संपादकीय

दो क्षेत्रों से चुनाव लड़ने पर लगे प्रतिबन्ध

-विमल वधावन योगाचार्य, एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट
अमेरिका के ‘वाल स्ट्रीट जनरल’ नामक समाचार पत्र ने हाल ही में एक लेख में भारतीय निर्वाचन पद्धति की उस परम्परा पर बहुत बड़ा कानूनी प्रश्न उठाते हुए लिखा है कि भारत में किसी राजनेता को दो सीटों से निर्वाचन लड़ने की अनुमति क्यों दी जाती है? इस लेख में भारत के ही कई संविधान विशेषज्ञों के विचार भी व्यक्त किये गये हैं। लोकसभा के पूर्व महासचिव डाॅ. सुभाष कश्यप इस व्यवस्था को निरर्थक मानते हैं क्योंकि एक से अधिक सीट पर निर्वाचन का प्रयास केवल सम्बन्धित राजनेता के राजनीतिक जोखिम को कम करने से जुड़ा है। भारत के ही एक शोध संस्थान के विशेषज्ञ का कहना है कि एक उम्मीदवार के दो सीटों से चुनाव लड़ने का अर्थ निर्वाचन खर्च पर बिना कारण बोझ है और दूसरी तरफ भोली-भाली जनता को भी एक ही सीट के लिए दो बार निर्वाचन की प्रक्रिया में भाग लेने के लिए जबरदस्ती धकेल दिया जाता है।
कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष राहुल गांधी उत्तर प्रदेश के अमेठी और केरल के वायनाड लोकसभा क्षेत्रों से निर्वाचन लड़ने वाले पहले राजनेता नहीं हैं। इससे पूर्व भारत में राष्ट्रीय और राज्य स्तर के अनेकों नेता एक से अधिक सीट से चुनाव लड़ चुके हैं। पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, अखिलेश यादव, एन.टी. रामाराव तथा वर्तमान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भी एक ही समय पर दो सीटों से निर्वाचन लड़ चुके हैं।
भारत में निर्वाचनों से सम्बन्धित जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा-33(7) के अनुसार कोई भी व्यक्ति एक बार में केवल दो निर्वाचन क्षेत्रों से ही उम्मीदवार बन सकता है। वास्तव में यह प्रावधान 1996 में जोड़ा गया था। इससे पूर्व दो निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा भी नहीं थी। इस प्रावधान के न होने के कारण ही 1971 के लोकसभा निर्वाचनों में उड़ीसा के बीजू पटनायक तो 4 लोकसभा क्षेत्रों से चुनाव लड़ चुके हैं। इसी कानून की धारा-70 के अनुसार यदि कोई व्यक्ति दो निर्वाचन क्षेत्रों से जीत जाता है तो उसे एक सीट पर ही प्रतिनिधित्व जारी रखने का अधिकार है और दूसरी सीट से उसे 10 दिन के भीतर त्याग पत्र देना होगा। यदि वह निर्धारित समय के भीतर एक सीट से त्याग पत्र नहीं देता तो उसकी दोनों सीटें रिक्त मानी जायेंगी।
भारत के विधि आयोग ने वर्ष 2015 में केन्द्र सरकार के समक्ष प्रस्तुत अपनी 255वीं रिपोर्ट में यह स्पष्ट सिफारिश की है कि धारा-33(7) के प्रावधान को संशोधित करके यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कोई भी उम्मीदवार केवल एक ही निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ सके। यह विषय सर्वोच्च न्यायालय के सामने भी रिट् याचिका के रूप में कई बार प्रस्तुत हो चुका है। वर्तमान में भी सर्वोच्च न्यायालय इसी विषय पर श्री अश्विनी कुमार उपाध्याय की जनहित याचिका पर सुनवाई कर रहा है। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर भी देता है तो भी यह समस्या पूरी तरह समाप्त नहीं हो सकती, क्योंकि जो व्यक्ति पहले किसी राज्य विधानसभा का सदस्य निर्वाचित है और उसके बावजूद लोकसभा या राज्यसभा के लिए भी निर्वाचित हो जाता है तो उसे भी एक सीट से त्याग पत्र देना होता है। इसलिए वास्तव में कानून को भी स्पष्ट भाषा में एक नया प्रावधान देना चाहिए कि कोई भी व्यक्ति दो प्रतिनिधि सभाओं से चुनाव नहीं लड़ सकता और एक सदन का सदस्य बनने के बाद भी वह पहले त्यागपत्र दिये बिना दूसरे किसी सदन के लिए चुनाव नहीं लड़ सकता।
वर्ष 2014 के निर्वाचन में लगभग 4 हजार करोड़ रुपये के खर्च की बात सुनी गई थी। यह खर्च केवल निर्वाचन आयोग के नियंत्रण में किया गया सीधा खर्च था। इसके अतिरिक्त पुलिस तथा अद्धसैनिक बलों और निर्वाचन प्रक्रिया सम्पन्न करवाने वाले केन्द्र और राज्य सरकारों के अधिकारियों और कर्मचारियों का खर्च शामिल नहीं था। वर्ष 2019 के निर्वाचन पर होने वाला सरकारी खर्च स्वाभाविक रूप से पहले से काफी अधिक होने की सम्भावना है। लोकसभा के एक निर्वाचन क्षेत्र में पुनः निर्वाचन करवाने पर भी 10 से 20 करोड़ रुपये का खर्च सम्भावित है। इन परिस्थितियों में जब तक ऐसे प्रावधानों पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगता तब तक आर्थिक दण्ड के रूप में एक व्यवस्था तो सरलता से लागू की जा सकती है कि जो व्यक्ति एक से अधिक क्षेत्र से निर्वाचित घोषित होगा और बाद में एक सीट से त्याग पत्र के कारण वहाँ पुनः निर्वाचन करवाना होगा तो उस पुर्ननिर्वाचन का अनुमानित खर्च उसे आर्थिक दण्ड की तरह देना होगा।
जब भी किसी क्षेत्र के मतदाता किसी उम्मीदवार को निर्वाचित करते हैं तो यह एक मायने में उस पर विश्वास व्यक्त करने के समान होता है। जब एक व्यक्ति दो निर्वाचन क्षेत्रों से जीतने के बाद एक निर्वाचन क्षेत्र से त्यागपत्र देता है तो कल्पना की जा सकती है कि उस क्षेत्र के मतदाताओं के विश्वास को कितनी बड़ी ठेस लगती होगी। उस परिस्थिति में सीधा एक ही विचार भोले-भाले मतदाताओं के मन पर प्रहार करता है कि हमने तो इस नेता पर विश्वास व्यक्त किया और इसे अपना बहुमूल्य वोट दिया परन्तु इस नेता ने हमारे साथ विश्वासघात किया है। जब भी कोई राजनेता दो निर्वाचन क्षेत्रों से उम्मीदवार बनता है तो राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय प्रेस और मीडिया उससे कभी भी यह प्रश्न करते हुए नहीं दिखाई दिये कि यदि वह दोनों क्षेत्रों से जीत गया तो किस क्षेत्र से त्याग पत्र देगा। इस प्रश्न का उत्तर अपने आपमें ही एक निर्वाचन क्षेत्र की जनता को यह समझाने के लिए पर्याप्त होगा कि तुम्हारे वोटों के बल पर यह व्यक्ति केवल अपने राजनीतिक जोखिम का बीमा करवा रहा है। दो निर्वाचन क्षेत्रों से लड़ने का इसके अतिरिक्त कोई उद्देश्य नहीं हो सकता। यदि कोई राजनेता अपने नेतृत्व को व्यापक बनाने या पार्टी संगठन को अलग-अलग क्षेत्रों में मजबूत करने या राष्ट्रीय एकता को दो निर्वाचन क्षेत्रों से लड़ने का कारण बताता है तो ऐसा करने के लिए उसके पास और भी कई तरीके हैं। ऐसे ही तर्क राहुल गांधी ने भी दिये हैं। जबकि वास्तविकता में राष्ट्रीय स्तर का प्रत्येक नेता अपनी व्यक्तिगत उम्मीदवारी के बिना भी देश के कोने-कोने में प्रचार करने के लिए पहुँचता है। केवल निर्वाचन प्रक्रिया को बाधित करना और एक क्षेत्र के लोगों के साथ विश्वासघात करना किसी प्रकार से भी स्वीकार्य नहीं होना चाहिए।
सभी राजनीतिक दल और विशेष रूप से केन्द्र सरकार ने हमेशा इन प्रावधानों का बचाव ही किया है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष केन्द्र सरकार इस बार भी इन प्रावधानों को समाप्त करने का विरोध व्यक्त कर चुकी है।

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