पीड़ित पत्नियों को भरण-पोषण की गारण्टी
-विमल वधावन योगाचार्य,
एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
आर्मी एक्ट 1950 की धारा-90 में यह प्रावधान है कि कुछ विशेष परिस्थितियों में सैनिक के वेतन से कुछ राशि काटी जा सकती है। जैसे – छुट्टी की राशि, कोर्ट माॅर्शल द्वारा निर्धारित राशि, किसी अपराध को करते समय घायल होने पर ली गई छुट्टी की राशि, अपराधी ठहराये जाने पर जेल सज़ा काटने के दिनों की राशि, सरकार को किसी प्रकार की हानि पहुँचाये जाने की राशि आदि। इन्हीं प्रावधानों के बीच एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान यह है कि केन्द्र सरकार या मिलिट्री के सक्षम अधिकारी द्वारा सैनिक की पत्नी या उसकी वैध/अवैध सन्तान के भरण-पोषण के लिए किसी निश्चित राशि का आदेश किया जाये तो वह भरण-पोषण राशि भी सैनिक के मासिक वेतन में से काटकर सीधा पत्नी या सन्तान को दी जायेगी। इस प्रावधान के अनुपालन को सुनिश्चित कराने के लिए मिलिट्री ने वर्ष 1994 में एक महत्त्वपूर्ण आदेश संख्या-23/94 जारी किया था जिसमें पत्नियों के पालन-पोषण के प्रति लापरवाही करने वाले सैनिकों के विरुद्ध इस प्रकार भरण-पोषण खर्च उनके वेतन से काटकर उन पीड़ित पत्नियों को देने की प्रक्रिया निश्चित की गई थी। इस आदेश में यह कहा गया कि मिलिट्री से जुड़ा प्रत्येक सैनिक कानूनी रूप से और नैतिक रूप से अपनी पत्नियों और बच्चों का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य है। यदि कोई सैनिक अपनी इस कत्र्तव्य में लापरवाही करता है तो ऐसे सैनिक की पत्नियाँ और बच्चे मिलिट्री के सक्षम अधिकारी के समक्ष भरण-पोषण राशि दिये जाने की प्रार्थना कर सकते हैं। इस आदेश में यह भी स्पष्ट किया गया कि इस प्रावधान और प्रक्रिया के अनुसार पत्नियों और बच्चों को भरण-पोषण राशि के भुगतान का आदेश दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-125 या हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत भरण-पोषण खर्च से सम्बन्धित प्रावधानों से स्वतन्त्र होगा। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि मिलिट्री प्रशासन न्यायालयों के द्वारा भरण-पोषण राशि के आदेश हेतु चल रहे मुकदमेंबाजी से प्रभावित हुए बिना स्वतन्त्र रूप से पत्नियों और बच्चों को यह संरक्षण प्रदान कर सकता है। इस प्रक्रिया में मिलिट्री के सक्षम अधिकारी को अपने आदेश से पूर्व केवल यह सुनिश्चित करना होता है कि सैनिक और प्रार्थी पत्नी परस्पर वैध विवाह से बंधे थे और सैनिक ने अपनी पत्नी का भरण-पोषण करने में लापरवाही की है और वह पत्नी स्वयं अपना भरण-पोषण करने के योग्य नहीं है।
मिलिट्री की इस व्यवस्था से एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रगट होता है कि जब कोई सैनिक पत्नी और बच्चों के प्रति लापरवाह होता है तो मिलिट्री प्रशासन उसके वेतन से राशि काटकर प्रार्थी को दे सकता है। यह सिद्धान्त जिस प्रकार मिलिट्रीय में लागू किया गया है उसी प्रकार केन्द्र और राज्य सरकारों के सभी मंत्रालयों, उनके विभागों और यहाँ तक कि निजी नौकरियों में भी क्यों नहीं लागू किया जा सकता?
भरण-पोषण खर्च के लिए हर पीड़ित महिला को अदालतों में मुकदमें प्रस्तुत करने पड़ते हैं। मुकदमों में लम्बा समय लगता है। एक या दो वर्ष के बाद अदालतें भरण-पोषण खर्च का आदेश देती हैं। इस आदेश के बाद भी अनेकों लोग नियमित भरण-पोषण खर्च पत्नियों को नहीं देते। ऐसी अवस्था में पत्नियों को बार-बार भरण-पोषण आदेश के क्रियान्वयन के लिए अदालतों में मुकदमें करने पड़ते हैं। कई बार यह देखा गया है कि ऐसी पीड़ित पत्नियों को जितनी राशि भरण-पोषण खर्च के रूप में प्राप्त होती है वह सारी राशि या उसका अधिकांश हिस्सा वकीलों के फीस के रूप में खर्च हो चुका होता है। ऐसा भरण-पोषण खर्च किस दृष्टि से न्याय कहा जा सकता है। भरण-पोषण के खर्च के मुकदमों में जब पति केन्द्र या राज्य सरकार की नौकरी में होता है तो अदालतें ऐसे आदेशों का क्रियान्वयन निश्चित और स्थाई बनाने के लिए कभी-कभी यह आदेश भी कर देती हैं कि भरण-पोषण की खर्च की राशि सीधा पति के वेतन से काटकर प्रतिमाह पत्नी के बैंक खाते में जमा कर दी जाये। परन्तु इस सारी मुकदमेंबाजी में लगने वाले लम्बे समय, दौड़-भाग और वकीलों के बेहिसाब खर्चों से बचने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी सभी प्रबन्धकों का यह दायित्व निर्धारित हो जाना चाहिए कि वे अपने अधीनस्थ कार्य करने वाले कर्मचारियों के द्वारा अपने पारिवारिक दायित्व में लापरवाही पाये जाने पर उनके वेतन से ही एक निर्धारित राशि काटकर उनकी पत्नियों और बच्चों को भरण-पोषण खर्च देने के लिए अधिकृत हों। इस प्रकार यह न्यायिक कार्य प्रत्येक प्रबन्धन व्यवस्था को दिया जाना चाहिए। यदि नौकरी के प्रबन्धक भी अपने इस महान दायित्व में लापरवाही करें तो फिर मजबूरी में पीड़ित महिलाओं को न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेना पड़े। इससे एक तरफ न्यायालयों पर ऐसे मुकदमों का बोझ निश्चित ही कम होगा और दूसरी तरफ पीड़ित महिलाओं के लिए भी ऐसी प्रक्रिया सुविधाजनक ही सिद्ध होगी।
पति-पत्नी सम्बन्धों को लेकर जब भी मुकदमेंबाजी होती है तो न्यायिक प्रक्रिया सदैव पीड़ित पत्नियों के लिए ही अत्यन्त कष्टदायक सिद्ध होती है। पीड़ित पत्नियों के साथ उनके माता-पिता या भाई भी कई बार दौड़-भाग में सहभागिता नहीं दे पाते। ऐसे में पीड़ित महिलाओं को वकीलों के दफ्तरों और न्यायालयों में चक्कर लगाते हुए देखना अपने आपमें कष्टदायक होता है। इस पर भी जब ऐसी महिलाओं पर कुदृष्टि या उनकी अज्ञानता के कारण वकीलों की पति पक्ष के साथ सांठ-गांठ और बेहिसाब फीसों जैसे अत्याचार प्रारम्भ होते हैं तो महिलाओं के लिए और भी अधिक कष्टकारी परिस्थितियाँ प्रारम्भ हो जाती हैं।
उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर की अपराधिक अदालत में एक पत्नी ने अपने पति तथा अपने वकील के विरुद्ध शिकायत दर्ज करवाई कि उसके वकील ने उसके पति के साथ सांठ-गांठ करके उसके वैवाहिक मुकदमों में उसे हानि पहुँचाई है। वास्तव में पति-पत्नी दोनों पक्षों के बीच यह समझौता हस्ताक्षरित करवा दिया गया कि इस विवाह सम्बन्ध को समाप्त करने के बदले पति पक्ष द्वारा पत्नी को 35 लाख रुपये स्थाई मुआवज़े की तरह दिया जायेगा। जबकि पत्नी ने इस कार्यवाही के लिए निर्धारित अपने वकील से 50 लाख रुपये में समझौता करवाने की सहमति दी थी। इतना ही नहीं उस वकील ने पति के साथ सांठ-गांठ करके उसे केवल 9 लाख 50 हजार रुपये ही दिलवाये। जबकि 7 लाख रुपये दिये बिना पत्नी से झूठी रसीद पर हस्ताक्षर करवा लिये और शेष 18 लाख 50 हजार रुपये पत्नी को दिये गये ही नहीं। इतना ही नहीं वकील ने इस पीड़ित महिला से कुल समझौता राशि की 10 प्रतिशत राशि फीस के रूप में मांगी। जब पीड़ित महिला ने वकील के विरुद्ध अपराधिक शिकायत दर्ज कराई तो उसकी अग्रिम जमानत की प्रार्थना पर उड़ीसा उच्च न्यायालय ने सुनवाई करने के बाद जारी अपने आदेश में कहा कि वकालत का पेशा सेवा की भावना से किया जाना चाहिए क्योंकि इसके माध्यम से न्याय दिलवाने का कार्य किया जाता है। वकील और पक्षकार के मध्य पूरे विश्वास का सम्बन्ध होना चाहिए। वकील के द्वारा कोई भी ऐसा कार्य नहीं होना चाहिए जिससे पक्षकार का विश्वास उसमें कम होने लगे। वकील जब अपने पक्षकार के साथ ही धोखाधड़ी करने लगे तो फिर न्याय की अवधारणा तो समाप्त ही दिखाई देगी। पीड़ित महिलाओं को भरण-पोषण जैसी राशियों के मिलने पर उसमें से प्रतिशत के आधार पर फीस की माँग करना अपने आपमें ही एक अवैध और अनैतिक कार्य है। इस प्रकार उड़ीसा उच्च न्यायालय ने ऐसे वकील को अग्रिम जमानत देने से भी इन्कार कर दिया।