संपादकीय

वैदिक विवेक के साथ हो आधुनिक शिक्षा

-विमल वधावन योगाचार्य
एडवोकेट (सुप्रीम कोर्ट)

1947 में स्वतंत्रता के बाद लिखे गये भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 में इस देश का नाम ‘इंडिया अर्थात् भारत’ लिखा गया है। स्वाभाविक रूप से ब्रिटिश शासन के लगभग 200 वर्ष से अधिक काल का यह प्रभाव था जिसके कारण इंडिया को इस देश का प्रधान नाम दिया गया और भारत को उसकी व्याख्या की तरह प्रयोग किया गया। भारत एक हिन्दी शब्द है जिसका अर्थ है – ‘भान में रत’ अर्थात् ज्ञान में लगा हुआ। वैदिक ग्रन्थों के अनुसार ज्ञान केवल अपने अन्दर तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की आध्यात्मिक शक्ति के अनुभव का पथ है। इसके अतिरिक्त शिक्षा अर्थात् भौतिक विषयों से सम्बन्धित ज्ञान को अज्ञान ही माना जाता है यदि उसमें आध्यात्मिक एहसास न हो। ब्रिटिश राज से पहले हजारों वर्ष इस देश पर मुगल शासन रहा है। इन विदेशी शासनों के दौरान भारत की भौतिक सम्पदा को लूटने के साथ-साथ यहाँ के सांस्कृतिक सिद्धान्तों और मूल्यों को भी नष्ट किया गया है। महाभारत युद्ध से पहले इस देश का एक और मूल नाम था – ‘आर्यावर्त’। यह देश आज भी ‘वेद की धरती’ के रूप में सुविख्यात है। परन्तु आक्रमणों तथा अन्य कारणों से, इस वैदिक संस्कृति का बहुत बड़ा पतन हुआ है जो कभी प्रत्येक नर-नारी को अत्यन्त सुन्दर मानवीय और पवित्र विवेकपूर्ण जीवन का निर्देश देती थी।
सारे विश्व समाज का वर्तमान दृश्य हर स्थान पर और हर व्यक्ति के जीवन में एक स्पष्ट दिखाई देने वाला डर उत्पन्न कर रहा है। एक तरफ अपराध, भ्रष्टाचार तथा अमानवीय व्यवहार तो दूसरी तरफ रोग और महामारियों ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि वास्तव में इस मानव जीवन को प्रसन्न रखने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं बचा। कोरोना ने तो यह भी सिद्ध कर दिया है कि हर प्रकार की सम्पन्नता भी ऐसी राक्षसी शक्तियों को रोकने में सफल नहीं हो पा रही। मानव से सम्बन्धित इन सभी समस्याओं का हल वैदिक विवेक से सम्पन्न जीवन में ढूंढ़ा जा सकता है जो सबको समान रूप से मार्ग दिखाते हैं, चाहे वह एक गरीब आदमी हो या अमीर, अनपढ़ हो या उच्च शिक्षित, ठेला खींचने वाला हो या पायलट, निम्न स्तर का सेवक हो या किसी प्रबन्धन का उच्चाधिकारी या संस्थान का मालिक, छोटा सा व्यापारी हो या बहुत बड़ा उद्योगपति, सामाजिक कार्यकर्ता हो या देश के क्रिया-कलापों को नियंत्रित करने वाला उच्च राजनेता। वैदिक विवेक एक जीवन पद्धति है जो हमें अपने मस्तिष्क को स्थाई सुखों तथा आस-पास की सारी प्रकृति की समृद्धि और सुरक्षा की तरफ प्रेरित करती है।
आज का संसार आधुनिक विज्ञान पर अधिक निर्भर है जो केवल भौतिक वस्तुओं पर प्रयोग और निगरानी पर आधारित है। परन्तु यह विज्ञान इस सिद्धान्त से अनभिज्ञ रहता है कि ब्रह्माण्ड दो मूल तत्त्वों से बना है – जीवित तथा निर्जीव। जीव शक्ति दिखाई नहीं देती और अलौकिक होती है। परन्तु इसका अध्ययन आधुनिक विज्ञान में नहीं किया जाता है। जबकि अनेकों महान आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी इस कमी को स्वीकार किया है। स्टीफन हाॅकिंग, रिचर्ड फिनमैंन, एलबर्ट आइंस्टीन, मैक्स बाॅर्न तथा इसाक न्यूटन जैसे महान वैज्ञानिकों ने भी भगवान के अस्तित्त्व को स्पष्ट रूप से स्वीकार करने के साथ-साथ यह कहा है कि असली विज्ञान का अध्ययन भगवान के अध्ययन के साथ ही हो सकता है। आधुनिक वैज्ञानिकों के विचारों की इस पृष्ठभूमि के साथ भारत के महान गणितज्ञ रामानुजम को स्वीकार करना ही होगा कि ‘गणित के किसी सूत्र का मेरे लिए कोई अर्थ नहीं है जब तक इसके माध्यम से मुझमें भगवान का विचार उत्पन्न न हो।’ 20वीं सदी के महान समाज सुधारक वेदों के विद्वान् तथा आध्यात्मिक युग पुरुष महर्षि दयानन्द सरस्वती जी ने विज्ञान को इन शब्दों में परिभाषित किया है – ‘‘जो कर्म उपासना और ज्ञान, इन तीनों से यथावत उपयोग लेना और परमेश्वर से लेकर तृण-पर्यन्त पदार्थों के साक्षात् बोध का होना और उनसे यथावत उपयोग का करना।’’ यही विज्ञान वास्तव में वैदिक विवेक का सार सूत्र है।
आज हमारी शिक्षा पद्धति बेशक बहुत बड़े-बड़े पेशेगत और धन-सम्पन्न नागरिकों को तैयार कर रही है परन्तु हमारी मूल शिक्षा में वैदिक विवेक के अनुभव का अभाव बहुत बड़ी भूल सिद्ध हो रहा है। आज यदि वैदिक विवेकपूर्ण जीवन शिक्षा का अंग होता तो किसी महामारी से इतना बड़ा भय खड़ा न होता। आज हमारी शिक्षा पद्धति में अध्यापक तो हैं परन्तु गुरु नहीं हैं जो वास्तव में अपने जीवन को वैदिक विवेक का माॅडल बनाकर अपने शिष्यों को मुख से नहीं अपितु आचरण से पढ़ाता था। आज किस विद्यालय में आचार्य पद है जो शिष्यों को एक मित्र, मार्ग दर्शक और दार्शनिक सभी रूपों में जीवन निर्माण के पथ पर सहायता करता हो? आज विज्ञान के कुछ विषयों को छोड़कर शेष सभी विषय केवल कमरों की चारदिवारी में पढ़ाये जाते हैं। क्या हम सभी विषयों को व्यवहारिक अनुभवों के साथ जोड़कर नहीं पढ़ा सकते? क्या आज के विद्यालयों में बच्चों को किताबों की सीमित शिक्षा के अतिरिक्त चरित्र और मानवीय प्रवृत्तियों की शिक्षा नहीं दी जा सकती जो उन्हें हर प्रकार के अपराध से दूर रखके आध्यात्मिक जीवन निर्माण में सहायक हो? क्या आज विद्यालयों के बच्चों को अपनी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने वाले भोजन को अपनाने के पथ पर नहीं चलाया जा सकता? आज के विद्यालयों से जीवन की यह सभी मूल शिक्षाएँ क्यों बन्द कर दी गई हैं? गुरुग्राम स्थित ‘वेदाज इण्टरनेशनल स्कूल’ के बच्चों में ऐसी बहुत सी व्यवहारिक दिनचर्या शामिल दिखाई देती है जो वैदिक विवेकपूर्ण जीवन के लिए अत्यन्त आवश्यक है। यह विद्यालय आस-पास के सैकड़ों गाँवों में भी इसी प्रकार के वैदिक विवेकपूर्ण जीवन के साथ ही औपचारिक शिक्षा की प्रेरणाएँ देता हुआ देखा जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के यूनेस्को का मिशन है प्रत्येक नर और नारी के मस्तिष्क में शांति की स्थापना करना। हमारे देश के सभी विद्यालयों को यूनेस्को के इस मिशन को सामने रखकर बिना समय गंवायें बच्चों की शैक्षणिक दिनचर्या में भारतीय का मूल वैदिक विवेक दर्शन पूरी तरह से जोड़ देना चाहिए। प्रत्येक विद्यालय को बच्चे की जिम्मेदारी इस भावना के साथ लेनी चाहिए कि बच्चों के पूरे परिवार ही उस विद्यालय को एक महान मार्ग दर्शक आश्रम और यहाँ तक कि धर्म स्थल की तरह मानने के लिए मजबूर हो जायें।

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