें ही बदल दिए हैं। ‘इस बीच जब बदलने कि की जा रही है कोशिश, हमारा मिजाज, हमारी सोच, सबसे ज्यादा फिजायें…बदलने लगे हैं शब्दों के अर्थ भी।’ बदले हुए अर्थ में शब्द संवेदनहीन होकर संशंकित करने लगे हैं। इस बदले हुए अर्थ से भूख, गरीबी, अस्मिता और हाशिए पर खड़ा आदमी और ज्यादा उपेक्षित हो गया है। उमाशंकर की कविता ‘और इस तरह ये समय’ उस खतरनाक समय की तरफ निडर हो कर एक विशेष राजनीतिक सोच से उत्पन्न हुई दूरियों की ओर इशारा कर रहा हैं। व्यक्ति की पहचान उसकी भाषा, धर्म, आयु में सिमट कर रह गई है। इस खतरनाक समय के बदलने की उम्मीद भी नहीं है क्योंकि अब ‘कुछ भी ऐसा नहीं हैं लौट कर आने पर भी उदास दिखेगा पूरा मौसम।’ छद्म राजनैतिक चेहरों ने अश्विास के जाले में व्यक्ति को पूरी तरह लपेट दिया है। दूसरी तरफ स्त्री के प्रति बढ़ती हिंसा के इस माहौल ने स्त्री और पुरुष के रिश्ते को शंका के घेरे में डाल दिया है। इस रिश्ते में अतिरिक्त किस्म की सतर्कता और संदेह आ गया है। और इस भाव से दोनों ही ग्रस्त हैं। बच्ची को प्यार करने आगे बढ़ते हुए अपने सांसों से सिहर जाता हूं। ‘क्योंकि बच्ची बच्ची नहीं एक स्त्री है।
गीत चतुर्वेदी की कविताएं राजनैतिक प्रपंच से उत्पन्न असंवेदनशीलता के झोंकों से निकाल कर कोमल संवेदनाओं की थपकी देती है। उनकी कविता ‘बड़े पापा की अन्तयेष्टि’ ‘अधूरे चुम्बन’ की आस में शव के थरथराते खुले होंठ संवदेनाओं के एक अलग ही धरातल में ले जाते हैं। ‘बहने का जन्मजात हुनरष् एक मानसिक अवस्था जो स्वभाविक है, बहने के खिलाफ तैरना व्यक्ति को सीखना पड़ता है। ‘कहीं भी बह सकना बहने की वफादारी मुझमें बहुत है। तुम्हारे मन की जगह किसी और के मन में बह गया।’ उनकी कविता ‘आवारगी’ कवि का आवारा मन, रातों की आवारगी और अंततः कवि को ही करनी होती है अपनी बेचैनी की हिफाजत’- कविता के जन्म से पहले की मनोवस्था का हंसता गाता अनुभव, और निष्कर्ष- ‘साहित्य और धूल में वर वधू का नाता है।
अनीता वर्मा की पहली कविता ‘वेन गॉग के आत्म चित्र से बातचीत’ चेहरों की लकीरों में व्यक्ति के जीवन अर्थों को टटोलने का एक प्रयास – व्यापार की दुनिया में वह आदमी प्यार को ढूंढता है और हम वहां चल कर भी नहीं जा सकते जहां आंखों का चैंधियाता हुआ यथार्थ है।’

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