संपादकीय

भिक्षा एक सामाजिक समस्या है, अपराध नहीं

-विमल वधावन योगाचार्य
(एडवोकेट सुप्रीम कोर्ट)

जम्मू कश्मीर में भीख मांगने की प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के लिए वर्ष 1960 से राज्य विधानसभा द्वारा पारित एक कानून लागू था जिसकी धारा-2(क) के अनुसार की सार्वजनिक स्थल, किसी मंदिर, मस्जिद या अन्य सार्वजनिक पूजा स्थल के अन्दर या बाहर किसी भी कारण से भीख मांगना अपराध घोषित था। इसी धारा में भीख मांगने के उद्देश्य से अपने या किसी पशु के घाव या शारीरिक अक्षमता, रोग आदि का प्रदर्शन भी अपराध माना गया था। यहाँ तक कि जिन लोगों के पास जीवन जीने के पर्याप्त साधन नहीं हैं उनका किसी सार्वजनिक स्थल पर उस अवस्था में घूमना भी अपराध था जिसे देखकर नागरिकों के मन में उसे भीख देने की भावना पैदा हो।
भीख को संस्कृत में भिक्षा कहा जाता है। भिक्षा प्राप्त करने वाला व्यक्ति भिक्षुक कहलाता है और उसे धन या वस्तुएं देने वाला व्यक्ति दानी कहलाता है। भिक्षा और दान भारतीय संस्कृति में बड़े महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। प्राचीनकाल में शिक्षा व्यवस्था गुरुकुलों के रूप में चलती थी। गुरुकुलों में पढ़ने वाले बच्चों के परिवारों से कोई नियमित फीस नहीं ली जाती थी। गुरुकुल दान पर चलते थे। राजा और प्रजा के बच्चों में कोई भेदभाव नहीं होता था। गुरुकुल में पढ़ने वाले प्रत्येक बच्चे को नजदीकी आवासीय क्षेत्रों से भिक्षुक की तरह प्रतिदिन का भोजन एकत्र करने की परम्पराएँ भी देखने को मिलती थीं। पंजाब के दीनानगर में चल रहे गुरुकुल में आज के युग में भी यही भिक्षा प्रवृत्ति देखने को मिल सकती है। इसका उद्देश्य ब्रह्मचारियों के मन में यह भावना उत्पन्न करने में निहित था कि हमारी शिक्षा का लाभ उस समाज को मिलना चाहिए जिसके दिये भोजन से हमारा पालन-पोषण हो रहा है। भिक्षा एक प्रकार से अपने अहंकार को समाप्त करने का प्रतीक समझी जाती थी। ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ जीवन बिताने के बाद जब व्यक्ति संन्यास आश्रम में प्रवेश करता है तो उसे भी भिक्षा की परम्परा का निर्वहन उसी संन्यास ग्रहण समारोह से ही करना होता है। भारतीय समाज में भिक्षा कभी भी निन्दनीय नहीं रही। आधुनिक भारतीय समाज में बढ़ती जनसंख्या और कमजोर अर्थव्यवस्था का परिणाम है कि कुछ असहाय और गरीब लोग सड़कों पर भिक्षा मांगने के लिए विवश हो जाते हैं। होना तो यह चाहिए था कि सरकार इन सभी लोगों और परिवारों के लिए शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था करती, अन्यथा शरणगृह बनाकर उनके जीवन की न्यूनतम आवश्यकताएँ तो अवश्य ही उपलब्ध कराई जाती। भारत के संविधान ने भी जीवन जीने का मौलिक अधिकार घोषित किया है तो उसका अभिप्राय भी यही होना चाहिए कि देश में कोई व्यक्ति रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूल आवश्यकताओं से वंचित न हो।
भिक्षा का दूसरा पक्ष दान है। भारतीय संस्कृति में दान का भी अपार महत्त्व हर कदम पर देखने को मिलता है। प्रत्येक पुरुष का यह धार्मिक दायित्व है कि वह अपने परिवार, मित्रों और पूरे समाज की आवश्यकताओं के प्रति दान की भावना रखे। भारत में दान के अनेकों स्वरूप देखने को मिलते हैं। दान के धन से धर्मशालाएँ बनवाई जाती हैं, विद्यालय बनवाये जाते हैं, पानी पीने के जल की व्यवस्थाएं की जाती हैं, कुंए खुदवाये जाते हैं, वृक्ष लगवाये जाते हैं और स्वास्थ्य के लिए औषधियाँ दान दी जाती हैं। ऋग्वेद में विद्या के दान को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह दान देने से बढ़ता है। ‘मनुस्मृति’ में भूखे को अन्न दान देने से अपनी भूख मिटाने के समान माना गया है। दिये जलाने के लिए दिये गये दान से दानी को आँखों की रोशनी का सुख मिलता है। भूमि दान देने वाले को हर प्रकार की समृद्धि मिलती है। चांदी दान देने वाले को सुन्दरता प्राप्त होती है। गुरुनानक देव जी ने दान के विषय में कहा कि गरीब आदमी को खिलाया गया भोजन और दिया गया दान समझो परमात्मा की गोलक में डाला गया दान है। गीता के अनुसार बिना किसी आशा के दिया गया दान दानी और भिक्षुक दोनों के लिए लाभकारी होता है। उपनिषदों में गऊदान का भी बड़ा गुणगान किया गया है। पुराणों में भी तरह-तरह के दान देकर पुण्य कमाने की चर्चाएँ कहानियों के रूप में विद्यमान हैं। मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे या चर्चों के रूप में स्थापित भारत के लगभग सभी धार्मिक स्थलों का संचालन भी दान के पैसे से ही किया जाता है। हिन्दू विवाह पद्धति में विवाह को भी वधु के माता-पिता के द्वारा कन्या दान के रूप में महिमा मंडित किया गया है। शास्त्रों में कन्या दान करने वाले व्यक्ति को बहुत से पुण्य लाभ बताये जाते हैं। जिन लोगों के परिवार में बेटियाँ नहीं होती वे किसी गरीब परिवार की बेटी के विवाह का खर्च वहन करके अपने हाथों से कन्या दान का दायित्व पूरा करते हैं। दान को पूरे प्रेम और सद्भावना के साथ दिया जाना चाहिए।
ऐसी संस्कृति वाले देश में जम्मू कश्मीर विधानसभा की तत्कालीन सरकार और विधायकों के मानसिक दिवालियेपन पर दया आती है जिन्होंने वर्ष 1960 में यह निर्दयता से परिपूर्ण और जीवन जीने के मौलिक अधिकार के उल्लंघन का कानून पारित किया होगा। सुहेल रशीद भट्ट नामक एक एडवोकेट ने जम्मू कश्मीर उच्च न्यायालय के समक्ष इस कानून के विरुद्ध जनहित याचिका प्रस्तुत की जिस पर उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश सुश्री गीता मित्तल और श्री राजेश बिन्दल की खण्डपीठ ने हाल ही में निर्णय पारित किया और इस कानून को संविधान के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए रद्द कर दिया है।
इस निर्णय में यह स्पष्ट लिखा गया है कि सड़कों पर भिक्षा की प्रवृत्ति सरकारों की असफलता प्रदर्शित करती हैं, क्योंकि व्यक्ति को रोटी, कपड़ा, मकान तथा स्वास्थ्य जैसी मूल सुविधाएँ उपलब्ध करवाना सरकारों का ही दायित्व है। प्रत्येक व्यक्ति को रोजगार उपलब्ध करवाना भी सरकारों का दायित्व है। जहाँ तक सड़कों पर भिक्षा की प्रवृत्ति से पैदा होने वाले वातावरण की बात है तो उसे एक समस्या समझकर उसका समाधान किया जाना चाहिए, भिक्षा को अपराध नहीं माना जा सकता। सरकारें अपने दायित्वों को पूरा करके समस्याओं को सुलझाने का प्रयास करें। समस्या से जुड़े लोगों को अपराधी घोषित करके कोई राजनीतिक नैतिकता सिद्ध नहीं होती।

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