संपादकीय

उज्ज्वल भविष्य के लिए संकल्प और संयम

-विमल वधावन योगाचार्य, (एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)
सारा विश्व कोरोना वायरस से उत्पन्न व्यापक महामारी के विरुद्ध संघर्ष कर रहा है। सम्भवतः किसी विश्वयुद्ध में भी इतनी अधिक संख्या में देश प्रभावित नहीं हुए होंगे जितने इस महामारी से प्रभावित हो रहे हैं। चिकित्सा विद्वान भी लाचार नजर आ रहे हैं, क्योंकि अचानक विश्व पटल पर विकराल राक्षस के रूप में उभरे इस रोग की कोई औषधि अब तक नहीं बन पाई थी। पंजाबी की एक प्रसिद्ध कहावत है ‘‘बुए आई जंज ते विन्नो कुड़ी द कन्न’’ अर्थात् जब किसी कन्या की बारात कन्या के द्वार तक पहुँच चुकी हो और उस वक्त माता-पिता को याद आये कि कन्या के तो कान ही नहीं छिंदवाये। वैसे चिकित्सा विद्वानों का कोई दोष नहीं है क्योंकि किसी नये रोग की उत्पत्ति के बाद नई औषधि का आविष्कार सफल होने में लम्बा समय लगना स्वाभाविक है। न्याय व्यवस्थाओं से लेकर पूरी की पूरी सरकारें ही लाचार दिखाई दे रही हैं।
ऐसी विश्वव्यापक लाचारी के वातावरण में हमें अर्थव्यवस्था का एक प्रसिद्ध ‘माल्थस जनसंख्या सिद्धान्त’ याद आ रहा है। थामस राबर्ट माल्थस ने सर्वप्रथम अर्थशास्त्र के छात्रों को जनसंख्या वृद्धि तथा उससे जुड़ी समस्याओं को स्पष्ट करने के लिए इस सिद्धान्त को प्रस्तुत करते हुए कहा था कि जब जनसंख्या तीव्र गति से बढ़ती है तो खाद्य पदार्थों का उत्पादन उतनी तीव्र गति से नहीं बढ़ सकता। जनसंख्या वृद्धि की गति ज्योमैट्रिक होती है। जैसे 2 को 5 से गुणा करें तो 10 और 10 को 5 से गुणा करें तो 50 और 50 को 5 से गुणा करें 250। इस उदाहरण में गुणांक 5 है, परन्तु तीन कदमों में संख्या 2 से 250 पहुँच गई। इसके विपरीत खाद्य पदार्थों के उत्पादन में वृद्धि अर्थमैटिक गति से होती है जिसमें एक निश्चित संख्या का अन्तर वृद्धि पैदा करता है। जैसे 2 में 5 जोड़ें तो 7 और 7 में 5 जोड़ें तो 12 और 12 में 5 जोड़ें तो 17। इस उदाहरण में अन्तर 5 का है और तीन कदमों में संख्या 2 से 17 तक ही पहुँची। इस छोटे से सिद्धान्त के आधार पर माल्थस ने जनसंख्या वृद्धि के परिणाम अत्यन्त भयानक सिद्ध किये थे। इतना ही नहीं इस महान अर्थशास्त्री ने इन भयानक परिणामों से बचने के दो प्रमुख उपाय भी बताये थे।

एक उपाय प्राकृतिक शक्तियों के अधीन बताया गया था जिसके अनुसार जब जनसंख्या बढ़ जाती है परन्तु खाद्य पदार्थ उस अनुपात में नहीं बढ़ते तो प्राकृतिक शक्तियाँ जैसे बाढ़, भूकंप, सूखा, भुखमरी, महामारियाँ तथा मानव रचित परस्पर युद्ध जैसे आतकंवाद या दो देशों के बीच युद्ध आदि घटनाएँ स्वाभाविक रूप से जनसंख्या कम करने का कार्य करने लगती हैं। दूसरी तरफ जनसंख्या वृद्धि के भयानक परिणामों से बचने के लिए सबसे प्रमुख निवारण उपाय बताते हुए माल्थस ने कहा था कि किसी भी प्रकार से जनसंख्या वृद्धि को रोकना प्रत्येक सरकार का प्रमुख दायित्व होना चाहिए। सरकारें परिवार नियोजन से सम्बन्धित अनेकों नियम बनाकर एक तरफ अपने नागरिकों को कम सन्तान उत्पन्न करने के लिए प्रोत्साहन देकर जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रेरित कर सकती हैं तो दूसरी तरफ अधिक सन्तान उत्पन्न करने वालों के विरुद्ध दण्डात्मक प्रावधान भी लागू किये जा सकते हैं। भारतीय संसद को वर्तमान महामारी के भयपूर्ण वातावरण के दृष्टिगत यथाशीघ्र जनसंख्या नियंत्रण के लिए एक सख्त कानून पारित करना चाहिए। आज यह देश की प्रथम और महत्त्वपूर्ण आवश्यकता बन चुकी है। माल्थस ने ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि को भी इन्हीं सिद्धान्तों के अन्तर्गत देश की अर्थव्यवस्था के लिए अत्यन्त उपयोगी बताया था। ब्रह्मचर्य का सीधा सम्बन्ध संयमित जीवन से होता है। जीवन में संयम तभी लागू होते हैं जब जीवन के लिए व्यक्ति कोई उच्च लक्ष्य प्राप्त करने का संकल्प लेता है। इस प्रकार संकल्प और संयम अर्थशास्त्र की इस जनसंख्या वृद्धि समस्या के लिए भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं।
माल्थस का यह सिद्धान्त 18वीं सदी के अन्त में आया था जब एक भूमि पर खाद्य पदार्थों का अधिकतम उत्पादन सीमित ही रह सकता था। आज वैश्विक बाजार का समय है। एक देश अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए कहीं से भी खाद्य पदार्थ मंगवा सकता है, परन्तु इस वैश्विकीकरण ने भोजन की समस्या को सुलझाने की बजाय और अधिक उलझा दिया है क्योंकि सम्पन्न देशों में भोजन की माँग भी अधिक बढ़ने लगी है। वैश्विकीकरण के कारण सभी संस्कृतियों के लोग मिश्रित होकर रहने लगे हैं। ऐसे में सात्विक संस्कृतियाँ नष्ट होती दिखाई दे रही हैं। वैश्विकीकरण का ही यह परिणाम है कि भोजन के नाम पर सारे संसार में तामसिकता आच्छादित हो चुकी है। ऐसे वर्तमान युग में जीवन के निश्चित संकल्प नहीं हैं और संयम की तो आशा ही नहीं की सकती।
महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने अपने उपदेशों में कहा था कि जब जानवरों की संख्या कम हो जायेगी तो माँसाहारी लोग क्या मनुष्यों को मारकर खाना शुरू कर देंगे? चीन के समाज ने भी माँसाहार की सभी सीमाएँ पार कर रखी हैं। उनका माँसाहारी भोज केवल बकरे या मुर्गे तक सीमित नहीं था, छोटे-बड़े हर प्रकार के जीव-जन्तु पकड़कर जिन्दा ही खा जाने की परम्पराएँ चीनी समाज में सामान्य हैं। यहाँ तक कि जहरीले जीवों को भी खाने में ये लोग संकोच नहीं करते। कोरोना वायरस की उत्पत्ति भी चमगादड़ के माँस भोज से ही बताई जाती है। ऐसा लगता है कि चीनी समाज में स्वस्थ रहने का न कोई संकल्प है और इसीलिए संयम भी नहीं है।
प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने संकल्प और संयम के जोड़ से एक मानसिक औषधि प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यह वास्तव में वैदिक विवेकशीलता का सर्वोत्तम उपदेश है जो कोरोना वायरस तो क्या जीवन के किसी भी कार्य या समस्या में सफलता को आपके कदमों तक ला सकता है। यही विवेकशीलता योगीराज श्रीकृष्ण द्वारा रचित गीता का केन्द्रीय फार्मूला है। गीता सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति को अपनी मानसिक एकाग्रता केवल अपने लक्ष्य पर बनाकर रखनी चाहिए। इसे संकल्प कहा जाता है। यदि व्यक्ति का संकल्प निश्चित और मजबूत होता है तो स्वाभाविक रूप से वह हर कार्य अपने संकल्प को ही केन्द्र में रखकर करेगा। उसका मन इधर-उधर के छोटे-छोटे कार्यों में कभी नहीं भटकेगा। वह हर लोभ-लालच और मन लुभावन के विषयों के प्रति संयम ही दिखायेगा, क्योंकि उसके मन में अपने संकल्प तक पहुँचने की तीव्र अभिलाषा होती है। प्रधानमंत्री जी ने सभी देशवासियों को स्वस्थ रहने का संकल्प देने का प्रयास किया है। यह केवल नागरिकों का व्यक्तिगत संकल्प ही नहीं अपितु राष्ट्रीय संकल्प माना जा सकता है। प्रधानमंत्री जी ने अपने उद्बोधन में यह स्पष्ट कहा भी है कि इस महामारी के चलते देश की अर्थव्यवस्था में असंतुलन पैदा हो सकता है। इसलिए भारत के नागरिकों का यह कत्र्तव्य है कि इस राष्ट्रीय संकल्प का पूरा दायित्व अपने-अपने कंधों पर लें। इस संकल्प के साथ जुड़े अनेकों प्रकार के संयम भी हैं जो सरकारी निर्देशों तथा सोशल मीडिया के माध्यम से भी व्यापक प्रचार-प्रसार का विषय बने हुए हैं। भारत के नागरिक देश की इन वर्तमान परिस्थितियों में इन संयमों को अपनाकर राष्ट्रीय संकल्प में योगदान दें तो इसी में उनका व्यक्तिगत कल्याण भी निहित है। यदि संयम पूरी तरह से लागू कर दिये गये तो यह समस्या सम्भवतः कुछ सप्ताह में निपट सकती है और यदि संयमों में लापरवाही की गई तो एक तरफ आने वाला भविष्य इस महामारी की चपेट में रोगी होगा और दूसरी तरफ सारे राष्ट्र की अर्थव्यवस्था को भी व्यापक हानि होगी। इसलिए संकल्प और संयम के इस फार्मूले को उज्ज्वल भविष्य के रूप में हमें अपने जीवन का अंग बना लेना चाहिए।

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