कैसे बचेगी गटर में दम तोड़ती जिन्दगी ?
-रमेश सर्राफ धमोरा
स्वतंत्र पत्रकार
हाल ही में आन्ध्र प्रदेश राज्य के चित्तूर जिले के पालमनेरू मंडल गांव में एक गटर की सफाई करने के दौरान जहरीली गैस की चपेट में आने से सात लोगो की मौत हो गयी थी। से सभी लोग सेप्टिक टैंक की सफाई करने के लिये उसमें उतरे थे। सेप्टिक टैंक में कीचड़ होने से सभी मजदूर उसमें धंस गये व दम घुट जाने की वजह से उनकी मौत हो गई। देश के विभिन्न हिस्सो में हम आये दिन इस प्रकार की घटनाओं से सम्बन्धित खबरें समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं। देश में हर साल काफी लोग गटर की सफाई करने के दौरान दम घुटने से मारे जाते हैं। हर मौत का कारण ये वही गटर है जिसके आस पास से हम गुजरना भी पसंद नहीं करते हैं। सरकार और सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने की बात करते हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता है। सीवर की गंदगी से उन्हें लाइलाज बिमारियां हो जाती है जो आखिर में उन्हें मौत के मुंह में ले जाती है।
देश के विभिन्न हिस्सो में पिछले छरू माह में गटर की सफाई करने के दौरान 100 से अधिक व्यक्तियों की मौत हो चुकी है। अधिकतर टैंक की सफाई के दौरान मरने वालों की उम्र 20 से 50 वर्ष के लोगों की होती है। समाज के जिम्मेदार लोगों ने कभी महसूस ही नहीं किया कि नरक-कुंड की सफाई के लिए बगैर तकनीकी ज्ञान व उपकरणों के निरीह मजदूरों को सीवर में उतारना अमानवीय है। नरक कुंड की सफाई का जोखिम उठाने वाले लोगों की सुरक्षा-व्यवस्था के कई कानून हैं और मानव अधिकार आयोग के निर्देश भी। इस अमानवीय त्रासदी में मरने वाले अधिकांश लोग असंगठित दैनिक मजदूर होते हैं। इस कारण इनके मरने पर ना तो कहीं विरोध दर्ज होता है और न ही भविष्य में ऐसी दुर्घटनाएं रोकने के उपाय।
यह विडंबना है कि सरकार व सफाई कर्मचारी आयोग सिर पर मैला ढोने की अमानवीय प्रथा पर रोक लगाने के नारों से आगे इस तरह से हो रही मौतों पर ध्यान ही नहीं देता है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और मुंबई हाईकोर्ट ने सीवर की सफाई के लिए दिशा-निर्देश जारी किए थे, जिनकी परवाह और जानकारी किसी को नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि सीवर की सफाई के लिए केवल मशीनों का ही उपयोग किया जाना। इसके बावजूद इन सफाई कर्मचारियों को बिना किसी तकनीक यंत्र के शरीर पर सरसों का तेल लगाकर गटर में सफाई करने उतारा जाता है। इसका नतीजा यह होता है कि समय बीते के साथ-साथ वे कई तरह की बीमारियों के शिकार हो जाते हैं।
देश भर में 27 लाख सफाई कर्मचारी। जिसमें 7 लाख 70 हजार सरकारी सफाई कर्मचारी है। 20 लाख सफाई कर्मचारी ठेके पर काम करते हैं। औसतन एक सफाईकर्मी की मासिक कमाई 5 से 8 हजार रुपये प्रति महीना है। 90 फीसदी गटर-सीवर साफ करने वालों की मौत 60 बरस से पहले हो जाती है। 60 फीसदी सफाईकर्मी कॉलरा, अस्थमा, मलेरिया और कैंसर जैसी बिमारियों से पीडित होते हैं। इस कार्य में बीमा की भी कोई सुविधा नहीं होती है।
कोर्ट के निर्देशों के अनुसार सीवर की सफाई करने वाली एजेंसी के पास सीवर लाईन के नक्शे, उसकी गहराई से सम्बंधित आंकड़े होना चाहिए। सीवर सफाई का दैनिक रिकॉर्ड, काम में लगे लोगों की नियमित स्वास्थ्य की जांच, आवश्यक सुरक्षा उपकरण मुहैया करवाना, काम में लग कर्मचारियों का नियमित प्रशिक्षण, सीवर में गिरने वाल कचरे की नियमित जांच कि कहीं इसमें कोई रसायन तो नहीं गिर रहे हैं जैसे निर्देशों का पालन होता कहीं नहीं दिखता है। भूमिगत सीवरों ने भले ही शहरी जीवन में कुछ सहूलियतें दी हों, लेकिन इसकी सफाई करने वालों के जीवन में इन अंधेरे नालो ने और भी अंधेरा कर दिया है। देश में दो लाख से अधिक लोग जाम हो गए सीवरों को खोलने, मेनहोल में घुस कर वहां जमा हो गई गाद, पत्थर को हटान के काम में लगे हैं। कई-कई महीनों से बंद पड़े इन गहरे नरक कुंडों में कार्बन मोनो ऑक्साईड, हाईड्रोजन सल्फाइड, मीथेन जैसी दमघोटू गैसें होती हैं।
सभी सरकारी दिशा-निर्देशों में दर्ज हैं कि सीवर सफाई करने वालों को गैस -टेस्टर, गंदी हवा को बाहर फेंकन के लिए ब्लोअर, टॉर्च, दस्ताने, चश्मा और कान को ढंकन का कैप, हैलमेट मुहैया करवाना आवश्यक है। मुंबई हाईकोर्ट का निर्देश था कि सीवर सफाई का काम ठेकेदारों के माध्यम से कतई नहीं करवाना चाहिए। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इस बारे में कड़े आदेश जारी कर चुका है। इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं गायब है।
एक तरफ दिनों दिन सीवर की लंबाई में वृद्धि हो रही है वहीं दूसरी मजदूरों की संख्या में कमी आई। सीवर सफाई में लगे कुछ श्रमिकों के बीच किए गए सर्वे से मालूम चलता है कि उनमें से 49 फीसदी लोग सांस की बीमारियों, खांसी व सीने में दर्द के रोगी हैं। 11 प्रतिशत को डरमैटाइसिस, एग्जिमा और ऐसे ही चर्मरोग हैं। लगातार गंदे पानी में डुबकी लगाने के कारण कान बहने व कान में संक्रमण, आंखों में जलन व कम दिखने की शिकायत करने वालों का संख्या 32 फीसदी थी । भूख न लगना उनका एक आम रोग है । इतना होने पर भी सीवरकर्मियों को उनके जीवन की जटिलताओं की जानकारी देने के लिए न तो सरकारी स्तर पर कोई प्रयास हुए हैं और न ही किसी स्वयंसेवी संस्था ने इसका बीड़ा उठाया है।
गटर की सफाई करने वालो की जान तो जाती ही है, इसके साथ ही इनका पूरा परिवार भी अनाथ हो जाता है। आमदनी का स्रोत खत्म हो जाता है। मासूम बच्चों की पढ़ाई के साथ-साथ दो वक्त के खाने की भी परेशानी हो जाती है। मरने वालों का पूरा परिवार बेसहारा हो जाता है। देश में जाम सीवर की मरम्मत करने के दौरान प्रतिवर्ष दम घुटने से काफी लोग मारे जाते हैं। इससे पता चलता है कि हमारी गंदगी साफ करने वाले हमारे ही जैसे इंसानों की जान कितनी सस्ती है। ऐसी बदबू, गंदगी और रोजगार की अनिश्चितता में जीने वाले इन लोगों का शराब व अन्य नशों की गिरफ्त में आना लाजिमी ही है। नशे की यह लत उन्हें कई गंभीर बीमारियों का शिकार बना देती है। सीवर सफाई के काम में लगे लोगों को सामाजिक उपेक्षा का भी सामना करना पड़ता है। इन लोगों के यहां रोटी-बेटी का रिश्ता करने में उनके ही समाज वाले परहेज करते हैं।
आमतौर पर ये लोग सीवर में उतरने से पहले शराब पीते हैं, क्योंकि नशे के सरूर में वे भूल पाते हैं कि काम करते समय उन्हें कितनी गंदगी से गुजरना है। शराब पीने के बाद शरीर में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है, फिर गहरे सीवरों में तो वैसे ही आक्सीजन की कमी रहती है। तभी सीवर में उतरते ही इनका दम घुटने लगता है। सफाई का काम करने के बाद उन्हें नहाने के लिए साबुन व पानी तथा पीने का स्वच्छ पानी उपलब्ध करवाने की जिम्मेदारी भी कार्यकारी एजेंसी की है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग भी इस बारे में कड़े आदेश जारी कर चुका है। इसके बावजूद ये उपकरण और सुविधाएं इनको अभी तक नहीं मिल पा रही है।