संपादकीय

संकट में साथ निभाती साइकिल

3 जून विश्व साइकिल दिवस पर विशेष

-रमेश सर्राफ धमोरा
स्वतंत्र पत्रकार (झुंझुनू राजस्थान)

साइकिल हमारे जीवन का अभिन्न अंग हैं। बच्चे सबसे पहले साइकिल चलाना ही सीखते है। 3 जून 2018 को विश्व में पहला विश्व साइकिल दिवस मनाया गया। तब से दुनिया में प्रतिवर्ष साइकिल दिवस को मनाने लगे हैं। आज हम तीसरा विश्व साइकिल दिवस मना रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने परिवहन के सामान्य, सस्ते, विश्वसनीय, स्वच्छ और पर्यावरण अनुकूल साधन के रूप में इसे बढ़ावा देने के लिए विश्व साइकिल दिवस को मनाने की घोषणा की थी। बचपन में तो हम सभी ने बहुत साइकिल चलाई है। लेकिन आज के इस दौर में लोग मोटरसाइकिल और कार से जाना ज्यादा पसंद करते हैं।
गत वर्ष देश में लॉकडाउन के दौरान देश के दूसरे प्रदेशों में कमाने गए लोगों को अपने घर जाने के लिए कोई साधन नहीं मिल पा रहे थे। ऐसे में करोड़ो लोग खुद को दूसरे प्रदेशों में फंसा हुआ महसूस कर रहे थे। इस दौरान लाखों लोग साइकिल पर 1000-1500 किलोमीटर की दूरी तय कर अपने घर पहुंचे थे। संकट के समय साइकिल ही उनके घर पहुंचने का एकमात्र साधन बनी थी। तालाबंदी के दौरान लाखों लोगों के घर पहुंचने का सबसे उपयोगी साधन बनने से लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ में आ गयी की साइकिल आज भी आम लोगों का सबसे सस्ता व सुलभ साधन है।
भारत में भी साइकिल के पहियों ने देश की आर्थिक तरक्की में अहम भूमिका निभाई। 1947 में आजादी के बाद अगले कई दशक तक देश में साइकिल यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा रही। खासतौर पर 1960 से लेकर 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिल थी। यह व्यक्तिगत यातायात का सबसे ताकतवर और किफायती साधन था। गांवों में किसान साप्ताहिक मंडियों तक सब्जी और दूसरी फसलों को साइकिल से ही ले जाते थे। दूध की सप्लाई गांवों से पास से कस्बाई बाजारों तक साइकिल के जरिये ही होती थी। डाक विभाग का तो पूरा तंत्र ही साइकिल के बूते चलता था। आज भी पोस्टमैन साइकिल से चिट्ठियां बांटते हैं।
पहले के जमाने में जिसके पास साइकिल होती थी वह बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति माना जाता था। गांव के लोग जब कभी शहरों में जाते थे। तब लोगों को साइकिल चलाते हुए देखते थे और फिर वे खुद भी धीरे-धीरे साइकिल चलाना सीख जाते थे। पहले शहरों में किराए पर भी साइकिले मिलती थी। आज से 30 वर्ष पूर्व तक अधिकांश लोग शहरों में साइकिल पर ही आवागमन करते थे।
अब तो विभिन्न प्रकार के फीचर से लैस गियर वाली कीमती साइकिले बाजार में आ गई है। पहले लोगों के पास सामान्य साइकिले ही हुआ करती थी। जिनके पीछे एक कैरियर लगा रहता था। जिस पर व्यक्ति अपना सामान रख लेता था व जरूरत पड़ने पर दूसरे व्यक्ति को बैठा लेता था। कई बार तो साइकिल सवार आगे लगे डंडे पर भी अपने साथी को बिठाकर 3-3 लोग साइकिल पर सवारी करते थे। साइकिल से वातावरण में किसी तरह का प्रदूषण नहीं होता था। पेट्रोल डलवाने का झंझट भी नहीं था। साइकिल उठाई पैडल मारे और पहुंच गए अगले स्थान पर। पहले के जमाने में साइकिल के आगे एक छोटी सी लाइट भी लगी रहती थी। जिसका डायनुमा पीछे के टायर से जुड़ा रहता था। साइकिल सवार जितनी तेजी से साइकिल चलाता उतनी ही अधिक लाइट की रोशनी होती थी।
आज देश की युवा पीढ़ी को मोटरसाइकिल की सवारी ज्यादा लुभा रही थी। शहरों में मोटरसाइकिल का शौक बढ़ रहा था। गांवों में भी इस मामले में बदलाव की शुरुआत हो चुकी थी। इसके बावजूद भारत में साइकिल की अहमियत खत्म नहीं हुई है। शायद यही वजह है कि चीन के बाद दुनिया में आज भी सबसे ज्यादा साइकिल भारत में बनती हैं। 1990 के बाद से साइकिलों की बिक्री में बढ़ोतरी आई है। लेकिन ग्रामीण इलाकों में इसकी बिक्री में गिरावट आई है। दरअसल 1990 से पहले जो भूमिका साइकिल की थी। उसकी जगह गांवों में मोटरसाइकिल ने ले ली है।
भारत में भी विकसित की जा रही ज्यादातर आधारभूत आधुनिक संरचनाएं मोटर-वाहनों को ही सुविधा प्रदान करने के लिए बन रही हैं। साइकिल जैसे पर्यावरण-हितैषी वाहन को नजरअंदाज किया जा रहा है। जबकि शहरी व ग्रामीण परिवहन में भी साइकिल का महत्वपूर्ण स्थान है। खासतौर से कम आय-वर्ग के लोगों के लिए साइकिल उनके जीविकोपार्जन का एक सस्ता, सुलभ और जरूरी साधन है। यह इसलिए भी कि भारत का कम आय-वर्ग के लोग अपनी कमाई से प्रतिदिन सौ-पचास रुपये परिवहन पर खर्च करने में सक्षम नहीं हैं।
भारत सरकार अपनी साइकिल परिवहन व्यवस्था में कुछ जरूरी किंतु मूलभूत सुधार करके आम और खास लोगों को साइकिल चलाने के लिए प्रेरित कर सकती है। सरकार के इस कदम से ऐसे सभी लोग प्रेरणा पा सकते हैं। जिनकी प्रतिदिन औसत यातायात दूरी पांच-सात किलोमीटर के आसपास बैठती हैं। हमारे देश की कई राज्य सरकारें अपने स्कूली छात्र-छात्राओं को बड़ी संख्या में साइकिल वितरण कर रही हैं। जिससे साइकिल सवारों की संख्या में वृद्धि हुई है। ’द एनर्जी ऐंड रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के अनुसार पिछले एक दशक में साइकिल चालकों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में 43 फीसदी से बढकर 46 फीसदी हुई है। जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 46 फीसदी से घटकर 42 फीसदी पर आ गई है। इसकी मुख्य वजह साइकिल सवारी का असुरक्षित होना ही पाया गया है।
पिछले साल विश्व साइकिल दिवस के दिन ही भारत की सबसे बड़ी साइकिल निर्माता कंपनी एटलस बंद हो गयी थी। प्रतिवर्ष 40 लाख साइकिल का उत्पादन करने वाली भारत की सबसे बड़ी व दुनिया की जानी मानी कंपनी एटलस के बंद होने से साइकिल उद्योग को बड़ा धक्का लगा है। एटलस की फैक्ट्री बंद होने से वहां काम करने वाले करीबन एक हजार लोगों के बेरोजगार हो गये हैं। एटलस साइकिल कंपनी की स्थापना 1951 में हुई थी। इसका कई विदेशी साइकिल निर्माता कंपनियों के साथ गठबंधन था। जिस कारण एटलस कंपनी की साइकिल दुनिया भर की श्रेष्ठ साइकिलों में शुमार होती थी। अमेरिका के बड़े-बड़े डिपार्टमेंट स्टोर में भी एटलस कंपनी में बनी साइकिले बेची जाती थी। दुनिया की सबसें बड़ी साइकिल निर्माता कंपनी एटलस का विश्व साइकिल दिवस के दिन ही घाटे के चलते बंद हो जाना बड़े दुर्भाग्य की बात है।
भारत में साइकिल ने आर्थिक तरक्की में अहम भूमिका निभाई है। आजादी के बाद अगले कई दशक तक देश में साइकिल यातायात व्यवस्था का अनिवार्य हिस्सा रहती थी। 1960 से 1990 तक भारत में ज्यादातर परिवारों के पास साइकिले होती थी। देश की युवा पीढ़ी को अब साइकिल के बजाय मोटरसाइकिल ज्यादा अच्छी लगने लगी है। इसके उपरांत में भारत में साइकिल की अहमियत कभी खत्म नहीं हो सकती है। इसी कारण चीन के बाद आज भी भारत दुनिया में सबसे ज्यादा साइकिल बनाने वाला देश है।
अब समय आ गया है कि शहर एवं गांवो में साइकिल चालन को एक बड़े स्तर पर प्रोत्साहन देने की। ताकि बढ़ते प्रदूषण को कुछ हद तक रोका जा सके। अब हमारे शहरों में समर्पित साइकिल मार्गों का निर्माण किया जाना चाहिये। हमें विश्व साइकिल दिवस को महज एक सांकेतिक कवायद के रूप में नहीं देखना चाहिये।

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